वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य णाणसुद्धी य ।
शीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणां ।।20।।
(33) आत्मा का शील सहजचैतन्यस्वभाव―हम आप सब कोई पदार्थ हैं यह तो निश्चित है जिसमें मैं हूँ मैं हूँ का भीतर में संकल्प होता है वह चीज तो अवश्य है कोई । अब वह वस्तु क्या है ? तो ज्ञानमय पदार्थ याने ज्ञानस्वरूप है वह वस्तु । जो मैं हूँ सो ज्ञानस्वरूप हूँ । अब इसका शील क्या है? स्वभाव क्या है? तो इसका शील कहो, स्वभाव कहो वह है ज्ञान । ज्ञान ही स्वभाव है । तो जिन्होंने अपने इस ज्ञानस्वभाव को पहिचाना वे संसार के दु:खों से पार हो गए और जिन्होंने अपने आत्मा के ज्ञानस्वभाव को नहीं जाना वे संसार में दु:खी है । संसार में रहने से लाभ क्या है? सो बताओ । जन्मे, बच्चे हुए, जवान हुए, बूढ़े हुए, कुछ लोगों का संपर्क हुआ, मर गए, फिर दूसरे जन्म में गए । यही-यही करता रहता है यह जीव, इस जीव को लाभ क्या है संसार में रहने का । आज मनुष्य हैं तो कुछ अच्छा लग रहा है, शांति है, सुख है, जायदाद है, खाने पीने के साधन हैं, पर ये सदा रहेंगे, ऐसा तो नहीं है । मरकर मानो पशु बन गए, कीड़ा-मकौड़ा हो गए, तो उन जैसी जिंदगी बितानी पड़ती । तो पूरा निर्णय होना चाहिए कि मैं आत्मा हूँ ज्ञानस्वरूप हूँ इसका तो ज्ञानमय रहने में ही कल्याण है अन्य भाव बनाने में कल्याण नहीं । रागद्वेष के भाव बनने से किसी परपदार्थ में लगाव होने से इस जीव को जन्म मरण करना पड़ता है ।
(34) धन इज्जत परिजन आदि में सार का अभाव―प्रथम तो यहीं अनुभव हो जाता है कि किसी में मोह करने से इस जीव को कितनी अशांति मिलती है ? लोग तो यह चाहते हैं कि मेरे को धन मिले, मेरे को इज्जत मिले, मेरे को संतान मिले, पर धन पाकर संतुष्ट और शांत तो नहीं रहता कोई । जो जितना धनी है उसकी दृष्टि में उतना आराम उतनी चीज, वैभव होने से उसकी सम्हाल में, उसके सोचने में उसको रात-दिन चिंतित रहना पड़ता है । इज्जत मिले, प्रथम तो इज्जत कोई चीज नहीं, लोगों को जिससे कुछ फायदा होता हो, तो अपने फायदे के लिए उसके गुण गाते हैं । इज्जत नाम की कोई वस्तु नहीं, तो भी मान लो इज्जत है तो जितनी जिसको अधिक इज्जत मिली वह उतना ही परेशान रहता है । एक तो इज्जत को बनाये रहने के लिए परेशान, फिर कोई बाधा आ जाये उस इज्जत में तो उस समय परेशान । जैसे मानो कोई राष्ट्र का प्रधान था और फिर हार गया, इज्जत गई तो उसको कितना कष्ट होता है । तो यह सारा संसार मायाजाल है । इसमें जिसने चित्त लगाया वह दु:खी ही रहेगा, शांति पा नहीं सकता । यह भगवान का कहा हुआ वचन है ।जो परपदार्थ में लगाव लगायेगा वह कभी शांत नहीं रह सकता । परिजन की बात देखो, कुटुंब बढ़ गया, लड़के हुए, पोते हुए बच्चे बहुत हुए अब वे लड़ते हैं, झगड़ते हैं तो उनको समझाने बुझाने में, उनकी व्यवस्था करने में बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है और कोई समझता है नहीं अपने समझाने से । जिसमें जो कषाय बसी है वह अपने कषाय के अनुसार कार्य करता है । तो किस बात में सार है यहाँ सो बताओ । कहीं सार नहीं ।
(35) आत्मा के सार शरण तत्त्व की आत्मा में ही उपलब्धि―सार कहाँ मिलेगा ? अपना सार अपने आत्मा में मिलेगा । क्या सार? आत्मा का जो सहज सत्य स्वरूप है, बस उस रूप अपना चित्त बना लें, उस रूप अपने को मान लें । मैं सबसे निराला ज्ञानमय पदार्थ हूँ । एक अपने ज्ञानस्वरूप को सम्हाल लें तब तो शांति का रास्ता मिलेगा, पर बाहरी पदार्थों में लगाव और सम्हाल बनाने से शांति कभी नहीं मिल सकती । जो आत्मा का स्वरूप है उसका नाम शील है । जैसे कहते ना शीलव्रत, तो वास्तविक शीलव्रत क्या है कि आत्मा का जो ज्ञानस्वरूप है वही मैं हूँ ऐसा जानकर सर्व पदार्थों के ज्ञाता दृष्टा रहो । किसी पदार्थ में इष्ट अनिष्ट बुद्धि मत लाओ, यह है शील का पालन । फिर जो व्यवहार में कहते हैं कि शील का पालन याने परपुरुष, परस्त्री में से प्रीति न करना । तो शील नाम उसका इसलिए धरा कि अगर ब्रह्मचर्य से नहीं रहते तो चित्त एकदम बेठिकाने हो जायेगा । वह कुछ नहीं कर सकता । तो परमार्थ से शील तो ज्ञातादृष्टा स्वरूप आत्मा को ज्ञानस्वरूप समझकर, बस ज्ञानमात्र जाननहार रहे, किसी को न अपना समझे, न पक्ष में आकर पर समझे, केवल ज्ञानमात्र, जो यह ज्ञानस्वभाव है सो ही शील है ।
(36) शील की निर्मलतश्चरणरूपता व दर्शनरूपता―शील है सो ही निर्मल तप है । अपने आत्मा के स्वभाव की ओर रमण और उसी में ही खुश रहना, बाहरी पदार्थों में लगाव न रखना यह ऊँचा तप है । शरीर से कोई बड़ा तप भी कर ले तो भी वह जीव शांत नहीं रह सकता और अपने स्वभाव में रमने का संतोष पा ले तो वह शांत हो जायेगा, पर ये बाहरी तप क्यों बताये गए? इनका संस्कार बुरा है तो उन संस्कारों को धक्का देने के लिए ये बाहरी तप करने पड़ते हैं । करना तो असली है अपने आत्मा का स्वरूप जानकर स्वरूप में रमना, तो यही शील है और जो इस शील का पालन करता है वही निर्मल तपस्वी है । जो शील है सो ही सम्यग्दर्शन की शुद्धि है दर्शनविशुद्धि । क्या देखना? बाहर में कौनसी चीज देखने के लायक है उसका नाम तो बताओ । आप कहेंगे कि हमारे पास इतने सुंदर बच्चे हैं, स्त्री है, ये सब देखने के लायक हैं । अरे ये तो सब हाड़-मास के पिंड हैं । एक पर्याय मिली है, जन्म मरण करने वाले हैं, दु:खी हैं, मगर इस शरीर की भीतर की चीज को सोचें तो घृणा आने लगेगी । हड्डी, खून, मांस, मज्जा आदि का यह पिंड है । यह देखने लायक वस्तु नहीं है, तो फिर क्या है देखने लायक वस्तु? धन वैभव या बड़ी-बड़ी कोठियाँ? इनसे इस जीव का क्या मतलब रहा? कुछ दिन यहाँ हैं, मरकर जायेंगे, न जाने किस गति में जन्म लेंगे, क्या स्थिति पायेंगे, यह भी सारभूत नहीं है । तो क्या है चीज जो देखने लायक हो? सुनो, आत्मा का जो शीलस्वभाव है यह है देखने के लायक । वहाँ ज्ञान जावे, उसे दृष्टि में लिया जावे तो उससे अपना कल्याण है, बाहर में कुछ भी चीज देखने लायक नहीं है ।
