वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1070
From जैनकोष
अंगान्यष्टावपि प्राय: प्रयोजनवशात् क्वचित्।
उक्तान्यत्रैव तांयुच्चैर्हिदांकुर्वंतु योगिन:।।1070।।
योगांगों की प्राय: प्रयोजकता― आचार्यदेव कहते हैं कि ये 8 अंग भी जैसे कि अन्य लोगों ने माने हैं वे भी काम के तो हैं और इसी कारण प्रयोजन के अनुसार इस ग्रंथ में भी कहा गया है। पर कितना प्रयोजन है, साक्षात् कार्यकारी कौन है और साक्षात् कार्यकारी उपायों के मदद देने वाला यह है, इस प्रकार का स्वरूप जानकर उनका उपकार करना चाहिए। अब जैसे यम है, बाह्यवस्तुवों का परिग्रह का सदा के लिए त्याग कर देना, यह अच्छी ही तो बात है, इससे लाभ ही तो है। आत्मध्यान के लिए मौका मिलेगा, यह बात नियम में है। अभी जिसके नियम हे कि रात को पानी नहीं पीना है, तो कैसी ही गर्मी हो उनको रात्रि में प्यास की बाधा नहीं होती है और जितनी थोड़ी बहुत होती है ओंठ सूखे से रहते हैं उतनी बाधा तो रात को पानी पीने वालों को भी रहती है। तो बाधा करने की डोर भावों से लगी है, त्याग नहीं है, आशा है, इच्छा है तो प्यास लगती रहेगी। जिस चीज का परिहार कर दे तो उसकी आशा, वासना चित्त में नहीं रहती और इसी कारण उनके भावों में निर्मलता प्रकट हो सकती है। तो ये व्रत, त्याग आदि बेकार नहीं हैं, लाभदायक हैं पर इनसे लाभ कितना है और असली लाभ किससे होता है? इसका सही ज्ञान होना चाहिए। आत्मा का वास्तविक लाभ है तत्त्वज्ञान से और तत्त्वज्ञान में दृढ़ता से जम जाने से और इस बात में मदद मिलती है त्याग व्रत आदिक से तो ये त्याग व्रत आदिक हमारे यों कल्याण के कारण बनते हैं। जो जिस प्रकार से कल्याण में हेतुभूत हो सकता है उसको उस प्रकार से जान लेना चाहिए, नहीं तो कोई पुरुष व्यवहार को ही निश्चय मान बैठे तो व्यवहार के काम में ही संतुष्ट हो जाय, ऊपरी देह साधना करके उपवास आदिक करके अपने आप को मान लें कि हम तो पूरे धर्मात्मा हो गए तो उससे काम तो नहीं बनने का। तत्त्वज्ञान बिना आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता, पर ऐसी जितनी बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ हैं वे सब भावों की हैं, चीज की नहीं हैं। कोई पुरुष 10 हजार धन में बड़ा संतुष्ट है कोई पुरुष 10 लाख धन में भी खुश नहीं है, तृष्णा लगाये है। तो यों ही समझिये कि इस जीव को जो भी विपत्तियाँहोती हैं वे भावों के कारण होती हैं। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञावों का भाव, और ऐसे इस जीव को परेशानीक्या होती है? अन्यथा सभी मनुष्य ज्यादा से ज्यादा मान लो अपने-अपने शरीर के भीतर हैं और मेरे में ही मेरी सारी दुनिया है। जो कुछ कर सकता है वह सब अपने आत्मा के प्रदेशों में ही कर सकता है। इससे आगे और कुछ लेनदेन नहीं है। फिर बाहरी पदार्थों से विपत्ति क्या? वैभव रहे न रहे, उससे क्या विपत्ति है? विपत्ति सारी लगा रखी है भावों से। तो भावों की विपत्ति को मिटाने का कारण भी भाव ही बनेगा। भाव से ही विपत्ति मिली है और भाव से ही विपत्ति मिटेगी। जब यह तत्त्वज्ञान जग जाय कि यह मैं आत्मा अपने ज्ञान और आनंद रूप हूँ, इसमें किसी परभाव का, परपदार्थ का प्रवेश नहीं है― यों इसका भाव बन जाय फिर इसे क्या परेशानी? कहाँ दु:ख रहा? तो दु:ख मिटता है अपने ज्ञान की सम्हाल से। ज्ञान की सम्हाल जिसके न रही तो उसे दु:ख होता है। चाहे वहाँ करोड़पति राजा महाराजा महामंडलेश्वर भी क्यों न हो। तो उन भावों को फेरने के लिए जो सहायक भाव हैं ये 8 अंग काम के हैं यम नियम आदिक।
योगांगों की कवचरूपता― यम नियम आदिक ये ढाल का काम करते हैं शास्त्र का काम नहीं करते जैसे कोई योद्धा युद्ध में ढाल रखता है वह ढाल किसी को मारने के काम नहीं आती बल्कि दूसरों के बाण शस्त्र को रोकने के काम आती है। दूसरे के शस्त्र से अपनी रक्षा करने के काम आती है। तो ढाल का काम इतना है कि उस वीर पुरुष को इस योग्य बनाये रहे कि दूसरे के शस्त्र से लड़ सके और शत्रु का घात कर सके। शत्रु को मारने का काम ढाल नहीं करती। ऐसे ही हमारे जितने व्यवहारधर्म हैं, यम नियम आदिक हैं वे ढाल का काम करते हैं और शस्त्र का काम करता है तत्त्वज्ञान, वैराग्य, रत्नत्रय। इसका अर्थ यह है कि कर्मों को, रागादिक बैरियों को नष्ट करना है तो रागादिक बैरियों का घात ये यम नियम आदिक तो नहीं करते। इन कर्मकलंकों का विनाश ये व्यवहारधर्म तो नहीं करते, उन कर्मों का विनाश तो आत्मा के शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का अनुभव करना है। आत्मा के शुद्ध ज्ञानस्वरूप का अनुभव जगे तो उससे रागादिक विकार ज्ञानावरणादिक कर्म ये नष्ट होते हैं। तो रागादिक बैरियों का नाश करने के लिए शस्त्र का काम किया रत्नत्रयधर्म ने। और इन व्यवहारधर्मों का नियमों का काम क्या है यह कि यह मुझको इस लायक बनाये रखे कि में इन रागादिक बैरियों से आत्मानुभव के चक्र को नष्ट कर सकूँ। तो इन व्यवहारधर्मों के प्रताप से हमारी वृत्ति व्यवहारधर्म में नहीं फँस पाती, तब हम इस लायक बन जाते हैं कि हम रत्नत्रय की निश्चय साधना कर सकें। तो ये 8 अंग भी सब प्रयोजन के अनुसार काम के हैं, इसका भी वर्णन इस ग्रंथ में किया, पर उन सबको उस तरह से जानना चाहिए कि जितना इनका प्रताप है।