योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 136
From जैनकोष
मिथ्यात्व का स्वरूप एवं कार्य -
कुर्वाण: परमात्मानं सदात्मानं पुन: परम् ।
मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो रजोग्राही निरन्तरम् ।।१३६।।
अन्वय :- मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्त: सदा परं आत्मानं, पुन: आत्मानं परं कुर्वाण: निरन्तरं (कर्म) रजोग्राही (भवति) ।
सरलार्थ :- जो मिथ्यात्व से मोहितचित्त होता हुआ सदा पर वस्तु को आत्मा मानता है और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप करता है, वह निरंतर कर्मरूपी रज को ग्रहण करता है अर्थात् उसे निरन्तर कर्मास्रव होता है ।
भावार्थ :- पर-वस्तु को आत्मारूप मानना और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप मानना ही मिथ्यात्व है । इस विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व से निरन्तर सात या आठ कर्मो का दु:खदायक आस्रव होता है ।