योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 81
From जैनकोष
पुद्गल स्वयं ही कर्मभावरूप परिणमते हैं -
कर्म-वेदयमानस्य भावा: सन्ति शुभा शुभा: ।
कर्मभावं प्रपद्यन्ते संसक्तास्तेषु पुद्गला: ।।८१।।
अन्वय :- कर्म-वेदयमानस्य (जीवस्य) शुभाशुभा: भावा: सन्ति; तेषु संसक्ता: पुद्गला: कर्मभावं प्रपद्यन्ते ।
सरलार्थ :- कर्म के फल को भोगनेवाले जीव के शुभ-अशुभरूप परिणाम होते हैं । उन भावों/परिणामों के होने पर उनसे संबंधित पुद्गल अर्थात् कार्माण वर्गणाएँ ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणमती हैं । भावार्थ - इस श्लोक में जीव के शुभाशुभ परिणाम एवं कार्माणवर्गणारूप पुद्गलों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताते हुए दोनों की स्वतंत्रता स्पष्ट करते हैं । इस श्लोकगत विषय पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६५ और उसकी टीका से स्पष्ट होता है । अत: उसे आगे अविकल रीति से दे रहे हैं - ``अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णण्णोगाहमवगाढा ।। गाथार्थ :- आत्मा (मोह-राग-द्वेषरूप) अपने भाव को करता है (तब) वहाँ रहनेवाले पुद्गल अपने भावों से जीव में (विशिष्ट प्रकार से) अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं । टीका :- अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्पत्ति किसप्रकार होती है, उसका यह कथन है । आत्मा वास्तव में संसार-अवस्था में पारिणामिक चैतन्यस्वभाव को छोड़े बिना ही अनादि बंधन द्वारा बद्ध होने से अनादि मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावों रूप से ही विवर्तन को प्राप्त होता है (-परिणमित होता है) । वह (संसारस्थ आत्मा) वास्तव में जहाँ और जब मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भाव को करता है, वहाँ और उस समय उसी भाव का निमित्त पाकर पुद्गल अपने भावों से ही जीव के प्रदेशों में (विशिष्टतापूर्वक) परस्पर-अवगाहरूप संश्लेष से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं ।