वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 96
From जैनकोष
अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु ।
एक्कु जि जो इय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु ।।96।।
आत्मा सम्यक्त्व है । यह आत्मा ही दर्शन है, सम्यक्त्व है । अन्य शेष सब व्यवहार है । इस कारण हे योगी! एक ही तीन लोक का सारभूत आत्मतत्त्व ही ध्याया जाता है । निश्चय से अपना आत्मा ही सम्यक है । किस तरह से देखा गया यह आत्मा सम्यक्त्व है? वीतराग चिदानंद स्वभाव वाले परमात्मतत्त्व का सम्यक श्रद्धान् और सम्यग्ज्ञान और अभेद अनुभव यही हुआ रत्नत्रय । इसी को ही कहते हैं निर्विकल्प समाधि । इसी को कहते हैं त्रिगुप्ति की पूर्णता । इस परिणाम में परिणत स्व-आत्मा ही निश्चय से सम्यक्त्व है । और शेष सब व्यवहार हैं । इस कारण से यही एक आत्मा ध्याया जाना चाहिये ।
अब जैसे दाख, कपूर, शक्कर आदि बहुत द्रव्यों से तैयार किया गया शर्बत, पानक अभेद विवक्षा से तो वह एक पानक है । जैसे ठंडाई घोटकर पीते हो ना, तो उस ठंडाई में किसका आनंद आता है? क्यों राजा बाबू? बोले―बादाम का । अरे नहीं, उसमें किसी एक चीज का आनंद नहीं है । वे ऐसे मिल गये हैं कि किसी एक चीज का स्वाद नहीं मालूम होता । सबका मिश्रित स्वाद है । उसमें एक अवक्तव्य आनंद है । इसी प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान, और निश्चय सम्यक्चारित्र से परिणमता हुआ यह यद्यपि अनेक पर्यायों से दृढ़ होता है तो भी अभेदविवक्षा से तो वह एक ही आत्मा है । वहाँ अभेदरत्नत्रय शुद्ध आत्मा का अनुभव है । भेदविवक्षा से यह आत्मा अनेकरूप कहा जाता है, किंतु अभेदविवक्षा से तो यह एक ही आत्मा है ।
शास्त्रों में रत्नत्रय का लक्षण यह कहा गया है कि आत्मा का निश्चय करना सो तो है सम्यक्त्व और आत्मा का परिज्ञान करना सो है बोध और आत्मा में ही स्थित हो जाना सो है सम्यक्चारित्र । जब ऐसी परिणति आत्मा की हो जायेगी तब कर्म-बंध क्या हो सकता है? नहीं हो सकता । पूर्व अवस्थाओं में भी इस सम्यग्दृष्टि जीव के जितने अंश में सम्यक्त्व है, जिन भावों से सम्यग्दर्शन है, उन भावों से बंध नहीं हो सकता, किंतु जितना राग है उतना बंध है । जो सम्यग्ज्ञान की कणिका है उससे तो बंध नहीं होता किंतु जो राग है उससे बंध होता है । इसी प्रकार जो सम्यक्चारित्र का अंश है उससे भी बंध नहीं होता किंतु जो राग का अंश है उससे बंध होता है । हम-आप दोनों काम करते हैं । जान भी रहे हैं और राग भी कर रहे हैं । क्या आप एक ही काम कर रहे हैं?
अच्छा भैया ! जानो कुछ मत और खूब राग करो तो क्या कर सकते हो? जानते हुए में राग कर सकते हो और जिन पदार्थों को जानते नहीं हो, उनमें राग नहीं कर सकते । यह पत्थर की मूर्ति कुछ जानती नहीं है, इसलिये राग नहीं कर सकती है । जो जानता है वह राग भी करता है । पर जानने की कला से बँध होता है या राग की कला से बंध होता है? घर के लोगों को आप जान गए और बँध गए, तो ज्ञान की कला से बंधे या राग की कला से बंधे? ज्ञान की कला से तो आप सदा सही हैं और जितने अंश में राग है उस राग के कारण आप बँध गए हैं । जगत् के किन जीवों पर हम अपने सुख का विश्वास करें? कोई अपना नहीं है । सब अपनी-अपनी कषाय की पूर्ति में लगे रहते हैं । व्यवहार में असली परिवार तो आपका साधुसंत विरक्त ज्ञानी पुरुषों का संग है और जिनका संकट दूर हुआ, निकटकाल में ही जिनको मुक्ति प्राप्त होगी, ऐसे जीवों का संग ही वास्तविक परिवार है । घर में रहने वाले लोग ही सब कुछ हैं―ऐसा मोही जीव मानते हैं और साधुसंत ज्ञानी पुरुषों को लौकिक व्यवहार के नाते हाथ जोड़ लेना, विनय करना इतना ही कर्तव्य समझते हैं । और यह संसार का विनय आदिक प्रवर्तन भी अपनी पोजीशन रखने के लिये मानते हैं । जिनको मुक्तिमार्ग से प्रेम है उनका वात्सल्य [उनका प्रेम] साधुसंत महापुरुषों पर पहुंचता है, किंतु मोहियों का प्रेम मोही जीव पर जाता है । मान लिया कि यह मेरा है । वह उनसे ही मिला हुआ रहता है ।
अब इसके बाद उस निर्मल आत्मा का निरूपण करते हैं, जिस निर्मल आत्मा के ध्यान करने से अंतर्मुहूर्त में ही मोक्षपद प्राप्त हो जाता है । जैसे कभी स्वप्न में देखा होगा कि पास ही में तो इष्ट चीज रखी है, मानो एकदम उठा लेना चाहते हैं, पर एक इंच का ही कोई पर्दा या रुकावट ऐसी पड़ जाती है कि वह स्वप्न में हैरान हो जाता है कि लो, एक ही इंच की दूरी में तो चीज रखी है और मिलती नहीं है । कितना ही जोर भी लगा रहा है पर चीज नहीं पा सका । जरासा जोर और लग जाय तो चीज पा ले । इसी प्रकार अत्यंत निकट अपने आपमें ही बसा हुआ है वह परमात्मा, जिसके कारण हम धनी कहलाते हैं, जिससे सारे संकट दूर हो जाते हैं । ऐसा यह परमात्मा खुद में विराजमान है । देखने की कला हो तो देख लिया जाये । यह ज्ञानस्वरूप है । मात्र जानन के स्वरूप में ही यदि दृष्टि लगाओ तो वह आनंद मिलेगा जो सर्वत्र दुर्लभ है । उसी आत्मतत्त्व का वर्णन करते हैं जिसका ध्यान करने से अंतर्मुहूर्त में ही मोक्षपद प्राप्त हो जाता है । यदि बड़े विशेषरूप से एकांत मन से ध्यान किया जाये तो अवश्य शाश्वत आनंद प्राप्त होता है ।