ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 98
From जैनकोष
मूलगुणं छित्तूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साह।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगो णियदं॥९८॥
मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति य: साधु:।
स: न लभते सिद्धिसुखं जिणलिङ्गविराधक: नियतं॥९८॥
आगे आशंका उत्पन्न होती है कि सम्ययत्व बिना बाह्यलिंग निष्फल कहा, जो बाह्यलिंग मूलगुण बिगा९डे उसके सम्ययत्व रहता या नहीं? इसका समाधान कहते हैं -
अर्थ - जो मुनि निर्ग्रन्थ होकर मूलगुण धारण करता है उनका छेदनकर, बिगा९डकर केवल बाह्य क्रिया कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्ष के सुख को प्राप्त नहीं कर सकता है, ययोंकि ऐसा मुनि निश्चय से जिनलिंग का विराधक है।
भावार्थ - जिन आज्ञा ऐसी है कि सम्ययत्वसहित मूलगुण धारण कर धन्य जो साधु क्रिया हैं, उनको करते हैं। मूलगुण अट्ठाईस कहे हैं - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, भूमिशयन, स्नान का त्याग, वस्त्र का त्याग, केशलोच, एक बार भोजन, ख९डा होकर भोजन, दंतधावन का त्याग - इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं, इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओं से मुक्ति नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि हमारे सम्ययत्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिग९डे तो बिग९डो, हम मोक्षमार्गी ही हैं तो ऐसी श्रद्धा से तो जिन आज्ञा भंग करने से सम्ययत्व का भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो और (तीव्र कषायवान हो जाय तो) कर्म के प्रबल उदय से चारित्र भ्रष्ट हो और यदि जिन आज्ञा के अनुसार श्रद्धान रहे तो सम्ययत्व रहता है, किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्ययत्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्ययत्व बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।
प्रश्न - मुनि के स्नान का त्याग कहा और हम ऐसे भी सुनते हैं कि यदि चांडाल आदि का स्पर्श हो जावे तो दंडस्नान करते हैं।
समाधान - जैसे गृहस्थ स्नान करता है वैसे स्नान करने का त्याग है, ययोंकि इसमें हिंसा की अधिकता है, मुनि के स्नान ऐसा है कि कमंडलु में प्रासुक जल रहता है उससे मंत्र प९ढकर मस्तक पर धारामात्र देते हैं और उस दिन उपवास करते हैं तो ऐसा स्नान तो नाममात्र स्नान है, यहाँ मंत्र और तपस्नान प्रधान है, जलस्नान प्रधान नहीं है, इसप्रकार जानना॥९८॥