योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 358
From जैनकोष
जिनलिंग का स्वरूप -
सोपयोगमनारम्भं लुञ्चित-श्मश्रु स्तकम् ।
निरस्त-तनु-संस्कारं सदा संग-विविर्जितम् ।।३५८।।
निराकृत-परापेक्षं निर्विकारमयाचनम् ।
जातरूपधरं लिङ्गं जैनं निर्वृति-कारणम् ।।३५९।।
अन्वय :- सदा सोपयोगं, अनारम्भं, लुञ्चित-श्मश्रु-मस्तकं, निरस्त-तनु-संस्कारं, संगय विवर्जितं, निराकृत-परापेक्षं, निर्विकारं, अयाचनं, जातरूपधरं जैनं लिङ्गं निर्वृति-कारणं (जायते) ।
सरलार्थ :- जो सदा ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से सहित है, सावद्यकर्मरूप आरम्भ से रहित है, जिसमें दाढी, मूँछ तथा मस्तक के केशों का लोंच किया जाता है, तेल मर्दनादि रूप में शरीर का संस्कार नहीं किया जाता, जो बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से मुक्त, पर की अपेक्षा से रहित, याचना-विहीन, विकार-विवर्जित और जो नवजात शिशु के समान वस्त्राभूषण से रहित दिगम्बर स्वरूप है, वह जैन अर्थात् जिनलिंग है, जो कि मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त कारण है ।