वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 35
From जैनकोष
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य ।
सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवल णाण ꠰꠰35।।
सिद्ध शुद्ध सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी आत्मा की केवलज्ञानरूपता―प्रभु ने बताया है कि यह आत्मा शुद्ध है, सहज शुद्ध है और जो कर्मक्षय से शुद्ध हुआ वह कर्मक्षय से शुद्ध हुआ । यह आत्मा शुद्ध है, जिनको कर्म का क्षय हुआ वे तो निर्विकार हुए और आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि दें तो अविकार है । अविकार और निर्विकार में अंतर क्या है कि निर्विकार में निर् शब्द लगा है जिसका अर्थ है निर्गत, जिसके विकार निकल गए उसे कहते हैं निर्विकार, यह एक पर्यायरूप संकेत है । और, अविकार मायने विकार है ही नहीं, यह स्वभाव का संकेत है, आत्मा का स्वरूप स्वयं अविकार है, स्वरूप स्वयं विकार नहीं उत्पन्न करता । ऐसे विकाररहित को कहते हैं शुद्ध, इस जीव का नाम आत्मा है । जो निरंतर जानता रहे सो आत्मा । “अततिसततं जानाति इति आत्मा ।” आत्मा शब्द अत् धातु से बना है और उसी से ही आदित्य बना । आदित्य कहते हैं सूर्य को । सूर्य निरंतर चलता रहता है और आत्मा निरंतर जानता रहता है, इसकी शक्ति सर्वज्ञरूप है, ज्ञान का काम है जानना । किसे जानना ? जो है उसे जानना । तो जो है उस सबको जानता है यह आत्मा और ऐसी शक्ति रखता है तो यह सर्वज्ञ है और सब लोक का देखनहार है । यहाँ केवलज्ञान और केवलदर्शन के संबंध में यह बात जानें कि प्रभु परमात्मा केवलज्ञान से समस्त लोकालोक को जानते हैं और दर्शन से क्या करते हैं ? अगर लोकालोक का दर्शन करें तो वह तो एक परभाव की ओर गया अथवा ज्ञान की तरह का ही काम हुआ सो केवलदर्शन में ध्वनित तो होता है, सबका दर्शन होता, पर असलियत यह है कि केवलज्ञान से जाने हुए आत्मा का दर्शन होना केवलज्ञान है । जैसे ऐना में पीछे का सारा चित्रण होता रहता है और ऐसे चित्रण वाले ऐने को किसी ने देखा तो उसने सब कुछ जाना । तो ऐसे ही सर्व को जानने वाले आत्मा को देखा तो उसने सबको देखा । तो ऐसा सर्वलोकदर्शी है, ऐसा जिनेंद्र भगवान ने बताया है और उसे केवलज्ञान समझें ।
आवश्यक कर्तव्य करते हुए तत्त्वज्ञान में बढ़ने-रमने का उपदेश―विज्ञान और आवश्यक कर्तव्य ये दो चलने हैं ꠰ जब इसकी प्रमाद दशा है तब आवश्यक कर्तव्य व प्रयोग करने होते हैं । अप्रमत्त दशा में कुछ भी किया या प्रयोग नहीं हैं, केवल तत्त्वज्ञान का परिणमन है और उससे पहले जहाँ तक प्रमाद बना हुआ है, छठे गुणस्थान तक प्रमाद रहता है, वहाँ तक समय-समय पर आवश्यक कर्तव्य करने होते हैं । नहीं तो तत्त्वज्ञान की बात फिर वहाँ नहीं हो पाती है । प्रमाद वहाँ बन जाता है । तो इसलिए मुनियों को 6 आवश्यक कर्तव्य कहा और श्रावकों को कहा तो उन कर्तव्यों में से गुजरते हुए शुद्ध अंतस्तत्त्व का कोई ध्यान करता हो तो वह सफल हो जायेगा । कोई चीज जब प्रयोग करनी होती है तो बाधायें मालूम होतीं । क्या-क्या काम हैं, उन सबको आचार्यसंतों ने पहले ही बता दिया है कि श्रावकजन 6 आवश्यक पालते हुए व्रत, तप, शील की प्रवृत्ति करते हुए अंतस्तत्त्व के ध्यान में बढ़ें और मुनि भी अपने योग्य व्रतों को पालते हुए अंतस्तत्त्व के ध्यान में लगें । सो अपने लिए तीन कर्तव्य हो जाते है―(1) प्रभुभक्ति (2) स्वाध्याय और (3) सत्संग । इन तीनों में यदि किसी भी बात में प्रमाद करते हों तो प्रमाद न करें । इन तीनों के प्रयोग में चलना चाहिए । तो उससे एक ऐसी प्रेरणा चलती रहेगी कि हम धर्म के कामों में सावधान बने रहेंगे ।