वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 45
From जैनकोष
तणुकुट्ठी कुलभंगं कुणइ जहा मिच्छमप्पणो वि तहा।
दाणाइ सुगुणभंगं गइभंगं मिच्छत्तमेव हो कट्ठं।।45।।
मिथ्यात्व द्वारा आपत्ति का दिग्दर्शन―जिस प्रकार शरीर का कोढ़ी पुरुष अपने वंश को भंग कर देता है याने रक्त संबंध के कारण वह अपने कुल का भंग कर देता, विरूप बना देता इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव याने अंधविश्वासी अपने आत्मा के कुल को भंग कर देता है। अर्थात् सदा के लिए उस आत्मतत्त्व से दूर हो गया और इतना ही नहीं, वह अज्ञानी पुरुष दान आदिक सद̖गुणों का भी विनाश कर देता है और सद्गति का भी विनाश कर देता है। इसमें मिथ्यात्व की विडंबनायें बताया है। जो धर्म के कार्यों में भी लग रहे हैं, जिसे व्यवहार में लोक में धर्म मानते हैं, बड़ी-बड़ी सेवायें करना, धार्मिक संस्थाओं के प्रबंध की सेवायें करना, पूजा पाठ विधान आदिक के कार्य करना आदि, मगर मिथ्यादृष्टि अज्ञानी अपने कुल को नहीं बढ़ा सकता। आत्मा का कुल है चैतन्यस्वरूप, उसकी प्रगति नहीं रक सकता। इस मनुष्य जीवन में जो पुरुष विभूति को ही महत्त्व देता है और अपने आत्मा के स्वरूप का महत्त्व दृष्टि में नहीं हैं, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की तुलना में वैभव जिसे कुछ नहीं नजर आता वह तो है ज्ञानी और जिसको वैभव की तृष्णा है, जिसके आगे सम्यक्त्व ज्ञान का धर्मपालन ये गौण हो गए हैं, जो केवल परिजनों की ही सेवा करने में अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं और जिनके मिथ्याभाव है वे पुरुष अपने ही कुल को भंग कर रहे हैं याने अपने चैतन्यस्वरूप की प्रगति नहीं कर पाते, विकास नहीं कर पाते। तो अज्ञानीजन अंधविश्वासी लोग यों समझिये कि जैसे कोढ़ का रोगी पुरुष वह खुद तो विडंबना में पड़ा है, और उससे कुलसंतति भी नहीं चलती, कुल का भंग हो जाता है, विरूप हो जाता है, ऐसे ही अंधविश्वासी मिथ्यादृष्टि, वैभव ही जिसकी दृष्टि में सर्व कुछ है वह पुरुष अपने आप के कुल का घात करता है याने चैतन्य स्वरूप ही घात कर रहा है। दुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग करने का संदेश―यह मानव जीवन बड़ा दुर्लभ भव है। यहाँ आकर तो आत्मविकास, आत्मदृष्टि, आत्मप्रगति करना चाहिये था मगर यह घमंड और तृष्णा के वश होकर अपने आपका अहित कर रहा है सो मनुष्यजन्म पाना न पाना बेकार रहा, क्योंकि जो कुछ कर रहा है यह मनुष्य ये काम तो पशु-पक्षी बनकर भी किये जा सकते थे। आहार करना, भय करना, मैथुन करना और परिग्रह जोड़ना ये चार संज्ञायें तो पशु पक्षियों में भी है। और इन्हीं चारों संज्ञाओं का आदर किया इस मनुष्य ने तो उसका मनुष्य होना, न होना या पशु बनना यह सब एक ही समान बात है। अपनी इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि दरिद्रता आये तो आये, यह जीवन का गुजारा तो हर प्रकार से किया जा सकता, मगर आत्मा का गुजारा तो आत्मा के ही ढंग से किया जा सकता। आत्मा को जानें, आत्मा का महत्त्व समझें और आत्मा में ही लीन होने की उमंग बनावें, पर अज्ञानी जीव आत्मा को समझते ही नहीं, उनके लिए तो अपना परिवार ही सब कुछ है। परिवार के लिए ही उनका तन हाजिर है। कितना ही श्रम करना पड़े, सब श्रम उसको मंजूर है। मगर परोपकार के लिए यह अपने शरीर से कुछ भी श्रम नहीं करना चाहता। मन में निरंतर परिवार का ही चिंतन किए रहता है। ये मेरे हैं, बड़े अच्छे हैं, यही मेरे सब कुछ हैं। ऐसे मन से भी कुटुंब का ही चिंतन करेगा, कुटुंब का ही गुण गायेगा, जैसे मेरी पत्नी बहुत धर्मात्मा है, खूब मंदिर में रहती है....., उसके परिचय में ही अपना सब कुछ माने, और तन, मन, धन, वचन सब कुछ उन परिजनों के लिए ही है, और किसी भी बात के लिए उसके चित्त में यह नहीं समाता के जैसे और जीव हैं वैसे ही ये जीव हैं। कुछ दूसरों के उपकार के लिए भी खर्च करे, यह बात उनके चित्त में नहीं आती। तो तन, मन, धन, वचन सब कुछ मिथ्यादृष्टि अपने कुटुंब के लिए अर्पित करता है और जो अनेक मायाचारों से धनोपार्जन किया उसका पाप, उसका कष्ट तो खुद ही भोगेगा। उसे कोई दूसरा नहीं भोग सकता। तो जो अज्ञानी जीव है, जिसको परतत्त्व ही प्यारा है वह पुरुष न स्वयं धर्म कर सकता है और न वह व्यवहार धर्म का प्रवाह बना सकता है।