कल्की
From जैनकोष
जैनागम कल्की राजा नाम के राजा का उल्लेख जैनयतियों पर अत्याचार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसके व इसके पिता के विभिन्न नाम आगम में उपलब्ध होते हैं और इसी प्रकार इनके समय का भी। फिर भी वह-लगभग गुप्त वंश के पश्चात् प्राप्त होता है। इतिहासकारों से पूछने पर पता चलता है कि भारत में गुप्त साम्राज्य के पश्चात् एक बर्बर जंगली जाति का राज्य हुआ करता था, जिसका नाम ‘हून’ था। ई॰ 431-546 के 125 वर्ष के राज्य में एक के पीछे एक चार राजा हुए। सभी अत्यन्त अत्याचारी थे। इस प्रकार आगम व इतिहास का मिलान करने से प्रतीत होता है कि कल्की नाम का कोई राजा न था। बल्कि उपरोक्त चारों राजा ही अपने अत्याचारों के कारण कल्की नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार उनके विभिन्न नामों व समयों का सम्मेल बैठ जाता है।–देखें इतिहास - 3.2
- आगम की अपेक्षा कल्की निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/1509-1510 तत्तो कक्की जादो इंदसुतो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो।1509। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेसुं। वोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो।1510। =इस गुप्त राज्य (वी. नि. 958) के पश्चात् इन्द्र का सुत कल्की उत्पन्न हुआ। इसका नाम चतुर्मुख, आयु 70 वर्ष और राज्यकाल 42 वर्ष प्रमाण था।1509। आचारांगधरों (वी. नि. 683) के 275 वर्ष पश्चात् (वी. नि. 958 में) कल्की को नरपति का पट्ट बाँधा गया।1510।
हरिवंशपुराण/60/491-492 भद्रबाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च वर्षाणि कालविद्भिरूदाह्रतम् ।491। द्विचत्वारिंशदेवात: कल्किराजस्य राजता।....।492। = फिर 242 वर्ष तक बाणभट्ट (शक वंश) का, फिर 221 तक गुप्तों का और इसके बाद (वी. नि. 958 में) 42 वर्ष तक कल्कि राजा का राज्य होगा।
महापुराण/76/397-400 दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानित:।397। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपते:। पापी तनूज: पृथिवीसुन्दर्या दुर्जनादिम:।398। चतुर्मुखाह्वय: कल्किराजो वेजितभूतल:। उत्पत्स्यते माघसंवत्सरयोगसमागमे।399। समानां सप्ततिस्तस्य परमायु: प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिण:।400। =दु:षमाकाल (वी. नि. 3) के 1000 वर्ष बीतने पर (वी. नि. 1003 में) धर्म की हानि होने से पाटलिपुत्र नामक नगर में राजा शिशुपाल की रानी पृथिवीसुन्दरी के चतुर्मुख नाम का एक ऐसा पापी पुत्र होगा, जो कल्कि नाम से प्रसिद्ध होगा। यह कल्की मघा नाम के संवत्सर में होगा। इसकी उत्कृष्ट आयु 70 वर्ष और राज्यकाल 40 वर्ष तक रहेगा।
त्रिलोकसार/850-851 पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।850। सो उम्मग्गाहिंमुहो सदरिवासपरमाऊ। चालीसरज्जओ जिदभूमी पुच्छइसमंतिगणं।851। =वीर भगवान् की मुक्ति के 605 वर्ष व 5 महीने जाने पर शक राजा हो है। उसके ऊपर 394 वर्ष 7 महीने जाने पर (वी. नि. 1000 में) कल्की होते है।850। वह उन्मार्ग के सम्मुख है। उसका नाम चतुर्मुख तथा आयु 70 वर्ष है। 40 वर्ष प्रमाण राज्य करै है।851।
- इतिहास की अपेक्षा हून वंश
यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके सरदारों ने ई॰ 432 में गुप्त राजाओं पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त करके पीछे भगा दिया परन्तु ये बराबर अपनी शक्ति बढ़ाते रहे, यहाँ तक कि ई॰ 500 में उनके सरदार तोरमाणने गुप्त राज्य को कमज़ोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रान्त पर अपना अधिकार जमा लिया। फिर र्इ॰ 507 में उसके पुत्र मिहिरकुल ने भानुगुप्त को परास्त करके गुप्त वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसने प्रजा पर बड़े अत्याचार किये जिससे तंग आकर एक हिन्दू सरदार विष्णुधर्म ने बिखरी हुई हिन्दू शक्ति को संगठित करके ई॰ 528 में मिहिरकुल को परास्त करके भगा दिया। उसने काश्मीर में जाकर शरण ली और वहाँ ही ई॰ 540 में उसकी मृत्यु हो गयी। ( कषायपाहुड़/ पु.1 प्र.54/पं॰ महेन्द्र) यह विष्णु यशोधर्म कट्टर वैष्णव था। इसने हिन्दू धर्म का तो उपकार किया परन्तु जैन साधुओं व जैन मन्दिरों पर बड़ा अत्याचार किया, इसलिए जैनियों में वह कल्की नाम से प्रसिद्ध हुआ और हिन्दू धर्म में उसे अन्तिम अवतार माना गया। (न्यायावतार/प्र. 2 सतीशचन्द विद्याभूषण)। - आगम व इतिहास के निर्देशों का समन्वय
