योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 140
From जैनकोष
मिथ्याचारित्र का स्वरूप -
रागतो द्वेषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् ।
आत्मा कुर्वन्नचारित्रं स्व-चारित्र-पराङ्गमुख: ।।१४०।।
अन्वय :- परद्रव्ये रागत: द्वेषत: शुभाशुभं भावं कुर्वन् स्व-चारित्र-पराङ्गमुख: आत्मा अचारित्रं ।
सरलार्थ :- परद्रव्य में रागरूप परिणाम के कारण अथवा द्वेषरूप परिणाम के कारण शुभ अथवा अशुभरूप भाव को करता हुआ आत्मा मिथ्याचारित्री होता है; क्योंकि वह उस समय अपने चारित्र से अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र से विमुख रहता है ।