अष्टापद
From जैनकोष
म. पु. २७/७० शरभः खं सभुत्पत्य पतन्नुत्तापितोऽवि सन्। नैव दुःखासिका वेद चरणैः पृष्ठवर्तिभिः ।।७०।।
= यह अष्टापद आकाशमें उछलकर यद्यपि पीठके बल गिरता है. तथापि पीठपर रहनेवाले सैरोंसे यह दुःखका अनुभव नहीं करता। भावार्थ - अष्टापद एक जंगली जानवर होता है। उसकी पीठपर चार पाँव होते हैं। जब कभी वह आकाशमें छलांग मारनेके पश्चात् पीठके बल गिरता है तो अपने पीठपर के पैरोंसे संभल कर खड़ा हो जाता है।