स्वयंभू
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- म.पु./59/श्लोक पूर्व भव सं.2 में पश्चिम विदेह में मित्रनन्दी राजा था (63) पूर्व भव में अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र था (70)। वर्तमान भव में तृतीय नारायण हुए हैं। विशेष परिचय-देखें शलाकापुरुष - 4।
- भाविकालीन उन्नीसवें तीर्थंकर हैं।-देखें तीर्थंकर - 5।
- योगदर्शन के आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भ का अपर नाम-देखें योगदर्शन ।
- अपभ्रंश के प्रथम कवि हैं। इनके पिता का नाम मारुत देव, और माता का नाम पद्मिनी था। आपका निवास स्थान कर्णाटक अथवा कन्नौज। सेठ धनञ्जय अथवा धवलइया द्वारा रक्षित। कृतियें-पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ, स्वयम्भूछन्द, स्वयम्भू व्याकरण, पंचमि चरिउ, हरिवंश पुराण। समय-ई.738-840। (ती./4/95)।
स्वयंभू का लक्षण
निक्षेप/5/8/6 आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से स्वयंबुद्ध होते हैं।
पं.का./ता.वृ./152/220/12 तथा चोक्तम्-श्रीपूज्यपादस्वामिभिर्निश्चयध्येयव्याख्यानम् । आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सन् स्वयंभू: प्रवृत्त:। =श्रीपूज्यपाद स्वामी ने भी निश्चय ध्येय का व्याख्यान किया है कि-आत्मा आत्मा को आत्मा में आत्मा के द्वारा उस आत्मा को एक क्षण धारण करता हुआ स्वयं हो जाता है।
प्र.सा./त.प्र./16 स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमान:, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते। =स्वयं ही षट्कारक रूप होता है, इसलिए वह स्वयंभू कहलाता है। अथवा अनादि काल से अतिदृढ बँधे हुए द्रव्य तथा भाव घातिकर्मों को नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ है, अर्थात् किसी की सहायता के बिना अपने आप की स्वयं प्रगट हुआ इसलिए स्वयंभू कहलाता है।
स्या.म./1/9/3 स्वयम्-आत्मनैव, परोपदेशनिरपेक्षतयावगततत्त्वो भवतितीति स्वयंभू:-स्वयंसंबुद्ध:। =जिसने दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही तत्त्वों को जान लिया है, वह सवयंभू कहलाता है।
स्व.स्तो./टी./1 स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धय अनुष्ठाय वा अनन्तं भवतीति स्वयंभू:। =स्वयं ही बिना किसी दूसरे के उपदेश के मोक्षमार्ग को जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्मविकास को प्राप्त हुए थे, इसलिए स्वयम्भू थे।
* जीव को स्वयम्भू कहने की विवक्षा-देखें जीव - 1.3।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर कुन्थुनाथ के प्रथम गणधर । महापुराण 64.44, हरिवंशपुराण 60.348
(2) तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर । महापुराण 73.149 हरिवंशपुराण 60.349
(3) आगामी उन्नीसवें तीर्थंकर । महापुराण 76. 480, हरिवंशपुराण 60.561
(4) तीसरे वासुदेव (नारायण) । ये अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा चौथे काल में उत्पन्न हुए थे । विमलनाथ तीर्थंकर के समय में भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा भद्र इनके पिता और पृथिवी रानी इनकी माता थी । इनका धर्म नाम का भाई बलभद्र था । रत्नपुर नगर का राजा मधु प्रतिनारायण इनका बैरी था । मधु ने इन्हें मारने के लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर इनका दाहिनी भुजा पर आकर ठहर गया था । इन्होंने इसी चक्र से मधु को मारकर उसका राज्य प्राप्त किया था । जीवन के अन्त में मधु और यह दोनों मरकर सातवें नरक गये । इन्होंने कण्ठ तक कोटिशिला उठाई थी । इनकी कुल आयु साठ लाख भव की थी । इसमें इन्होंने बारह हजार पाँच सौ वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मण्डलीक अवस्था में, नब्बे वर्ष दिग्विजय में और उनसठ लाख चौहत्तर हजार नौ सौ दस वर्ष राज्य अवस्था में बिताये थे । ये दूसरे पूर्वभव में भारतवर्ष के कुणाल देश क श्रावस्ती नगरी के सुकेतु नामक राजा थे । जुआ में सब कुछ हार जाने से इस पर्याय में इन्होंने जिनदीक्षा ले ली थी और कठिन तपश्चरण किया था । अन्त में समाधिमरणपूर्वक देह त्याग कर के प्रथम पूर्वभव में ये लान्तव स्वर्ग में देव हुए । महापुराण 59.63-100, हरिवंशपुराण 53. 36, 60.288, 521-522 वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 112
(5) तीर्थङ्कर वासुपूज्य का मुख्यकर्त्ता । महापुराण 76.530
(6) रावण का एक सामन्त । इसने राम के पक्षधर दुर्गति नामक योद्धा के साथ युद्ध किया था । पद्मपुराण 57.45, 62.35
(7) जम्बूद्वीप ने पश्चिम विदेहक्षेत्र के एक तीर्थङ्कर मुनि । वीतशोका नगरी के राजा वैजयन्त और उनके दोनों पुत्र सजयन्त और जयन्त के ये दीक्षागुरु थे । हरिवंशपुराण 27. 5-7
(8) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.35, 25.66 100