मोक्षपाहुड गाथा 15
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो परद्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होकर कर्मो को बाँधता है -
जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू ।
मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।।१५।।
य: पुन: परद्रव्यरत: मिथ्यादृष्टि: भवति स: साधु ।
मिथ्यात्वपरिणत: पुन: बध्यते दुष्टाष्टकर्मभि: ।।१५।।
किन्तु जो परद्रव्य रत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं ।
मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मो से बंधें ।।१५।।
अर्थ - पुन: अर्थात् फिर जो साधु परद्रव्य में रत है, रागी है, वह मिथ्यादृष्टि होता है और वह मिथ्यात्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कर्मो से बंधता है ।
भावार्थ - यह बंध के कारण का संक्षेप है । यहाँ साधु कहने से ऐसा बताया है कि जो बाह्य परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ हो जावे तो भी मिथ्यादृष्टि होता हुआ संसार के दु:ख देनेवाले अष्ट कर्मो से बंधता है ।।१५।।