आगम के उपरोक्त उद्धरणों में कल्की का नाम चतुर्मुख बताया गया है पर उसके पिता का नाम एक स्थान पर इन्द्र और दूसरे स्थान पर शिशुपाल कहा गया है। हो सकता है कि शिशुपाल ही इन्द्र नाम से विख्यात हो। इधर इतिहास में तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल कहा गया है। प्रतीत होता है कि तोरमाण ही इन्द्र या शिशुपाल है और मिहिरकुल ही वह चतुर्मुख है। समय की अपेक्षा भी आगमकारों का कुछ मतभेद है। तिल्लोयपण्णति व हरिवंशपुराण की अपेक्षा उसका काल वी0 नि0 958-1000 (ई0 431-473) और महापुराण व त्रिलोकसार की अपेक्षा वह वी0 नि0 1030-1070 (ई0 503–533) है। इन दोनों मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं है। पहिली में कल्की का राज्यकाल मिलाकर भगवान् के निर्वाण के पश्चात् 1000 वर्ष की गणना करके दिखाई है अर्थात् निर्वाण से 1000 वर्ष पश्चात् धर्म व संघ का लोप दर्शाया है और दूसरी मान्यता में वी0 नि0 1000 में कल्की का जन्म बताकर 30 वर्ष पश्चात् उसे राज्यारूढ कराया गया है। दोनों ही मान्यताओं में उसका राज्यकाल 40 वर्ष बताया गया है। इतिहास से मिलान करने पर दूसरी मान्यता ठीक जँचती है, क्योंकि मिहिरकुल का काल ई0 507–528 बताया गया है।
- कल्की के अत्याचार
तिलोयपण्णत्ति/4/1511 अह सहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण। सुक्कं जाचादि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ।1511।=तदनन्तर वह कल्की प्रयत्नपूर्वक अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ को प्राप्त होता हुआ मुनियों के आहार में से भी प्रथम ग्रास को शुल्क के रूप में माँगने लगा।1511। ( तिलोयपण्णत्ति/1523-1529 ) ( महापुराण/76/410 ) ( त्रिलोकसार/853, 859 )।
- कल्की की मृत्यु
तिलोयपण्णत्ति/4/1512-1513 दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अंतराणं पि। गच्छंति आहिणाणं अप्पजइ तेसु एक्कम्मि।1512। अह को वि असुरदेवो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं। णादूणं तं कक्किं मारेदि हु धम्मदोहि त्ति।1513।=तब श्रमण अग्रपिण्ड को शुल्क के रूप में देकर और ‘यह अन्तरायों का काल है’ ऐसा समझकर (निराहार) चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है।1512। इसके पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञान से मुनिगण के उपसर्ग को जानकर और धर्म का द्रोही मानकर उस कल्की को मार डालता है।1513। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1526-1533 ) ( महापुराण/76/411-414 ) ( त्रिलोकसार/854 )।
- कल्की के पश्चात् पुन: धर्म की स्थापना
तिलोयपण्णत्ति/4/1514-1515 कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्खत्ति णमदि तच्चरणे। तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज्ज त्ति।1514। तत्तो दोवे वासा सम्मद्धम्मो पयट्टदि जणाणं। कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे।1515।=तब अजितंजय नाम का उस कल्की का पुत्र ‘रक्षा करो’ इस प्रकार कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार करता है। तब वह देव ‘धर्मपूर्वक राज्य करो’ इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है।1514। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगों में समीचीन धर्मप्रवृत्ति रहती है, फिर क्रमश: काल के माहात्म्य से वह प्रतिदिन हीन होती जाती है।1515। ( महापुराण/76/428-430 ) ( त्रिलोकसार/855-856 )।
- पंचम काल में कल्कियों व उपकल्कियों का प्रमाण
तिलोयपण्णत्ति/4/1516, 1534, 1535 एवं वस्ससहस्से पुह पुह कक्की हवइ एक्केक्को। पंचसयवच्छरयसुं एक्केक्को तह य उवकक्की।1516। एवमिगवीस कक्की उवकक्की तेत्तिया य घम्माए। जम्मंति धम्मदोहा जलणिहिउवमाणआउजुदो।1534। वासतए अइमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो। सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो।1535।=इस प्रकार 1000 वर्षों के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा 500 वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है।1516। इस प्रकार 21 कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोह से एक सागरोपम आयु से युक्त होकर धर्मा पृथिवी (प्रथम नरक) में जन्म लेते हैं।1534। इसके पश्चात् 3 वर्ष 8 मास और एक पक्ष के बीतने पर महाविषम वह अतिदुषमा नाम का छठा काल प्रविष्ट होता है।1535। ( महापुराण/76/431-441 ) ( त्रिलोकसार/857-859 )।
- कल्की के समय चतु:संघ की स्थिति
तिलोयपण्णत्ति/4/1521, 1530 वीरांगजाभिधाणो तक्काले मुणिवरो भवे एक्को। सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी।1521। ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसंगपहुदीणं। जावज्जीवं छंडिय सण्णासं ते करंति य।1530।=उस समय वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त (अग्निल और पंगुश्री नाम श्रावक युगल (श्रावक-श्राविका) होते हैं।1521। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रह को जन्म पर्यन्त छोड़कर संन्यास (समाधिमरण) को ग्रहण करते हैं।1530। ( महापुराण/76/432-436 ) ( त्रिलोकसार/858-859 )।
- प्रत्येक कल्की के काल में एक अवधिज्ञानी मुनि
तिलोयपण्णत्ति/4/1517 कक्की पडि एक्केक्कं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि संघा य चादुवण्णा थोवा जायंति तक्काले।1517।=प्रत्येक कल्की के प्रति एक-एक दुष्षमाकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाता है।1517।’’