वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 71
From जैनकोष
मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ता: ।
बल्भ्यंते न व्रतिना वद्वर्णा जंतवस्तत्र ।।71।।
महाविकृतिरूप मधु मद्य मांस मक्खन के भक्षण का निषेध―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि शहद, मदिरा, मक्खन और मांस―ये चार चीजें महाविकार को धारण किए हुए हैं । म्याद से बाहर का मक्खन हो तो उसमें बहुत से जीव उत्पन्न हो जाते हैं । जो लोग नेनू निकाल कर दो चार दिन रखे रहते हैं और कई दिन बाद में उससे घी बनाते हैं तो महाविकार है । दूसरी बात यह है कि मक्खन एक बुरा भाव उत्पन्न करता है जीव में इसलिये वह महाविकार है । तीन का तो वर्णन पहिले किया ही था―मद्य, मांस और मधु । उसमें एक मक्खन और कह कर बता रहे हैं कि यह महाविकार है, यह व्रती लोगों के खाने योग्य नहीं है क्योंकि इसमें उसकी जाति के जीव होते हैं । इस मक्खन के खाने से परिणाम विकाररूप हो जाता है और ऐसे मक्खन के भक्षण से कामादिक भाव उत्पन्न होते हैं इसलिये मक्खन का त्याग बताया गया है । मधु में मधु के ढंग के, मदिरा में मदिरा के ढंग के, मक्खन में मक्खन के ढंग के तथा मास में मांस के ढंग के जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव ऐसे सूक्ष्म होते हैं कि दिखने में नहीं आते । इस कारण इन चीजों का भक्षण करना उचित नहीं है, अचार, विष आदि भी इसी प्रकार के विकार वाली चीजें जानना चाहिये । इनको भी व्रतीजन नहीं खाते । इनसे आत्मा में खोटे भाव उत्पन्न होते हैं । इन तीन मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ-साथ यह भी बताया गया कि चमड़े में रखे हुए घी, तेल, जल आदिक भी न खायें । बहुत दिनों का रखा हुआ अचार न खाये, कभी-कभी तो नीबू के अचार में लट पड़ी हुई दिखाई देती है । तो उसमें सब जीवों का घात हो जाता है इस कारण इनका त्याग व्रती पुरुषों को करना ही चाहिये । इनके त्याग बिना अहिंसाधर्म में कोई कदम रख नहीं सकता । और अहिंसा ही जीवों को शरण है । इस लोक में कोई किसी का शरण नहीं है, अपने आपका अहिंसारूप परिणाम ही इस जीव का शरणभूत है ।