ग्रन्थ:दर्शनपाहुड़ गाथा 4
From जैनकोष
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा: जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधना विरहिता: भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥४॥
अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रों को अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसार में भटकते हैं - ऐसे ज्ञान से भी दर्शन को अधिक कहते हैं -
जो जानते हों शास्त्र सब पर भ्रष्ट हों सम्यक्त्व से ।
घूमें सदा संसार में आराधना से रहित वे ॥४॥
भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिए कुमरण से चतुर्गतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं-मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते ।