वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-36
From जैनकोष
आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ।। 9-36 ।।
धर्म्यध्यान के विवरण में प्रारंभिक परिचय―धर्म्यध्यान आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थान विचय के लिए होता है । ये चारों धर्मध्यान सम्यग्दृष्टि के होते हैं । इनका बीज सम्यग्ज्ञान है । अज्ञानीजनों के धर्मध्यान संभव नहीं है । यह धर्मध्यान मोह को नष्ट करने वाला है, इसका परिणाम सुख शांति है और धर्मध्यान के फल में जीवों का उत्पाद वैमानिक देवों में होता है । यहाँ विचय शब्द का अर्थ विचार करना, विवेक करना है । आज्ञा आदिक के विचार के लिए जो स्मृति समन्वाहार: है अर्थात चिंतन की धारा है वह धर्मध्यान है । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में पहले आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इन चार शब्दों का द्वंद्व समास है, फिर उनका विचय इस अर्थ में षष्ठी तत्पुरुष समास है और इस पद के अंत में चतुर्थी विभक्ति आयी है जिससे अर्थ बनता है कि आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान के विचार के लिये, विवेक के लिए जो स्मृति समन्वाहार: है वह धर्मध्यान कहलाता है । प्रकरण के सामर्थ्य से यहाँ स्मृति समन्वाहार: की अनुवृत्ति की जा रही है । ध्यान का मूल लक्षण कहा था कि एक पदार्थ की ओर मुख्यतया चिंतन की धारा चलना ध्यान है । सो यह ध्यान का लक्षण सभी ध्यानों में घटित हो रहा है । खोटे ध्यानों में खोटे चिंतन की धारा चलती है और प्रशस्त ध्यानों में अच्छे चिंतन की धारा चलती है ।
आज्ञाविचय धर्म्यध्यान का स्वरूप―अब धर्मध्यान के चार भेदों में से प्रथम आज्ञाविचय धर्मध्यान का लक्षण कहते हैं । आज्ञाविचय के दो प्रकार से अर्थ हैं, प्रथम प्रकार का अर्थ है कि भगवान की आज्ञा को ही प्रमाण मानकर चिंतन की धारा चलाना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । इसमें कारण यह है कि उपदेष्टा का तो अभाव है, स्वयं मंद बुद्धि है, पदार्थ की विवेचना सूक्ष्म है, हेतु दृष्टांत विशेष प्राप्त हो नहीं रहे तो सर्वज्ञ के द्वारा कहे गए आगम को ही प्रमाण माना जाता है । किस प्रकार कि यह तत्त्व यही है, इस ही प्रकार है, जिनेंद्रदेव अन्यथा नहीं कह सकते हैं, यों गहन पदार्थ तत्त्वों का श्रद्धान होने से अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है । दूसरा अर्थ है कि भगवान के कथित तत्त्वों का प्रचार प्रसार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । जिस भव्य जीव के सम्यग्ज्ञान होने से विशुद्ध परिणाम हो गये हैं, जिसने स्वसमय और परसमय के पदार्थों का निर्णय जान लिया है, जैन दर्शन व अन्य दर्शनों का जिनको अच्छा परिज्ञान है वे पुरुष सर्वज्ञ द्वारा कहे गए सूक्ष्म से सूक्ष्म अस्तिकाय आदिक पदार्थ तत्त्वों का अवधारण कर लेते हैं और अन्य जनों से प्रतिपादन करते हैं । यह तत्त्व ऐसा ही है और कथा मार्ग द्वारा, युक्तियों द्वारा अपने श्रुतज्ञान के बल से इस सिद्धांत के अनुकूल विवेचन करते हैं सो अन्य जनों को इस जैन शासन के ग्रहण के प्रति सहिष्णु बना देते हैं अर्थात अन्य जन भी मान जायें कि वास्तव में तत्त्व ऐसा ही है । इस प्रकार भगवान की आज्ञा का प्रकाश करना आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है ।
अपायविचय धर्म्यध्यान का स्वरूप―अपायविचय धर्मध्यान का लक्षण है कि खुद या परिजन सन्मार्ग से यदि विचलित हो रहे हों तो उसके संबंध में चिंतनधारा चलती कैसे, यह विचलितपना दूर हो, इस प्रकार के ध्यान को अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । मिथ्यादर्शन के कारण जिनकी ज्ञान सेना अंधकार से ढक गई है अर्थात अज्ञान समाया है उनकी प्रवृत्तियां अज्ञान से आच्छादित होने से संसार को ही बढ़ाती हैं । जैसे कोई बलवान भी पुरुष हो, जन्म से अंधा हो और उसे कोई मार्ग भी बताये, पर उस मार्ग पर न चलने के कारण ऊँचे-नीचे कंकरीले पथरीले जंगली मार्ग में वह अपने कदम बढ़ा लेता है और वह भटक जाता है और स्वयं भी अनेक प्रयत्न करता है फिर भी सन्मार्ग नहीं पा सकता । इसी प्रकार सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे गए मार्ग से, उनके आदेश से जो विमुख हैं उनको सही मार्ग का ज्ञान नहीं है सो वे सन्मार्ग से भटक ही रहे हैं, सो उनकी यह भटकन कैसे छूटे, इस प्रकार के चिंतन को अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । अथवा अपायविचय का दूसरा अर्थ है, जबकि इसका नाम उपायविचय किया जाये कि किस प्रकार रागद्वेषादिक विकारों का विनाश हो, यह ही संसार भ्रमण में कारण है । इस तरह मोक्षमार्ग में प्रगति के उपायों का विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है ।
विपाकविचय धर्म्यध्यान के प्रसंग में प्रथम व द्वितीय गुणस्थान वाले जीवों के कर्मविपाक का चिंतन―विपाकविचय धर्मध्यान । विपाक कहते हैं कर्म के फल का अनुभव करना सो कर्मफल के अनुभव के विवेक के विषय में स्मृति समन्वाहार होना, उपयोग लगना विपाकविचय धर्मध्यान है । ये ज्ञानावरणादिक कर्म इनका फल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से अनुभूत होता है । उन अनुभव के प्रति ध्यान देना कि कर्मफल कैसे-कैसे होता है? उनके उदय में क्या-क्या परिणाम होते है, सो वह विपाकविचय धर्मध्यान है । जैसे प्रत्येक गुणस्थानों में कर्मफल के उदय का विचार करना, मिथ्यात्व गुणस्थान में―(1) एकेंद्रिय जाति, (2) आताप, (3) सूक्ष्म (4) अपर्याप्तक और (5) साधारण इन 5 प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में ही है, आगे नहीं है । यद्यपि दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चतुरिंद्रिय और स्थावर इन प्रकृतियों का भी उदय मिथ्यात्व गुणस्थान में ही चलता है पर मिथ्यात्व गुणस्थान में अपर्याप्त दशा में इनका उदय संभव है जैसे कि कोई जीव पहले संज्ञी पंचेंद्रिय था और उसके दूसरे गुणस्थान में ही मरण होकर वह एकेंद्रिय आदिक में उत्पन्न हुआ तो वहां भी अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान संभव है । लेकिन पर्याप्त अवस्था में तो इन 10 प्रकृतियों का उदय मिथ्यात्व में ही है, आगे नहीं चलता । इससे यह जाहिर है कि इन जीवों में न सम्यग्दर्शन था, न हो सकता है । ये अवस्थायें बदलें और संज्ञी पंचेंद्रिय की अवस्था प्राप्त हो तो वहाँ सम्यक्त्व संभव है । दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का भी उदय है और पहले गुणस्थान में तो उदय था ही, पर इन चार कषायों का उदय तीसरे आदि गुणस्थान में नहीं होता । द्वितीय गुणस्थान बहुत थोड़े काल के लिये होता है । जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो गया । प्रथमोपशम सम्यक्त्व हो गया उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो छूट जाये और मिथ्यात्व गुणस्थान न आ पाये ऐसी जिस किसी जीव की स्थिति हो उसके दूसरा गुणस्थान होता है । सो दूसरे गुणस्थान का समय कम से कम एक समय है । अधिक से अधिक 6 आवली है, ऐसे दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय चल रहा है, इससे आगे इनका उदय नहीं है ।
अनुयोगों की पद्धति में कर्म विपाक का चिंतन―जीव किस परिस्थिति में किस गुणस्थान में किस प्रकार के कर्म विपाक से घिरा हुआ है, यह चिंतन विपाकविचय में चल रहा है । करणानुयोग प्रक्रिया से यह कर्मविपाक का चिंतन है । चरणानुयोग प्रक्रिया से कर्मविपाक का चिंतन संयम ग्रहण नहीं कर सकने और संयम संयमासंयम में दोष लगने के निहारने से चलता है । द्रव्यानुयोग की दृष्टि से कर्मविपाक चिंतन एक निमित्त नैमित्तिक भाव के दर्शन और आत्मा के विकार परिणमन को निहार कर चलता है । प्रथमानुयोग की दृष्टि से कैसे-कैसे महापुरुषों ने व अन्य अनेक जीवों ने कर्मविपाक पाया, यह चिंतनधारा चलती है । जब महापुरुषों के कथानक पढ़ते हैं तो न्यायनीति से रहने वाले महापुरुषों पर भी कब-कब, कैसे-कैसे उपसर्ग होते हैं और उन्हें किस प्रकार कष्ट में पड़ना पड़ता है, यह सब बात समझने को मिलती है और उस पर आश्चर्य होता है कि जो ऐसे न्यायमार्ग पर चल रहे हैं, जिनको उसी भव से मोक्ष भी जाना है उन पर कैसे ये आपत्तियाँ आ रही हैं । पर आश्चर्य यों नहीं कि किसी भी भव में करोड़ों अरबों भवों पहले के बाँधे हुये कर्म उदय में आ सकते हैं और उनके उदय काल में आपत्तियां आ जाया करती हैं । तो इन अनेक प्रकारों से कर्मफलों का विचार करना विपाक विचय धर्मध्यान है ।
तृतीय व चतुर्थ गुणस्थान में असाधारण कर्मविपाक का चिंतन―सम्यक मिथ्यात्व प्रकृति का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है । न पहले होता है न आगे बाद में होता है । सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में जीव का श्रद्धान कुछ अन्य जाति का हो जाता है कि जिसे न सम्यक्त्व कह सकते हैं और न मिथ्यात्व कह सकते हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ, नरकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियक शरीर अंगोपांग, चारों आनुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति इन 17 कर्म प्रकृतियों का उदय चतुर्थ गुणस्थान तक ही होता है । आगे नहीं । इस विवेचन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आगे उदय क्यों नहीं? आगे के गुणस्थान में कैसी स्थिति होती हे । जैसे अप्रत्याख्यानावरण का उदय चौथे गुणस्थान तक ही कहा है तो अप्रत्याख्यानावरण का अर्थ है कि जो श्रावक का व्रत न होने दे । 5वां गुणस्थान तो श्रावक का है । अगर अप्रत्याख्यानावरण का उदय आगे गुणस्थान में हो तो वहाँ वह गुणस्थान ही नहीं बन सकता । नरकायु, देवायु का उदय चौथे गुणस्थान तक है । इससे यह जाहिर है कि नारकी और देवों में ऐसी योग्यता नहीं है कि ये श्रावक का व्रत भी ग्रहण कर सकें । और चूंकि वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग नरकगति और देवगति में ही मिलते हैं । इनका उदय चूँकि इन दो गतियों में ही है और उन्हें चार गुणस्थान से आगे होता नहीं तो आगे के गुणस्थानों में इनका उदय नहीं है ।
चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर आनुपूर्वी दुर्भग अनादेय अयश: कीर्ति का विपाक न होने के तथ्य―चारों आनुपूर्वी का उदय आगे नही है । इससे यह जाहिर होता कि चौथे गुणस्थान के बाद ऊपर के किसी गुणस्थान में साक्षात मरण नहीं हुआ करता अर्थात मरण पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में हो होता है । यद्यपि 5वें आदि गुणस्थानों में 11वें गुणस्थान पर्यंत मरण बताया गया है, पर उसका अर्थ यह है कि इन गुणस्थानों में रहने वाला भव्य पुरुष मरण करता है तो मरण के प्रथम समय में ही चतुर्थ गुणस्थान हो जाता है । वहाँ तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं कहा । तो वहाँ यह अर्थ है कि तीसरा गुणस्थान जब तक है तब तक तो मरण है ही नहीं, पर मरण काल में तीसरा गुणस्थान बदलकर पहले चौया होगा । पर वहाँ भी कुछ समय और ठहरकर मरण होगा । बदलते ही प्रथम समय में मरण नहीं होता, इस कारण दृढ़ता के साथ मरण का निषेध दूसरे गुणस्थान में किया गया है । दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति इनका भी उदय ऊपर के गुणस्थानों में नहीं है । इस प्रकार यह जाहिर हुआ कि व्रती पुरुष सबके प्रिय होते हैं और उनका अपयश नहीं फैलता । हाँ अज्ञानी जीव तो तीर्थंकरों का भी अपयश करते हैं, पर ज्ञानी पुरुषों में इनका अपयश नहीं हुआ करता ।
पंचम गुण स्थान तक ही उदित होने वाले कर्म विपाक का निर्देशन―विपाक विचय नाम के धर्मध्यान में यह निरखा जा रहा है कि किस गुणस्थान में किस ढंग का कर्मोदय होता है । यद्यपि उदय अनेक प्रकृतियों का है फिर भी जिन स्थानों तक जो कर्म प्रकृति उदित होती है उस ढंग से वर्णन चल रहा है । देशविरत गुणस्थान तक प्रत्याख्यान क्रोध मान, माया, लोभ, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, ऊद्योत, नीचगोत्र, इन 8 कर्म प्रकृतियों का विपाक होता है । इससे ऊपर के गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का फल नहीं है । इस कथन से यह प्रकट हुआ है कि तिर्यंच में 5 ही गुणस्थान हैं, इससे ऊपर के गुणस्थानों में न तिर्यंचायु का फल है, न तिर्यंचगति का फल है और तिर्यंच में ही उद्योत का फल संभव है सो वह भी आगे नहीं होता । नीच गोत्र भी 5वें गुणस्थान से ऊपर नहीं होता । तिर्यंचों में सबके नीच गोत्र पाया जाता है । मनुष्य में किसी के नीच गोत्र है किसी के उच्च गोत्र है । जिन मनुष्यों के नीच गोत्र का उदय है वे छठे गुणस्थान में नहीं पहुँच सकते । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ भी 5वें गुणस्थान तक ही उदित है, क्योंकि इस कषाय का फल है संयम न होने देना । छठे गुणस्थान में संयम है । सकल चारित्र है । इस प्रकार इन प्रकृतियों का उदय पंचम गुणस्थान तक ही है, इससे ऊपर नहीं ।
छठे व 7वें गुणस्थान तक ही उदित होने वाले कर्म विपाक का निर्देशन―छठे गुणस्थान में जिनके आहारक शरीर की रचना नहीं है उनके निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन 3 कर्म प्रकृतियों का फलानुभव है । जिन जीवों के आहारक शरीर की रचना चल रही है उनके नींद आदिक संभव नहीं है । उस समय इनके फलानुभव नहीं होता, उनके आहारक शरीर और अंगोपांग नामकर्म का उदय है । इन दो प्रकृतियों का उदय केवल छठे गुणस्थान में ही है । न ऊपर है न नीचे । वेदक सम्यक्त्व प्रकृति का उदय अर्थात दर्शन मोहनीय के भेदों में जो सम्यक्त्व प्रकृति है उसका उदय चौथे गुणस्थान से लेकर 7वें गुणस्थान तक ही है । चौथे गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व प्रकृति का उदय नहीं है, क्योंकि सम्यक प्रकृति का उदय सम्यग्दृष्टि के ही होता । जिनके क्षायोपशमिक सम्यक है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अर्थात सम्यक्त्व प्रकृति का उदय जिनके है वे श्रेणी में नहीं चढ़ सकते इस कारण इस प्रकृति का उदय 7वें गुणस्थान तक ही होता है । अर्द्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन, असंप्रातासुपाटिका संहनन याने अंतिम 3 प्रकृतियों का उदय 7वें गुणस्थान तक ही है, ऊपर नहीं है । इससे यह सिद्ध होता कि हीन संहनन वाले मुनि श्रेणी में नहीं चढ़ सकते ।
अष्टम, नवम, दशम, एकादशतम गुणस्थान तक उदित कर्मविपाक का निर्देशन―हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन 6 कर्मप्रकृतियों का फलानुभव 8वें गुणस्थान के अंतिम समय तक हैं, इससे ऊपर नहीं । 3 वेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया इनका उदय 9वें गुणस्थान तक ही है, ऊपर नहीं है । इन 3 वेदों का और संज्वलन की 3 कषायों का जो उदय विच्छेद है सो वह एक साथ नहीं है किंतु अनिवृत्तिकरण के 7 भागों में प्रत्येक एक-एक भाग में है याने क्रम से है । जैसे पहले नपुंसक वेद का उदय विच्छेद, फिर स्त्री वेद का, फिर पुरुष वेद का एक मुनि के एक ही वेद का उदय होता, यह कथन सामान्यालाप से है । वेदों के उदय विच्छेद में थोड़ा बदला हुआ क्रम भी हो सकता । कोई स्त्री वेद के उदय में श्रेणी माड़ रहा है तो उसके नपुंसक वेद आदिक वेद पहले नष्ट हो जायेंगे, फिर कोई नपुंसक वेद के उदय में श्रेणी माड़ रहा है तो उसके स्त्रीवेद पहले नष्ट हो जाता है । वेद नष्ट होने के बाद संज्वलन क्रोध, फिर संज्वलनमान, फिर संज्वलन माया का उदय खतम होता है । संज्वलन लोभ का फल 10वें गुणस्थान के अंतिम समय तक है उसके ऊपर नहीं है । वज्रनाराच और नाराच संहनन का उदय 11वें गुणस्थान तक है, ऊपर नहीं है । इससे यह बात विदित हुई कि पूर्व के जो तीन संहनन हैं उनमें श्रेणी तो चढ़ी गई, पर जिनके दूसरा और तीसरा संहनन है उनके क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ी सकती । क्षपक श्रेणी वज्रवृषभनाराच संहनन वाले के ही चढ़ी जा सकती है क्योंकि उसे ही मुक्त होना है ।
बारहवें तेरहवें व चौदहवें गुणस्थान तक उदित होने वाले कर्म विपाक का निर्देशन―निद्रा और प्रचला का उदय 12वें गुणस्थान के उपांत्य समय तक है, इससे ऊपर नहीं, और 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय इनका उदय 12वें गुणस्थान के अंत समय, तक है, इससे ऊपर नहीं, क्योंकि 13वें गुणस्थान में यह केवली भगवान बनेगा, तो वहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय ये भी न रहने चाहिएँ । मोहनीय तो 10वें गुणस्थान तक खतम हो जाता है, पर शेष घातिया कर्म भी तो न रहने चाहिये, सो ये 12वें गुणस्थान में खतम हो जाते हैं । अब 13वें गुणस्थान में इनके अंत समय तक जिन-जिन प्रकृतियों का उदय चलता है वे प्रकृतियाँ ये हैं कोई भी एक वेदनीय औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्माणशरीर, छहों संस्थान और औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण नामकर्म । इन 30 प्रकृतियों का उदय सयोग केवली के अंतिम समय तक, इससे आगे नहीं है । इसके उदय विच्छेद से यह विदित हो रहा है कि भले ही 14वें गुणस्थान में शरीर है, पर वह शरीर क्या शरीर है, शरीर प्रकृति का वहाँ उदय ही नहीं है । अब वह सिद्ध होने वाले हैं इस कारण शरीर में जो शरीर की शरीरता रूपी जान है वह सब यहीं से समाप्त हुई है, क्योंकि अब थोड़ी ही देर में शरीररहित होना है इस जीव को । 14वें गुणस्थान के अंतिम समय में इन प्रकृतियों का उदय है, ऊपर नहीं है । वे ये हैं―कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, त्रस, वादर, पर्याप्तक, सुभग, आदेय, यश कीर्ति उच्चगोत्र इन 11 प्रकृतियों का उदय 14वें गुणस्थान के अंत समय तक, क्योंकि तभी तक मनुष्यायु है । उस मनुष्यायु के उदय से निकट संबंध जिनका है उनका भी उदय यहाँ तक है । तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का उदय सयोग केवली और अयोग केवली नाम के दो गुणस्थानों में है । इससे ऊपर नहीं है और न नीचे है । इस प्रकार कर्मविपाक का चिंतवन करना, एकाग्र ध्यान करना सो विपाक विचय नाम का धर्मध्यान है ।
