योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 113
From जैनकोष
मिथ्यात्वरूप पाप का फल -
तेषु प्रवर्तमानस्य कर्मणामास्रव: पर: ।
कर्मास्रव-निमग्नस्य नोत्तारो जायते तत: ।।११३।।
अन्वय :- तेषु (सचित्त-अचित्त-परद्रव्येषु) प्रवर्तमानस्य (जीवस्य) कर्मणाम् पर: आस्रव: (जायते) । तत: कर्मास्रव-निमग्नस्य (जीवस्य) उत्तार: न जायते ।
सरलार्थ :- चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थो में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति को प्राप्त जीव को कर्मो का महा आस्रव होता है । इसलिए जो कर्मो के महा आस्रवों में डूबा रहता है, उस जीव का संसार से उद्धार नहीं हो सकता ।
भावार्थ :- चारित्रमोहनीय कर्मोदय के निमित्त से होनेवाले क्रोधादिरूप परिणामों के कारण जीव को अधिक से अधिक मात्र ४० कोडाकोडी सागर का ही स्थितिबन्ध होता है । दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व परिणाम के कारण जीव प्रतिसमय ७० कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है । संक्षेप में बताना हो तो मात्र अचारित्ररूप क्रोधादि परिणामों से जीव संसार में मात्र अटकता है, उसका संसार से निकलना देरी से सही लेकिन निश्चित है । श्रद्धा की विपरीतता अर्थात् मिथ्यात्व के कारण ही जीव अनादिकाल से भटक रहा है और जबतक श्रद्धा यथार्थ नहीं होगी, तबतक भविष्य में भी अनन्तकाल पर्यन्त भटकता ही रहेगा । सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही भटकना बंद होगा, अत: जीव का प्रमुख कर्त्तव्य सम्यक्त्व प्राप्त करना ही है । श्रद्धा में सुधार अर्थात् समीचीनपना ही संसार से उद्धार का प्रारम्भ है ।