आर्हंत्यक्रिया
From जैनकोष
गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय इन तीनों प्रकार की क्रियाओं में अन्तर्निहित क्रिया । गर्भान्वय की तिरेपन क्रियाओं में यह पचासवीं क्रिया है । यह केवलज्ञान की प्राप्ति पर देवों द्वारा की जाने वाली अर्हन्तों की पूजा के रूप मे निष्पन्न होती है । महापुराण 38.55-63, 301-303 । दीक्षान्वय की अड़तालीस क्रियाओं मे यह पैंतालीसवीं क्रिया है । इसका स्वरूप गर्भान्वय की अर्हन्त्य क्रिया जैसा ही है । कर्त्रन्वय की सात क्रियाओं में यह छठी किया है । इसमें अर्हन्त के गर्भावतार से लेकर पंचकल्याणकों तक की समस्त क्रियाएँ आ जाती है । महापुराण 39.25, 203-204 देखें गर्भान्वय