उदीरित कर्मविपाक का निर्देशन―फल का अनुभवन प्रकृतियों के उदय काल में होता है और उदीरणा के काल में भी होता है । उदीरणा नाम है उस फलानुभव का जो समय से पहले होने लगता है । जैसे आम के पेड़ में आम के फल लगे हैं वे फल डाल पर ही पककर केवल आयु क्षय की प्रेरणा से वे नीचे गिरे तो उसे कहते हैं उदय काल, अपने उदय पर वे फल झड़े और उन पर कोई डंडा मारे या पत्थर मारे या हाथ से ही तोड़कर नीचे गिरा ले और फिर उन्हें पाल में रखकर पका ले तो पक तो जायेंगे पर यह कहलायेगा समय से पहले पकना, ऐसे ही जिन प्रकृतियों की जितनी स्थिति है इससे पहले की प्रकृति का फल मिलने लगे तो वह उदीरणा है, सो यह उदीरणा करीब-करीब उदय की तरह है अर्थात जिस गुणस्थान में जिस कर्म प्रकृति का उदय है वैसी उदीरणा भी संभव है, पर कुछ विशेषताएं हैं, वे बहुत थोड़ी हैं, जैसे―मिथ्यादर्शन की उदीरणा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होती है, जैसा कि उदय होता है, पर यह उदीरणा उपशम सम्यक्त्व के सम्मुख हुए भव्य आत्मा के अंतिम आवली छोड़कर इससे निकट पहले होती है । ऐसे ही कुछ अन्य प्रकृतियों में भी विशेषता है, किंतु यह अंतर बहुत कम प्रकृतियों में पाया जाता है । तो इस प्रकार उदीरणा विषयक चिंतन भी विपाक विचय धर्मध्यान है ।
संस्थानविचय नामक धर्म्यध्यान―अब संस्थानविचय धर्मध्यान का स्वरूप कहते हैं । संस्थान नाम है ढाँचे का । लोक का संस्थान पहले बताया गया था । 343 घनराजू प्रमाण है और पैर फैले हुये कमर पर हाथ रखे हुये मनुष्य के आकार की तरह है । जैसे 7 मनुष्य बराबर कद के इस तरह एक के पीछे एक खड़े हों पैर फैलाकर, कमर पर हाथ रखकर तो लोक की रचना का उत्तर बन जाता है । सामने वो नीचे 7 राजू है, कमर पर एक राजू है । ऊपर चलकर हाथ की हथेलियों तक वह लोक 5 राजू है और सबसे ऊपर एक राजू है मगर पीछे की ओर सर्वत्र 7-7 राजू है । इतने बड़े लोक में ठीक बीचोबीच जैसा कि चौथा आदमी उस तरह का ठीक बीचोबीच एक राजू प्रमाण चौकोर, चारों ओर से एक त्रस नाली है, त्रस जीव वहाँ ही रहते हैं बाहर नहीं । भले ही मरण समुद्धात की स्थिति में उसके प्रदेश दूर चले जायें और त्रस नामकर्म का उदय है इसलिए कुछ छू गए, पर साधारणतया तो सभी त्रस-त्रस नाली में ही रहते हैं । ऐसा उस लोक के आकार का और उसके अवयवभूत द्वीप सागर आदिक का विस्तार आदिक ध्यान में रखना । उनके स्वभाव को जानना उसका ही स्मृति समन्वाहार: होना संस्थानविचय धर्मध्यान है ।
धर्म्यध्यान के स्वामी―चारों ही धर्मध्यान उत्तम क्षमा आदिक 10 धर्मों से ओतप्रोत होने के कारण धर्मध्यान कहलाते हैं अर्थात धर्म के विषय में होने वाला ध्यान । इस धर्मध्यान में भी चिंतन चल रहा है और बाहर अनुप्रेक्षाओं में भी चिंतन चलता है । सो 12 अनुप्रेक्षाओं में जो बराबर चिंतनधारा रहती है तो वह ज्ञानरूप है, पर जब उनमें एकाग्रचिंतानिरोध होकर वह चिंतनधारा किसी एक विषय में केंद्रित हो जाती है तब वह ध्यान कहलाता है । यह धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से लेकर 7वें गुणस्थान तक कहा गया है, क्योंकि धर्मध्यान सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है । और सम्यग्दर्शन अविरत सम्यग्दृष्टि को है सो चौथे, 5वे, छठे और 7वें इन चार गुणस्थानों में धर्मध्यान होता है । 7वें से ऊपर धर्मध्यान नहीं है, किंतु 8वें से लेकर 12वें गुणस्थान तक शुक्लध्यान चलता है । श्रेणियों में शुक्लध्यान ही हुआ करता है, धर्मध्यान नहीं । अब यहाँ धर्मध्यान के स्वामी तो बता दिए गए, पर शुक्लध्यान के कौन स्वामी हैं, यह अगले दो सूत्रों में कहेंगे जिनमें पहला सूत्र यह है ।