(37) आत्मा के शील की शुद्ध ज्ञानरूपता―अच्छा बाहर में जानने लायक क्या है सो बताओ ? हम किस-किसको जानें, किस-किसका ख्याल करें कि हमको शांति मिल जाये? खूब सोच लो । किस-किसको ख्याल में रखें कि हमारा कल्याण हो जाये, उसका नाम तो बताओ । संसार में कोई भी वस्तु नहीं है ऐसी कि जिसका ख्याल रखने से आत्मा का उद्धार होगा । कोई कहे कि धन-वैभव है उसका ख्याल करो, तो यह सब कोरा ख्याल ही ख्याल है, कल्पना है, भ्रम है, कोई भी वस्तु बाहर में ऐसी नहीं जो कि ख्याल करने लायक हो, ज्ञान करने लायक हो? किसको जानें? एक तो सर्व पदार्थ विनाशीक हैं, मेरे साथ सदा रहने वाले नहीं हैं, फिर उनका ख्याल करने से, ज्ञान करने से क्या लोभ मिलेगा? । फिर दूसरे वे पदार्थ भिन्न हैं, मेरे अधिकार की कोई चीज नहीं हैं, फिर उनका ख्याल करने से क्या फायदा मिलेगा? तो बाहर में कोई पदार्थ ऐसा नहीं है कि जो ज्ञान करने लायक हो, ख्याल करने लायक हो जिससे ज्ञान की शुद्धता बने । अपने आप ज्ञान हो वह बात दूसरी है, मगर लगकर परिश्रम करके पदार्थ को जाने तो ऐसा बाहर में कुछ नहीं है कि जो जानने योग्य हो । जिसके जानने में सिद्धि बने । तो फिर क्या है ज्ञान के लायक जिसके जानने से ज्ञान की सिद्धि बनेगी? वह है आत्मा का शील । आत्मा का स्वभाव ज्ञातादृष्टा मात्र । उसको निरखें तो संसार के संकट मिट जायेंगे । मुक्ति प्राप्त होगी, उस तत्त्व को देखो । तो शील ही ज्ञान की शुद्धि है ।
(38) आत्मा के शील की अविकाररूपता―शील ही विषयों का शत्रु है । शील मायने स्वभाव मेरा स्वभाव विषयकषाय करने का नहीं है, क्योंकि एक वैज्ञानिक बात है कि जो वस्तु पहले न हो और बाद में आये और फिर न रहे, तो बह वस्तु औपाधिक कहलाती है, नैमित्तिक कहलाती है । स्वभाव से होना नहीं कहलाता । जो बात स्वभाव से हुई हो उसे कोई मेटने वाला नही है । तो अब सोचिये कि जो पंचेंद्रिय के विषय करने के भाव बने ये स्वभाव से बने क्या? अभी हुए क्या? थोड़ी देर में मिट जायेंगे । कोई कषाय जगी, क्रोध, मान, माया, लोभ तो यह कषाय क्या स्वभाव से हुई? स्वभाव से नहीं हुई । हुई और मिट जायेगी । तो जो मिट जाये, जो औपाधिक हो, विकार हो वह स्वभाव से नहीं होता इसलिए स्वभाव तो अविकार है, स्वभाव तो विकार का दुश्मन है, स्वभाव में विकार होता ही नहीं, ऐसा है यह शील ।
(39) आत्मशील की मोक्षसोपानरूपता―शील है सो ही मोक्ष का सोपान है । जैसे किसी महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं ऐसे ही मोक्ष महल पर पहुंचने के लिए सीढ़ी क्या है ? अपने स्वभाव का मनन, स्वभाव की दृष्टि । स्वभाव का ज्ञान । तो शील की बहुत बड़ी महिमा है । यहाँ शील का क्या अर्थ है? आत्मा का स्वभाव । आत्मा का स्वभाव है ज्ञाताद्रष्टा रहना । तो ज्ञाताद्रष्टा रहने का बहुत बड़ा महत्त्व है । जिन भगवान को हम पूजते हैं अरहंत को, सिद्ध को, तो वे अरहंत, सिद्ध हुए कैसे? वे अरहंत सिद्ध हुए हैं सर्व बाह्य पदार्थों का लगाव छोड़कर केवल एक अपने आत्मा में स्थित होने से । आत्मस्थितता का बहुत बड़ा प्रताप है ।