योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 515
From जैनकोष
अनासक्त ज्ञानी विषयभोगों से निर्बंध -
विषयैर्विषयस्थोsपि निरासङ्गो न लिप्यते ।
कर्दस्थो विशुद्धात्मा स्फेटक: कर्दैरिव ।।५१६।।
अन्वय : - कर्दस्थ: विशुद्धात्मा स्फेटक: कर्दै: (न लिप्यते) इव निरासङ्ग: विषयस्थ: अपि (विशुद्धात्मा) विषयै: न लिप्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ विशुद्ध स्फेटकमणी कीचड़ से लिप्त नहीं होता अर्थात् अपने निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ता-निर्मल ही रहता है । उसीप्रकार जो ज्ञानी जीव नि:संग अर्थात् अनासक्त रहता है, वह ज्ञानी स्पर्शनादि पाँचों इंद्रियों के स्पर्शादि विषयों को भोगता हुआ भी विषयजन्य पाप से नहीं बंधता - निर्बंध ही रहता है ।