वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 57
From जैनकोष
णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहिय लिंगग्गहणेण किं सोक्ख ꠰꠰57꠰।
भावरहित के लिंगग्रहण की व्यर्थता―चारित्ररहित ज्ञान सुख करने वाला नहीं है या कहो कि उसको ज्ञान ही नहीं कहते ꠰ जिसको ज्ञान हो जाये कि यह आग है वह आग से नियम से हटेगा ही, आग को वह जेब में न रखेगा, मगर छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें आग का ज्ञान नहीं वे तो आग को अपने हाथ से पकड़ भी लेते हैं, तो ज्ञान का कार्य यह है कि जो छोड़ने योग्य चीज है उसे छोड़ दे और जो ग्रहण करने योग्य चीज है उसे ग्रहण कर ले और किसी समय सच्चा ज्ञान जगने पर भी पूरी तरह से न छोड़ सके तो छोड़ देते हुए की मुद्रा में रहता है । जैसे कोई पुरुष किसी से झगड़ रहा भ्रमवश तो वह हाथ से दृढ़ पकड़कर बात करता है और जब जाना कि वह मेरा कोरा भ्रम है, इसका कोई अपराध नहीं है तो वह उसके हाथ को ढीला कर देता है । भले ही थोड़ा छुवा हुआ है मगर ढील दिए हुए है, ऐसे ही जो ज्ञानी इन बाह्य पदार्थों का त्याग नहीं कर पाया अगर उसके चित्त में उनसे उदासी है, उनकी दृढ़ पकड़ नहीं है सो कुछ-कुछ त्याग जरूर है उसका भी, मगर कुछ भी त्याग न हो अहित का तो समझिये कि उसको ज्ञान ही नहीं जगा है । तो जो चारित्रहीन ज्ञान है वह लाभदायक नहीं है, इसी प्रकार जो सम्यक्त्वरहित तप है वह भी लाभदायक नहीं है । कोई-कोई लोग तो बड़े कठिन तप करते हैं, बहुत दिनों तक एक ही पैर से खड़े रहते, खड़े-खड़े ही किसी वृक्ष से टेक लेकर सो लेते, और-और भी कितने ही प्रकार के तप किये जाते, ठीक है कितने ही बड़े-बड़े तप कर लिए जायें, पर सम्यक्त्वहीन होने पर वे सब तप व्यर्थ हैं, कुतप हैं, उनसे मोक्ष नहीं पाया जा सकता । इसी प्रकार जितने भी हमारे व्यवहारधर्म के कर्तव्य हैं वे अगर भावरहित किये जा रहे हैं तो उनसे कोई लाभ नहीं है, तो ऐसे ही समझिये कि कोई मात्र निर्ग्रंथ दिगंबर का भेष धारण करले और भीतर न भाव है, न सम्यक्त्व है, न ज्ञान है तो उसका वह भेष भी कार्यकारी नहीं है । यहाँ मुनियों को उपदेश है, कुंदकुंदाचार्यदेव कह रहे हैं कि अपने आत्मस्वभाव की भावना बनायें तो यह मुनिपद सार्थक होगा और आत्मस्वभाव की भावना नहीं है, बाहर में ही लग रही है तो इस भेष से कोई लाभ होने का नहीं है ।