वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1091
From जैनकोष
प्रनंतजंमजानेककर्मबंधस्थितिदृढा।
भावशुद्धिं पन्नस्य मुने:प्रक्षीयते क्षणात्।।1091।।
भावशुद्धि को प्राप्त मुनि के शीघ्र कर्मप्रक्षय―जो योगी भावशुद्धि को प्राप्त होते हैं उनके पहिले भव भवांतरों में बांधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं, इस ज्ञान द्वारा यह सब कुछ व्यवस्था चल रही है। जब यह ज्ञान ज्ञानवृत्ति से न रहकर रागद्वेष में फँसकर अज्ञान आचरण करने लगते हैं तो वे पूर्वकृत कर्म और अधिक उद्दंड होते हैं, इसे फल पहुँचाते हैं, यथाशक्ति जितना कि ज्ञान और विवेक उत्पन्न होता है, जितना बन सके अपने विकार में कषाय में न जुड़े अर्थात् उनसे अपने को भिन्न मानते रहें, अपनी ओर अधिक आयें तो वे सब कषायभाव विकारभाव यथायोग्य कुछ न कुछ शिथिलता को प्राप्त होते हैं। तो जो मुनीश्वर ऐसे भावों की शुद्धि को प्राप्त होता है उसके भव-भव के बांधे हुए कर्मदूर हो जाते हैं। तो बताओ― जिन्हें चिरकाल से करते आये हैं― आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन संज्ञाओं में चिरकाल से बसे आये हैं, किसी भी बाह्य पदार्थ को अपना वैभव मान लेना, अपने शरीर की मौज में अपने आपको उत्कृष्ट मानना ये सारी बातें चिरकाल से चली आयी हैं और उनमें ही अभी पगे रहे तो जैसे अनंतकाल इतनी त्रुटियों में बीत गया है ऐसे ही यह रहा सहा शेष जीवन भी व्यतीत हो जायगा। फिर होगा क्या सो सभी जानते हैं। मरण सर्वथा होगा फिर जन्ममरण करते रहेंगे। यह एक बहुत उत्कृष्ट भव मिला है, अन्य गतियों की अपेक्षा एक विशेष ज्ञान प्राप्त है तो एक इस भव को इस चर्या में व्यतीत करें। मुझे कोई जाने अथवा न जाने इससे भी क्या, लोग मुझे कुछ बड़ा समझें, न समझें इससे मुझे क्या? यह तो समस्त संसार मायारूप है। सभी लोग यहाँ मेरी ही तरह कर्मबंधन से बंधे हुए। विकारों से दु:खी हुए, जन्ममरण का तांता लगाये हुए चले जा रहे हैं। कोई यहाँ मेरा प्रभु है क्या? किसकी दृष्टि में हम बहुत अच्छा बनना चाहते हैं?जरा विवेक बनायें और यह निर्णय रखें मैं यदि अपने ज्ञान में अपनी समझ में अच्छे आचार विचार से रह सका तो उसमें तो लाभ है, शेष बाह्य शरीर जीवों पर एक दृष्टि रखकर उनको प्रसन्न करने के लिए हम विकल्प बनाते रहें इसमें रंच लाभ नहीं है। एक भव यदि ऐसे ही व्यतीत हो जाय तो उन अनंत भावों में से एक भव की ही बात कह रहे हैं, कोई नुकसान हो जाता है क्या? यहाँ के सभी दृश्यमान पदार्थ विघट जायेंगे। पूर्वभव में भी जो कुछ समागम प्राप्त था वह आज कुछ भी साथ है क्या? कुछ भी तो साथ नहीं है। यह एक आत्मध्यान के संबंध की बात कही जा रही है। जब आत्मा का ध्यान करें, उपासना करें तो वही मार्ग अपनाना होता है, वहाँ यह शंका नहीं उठना चाहिए तो क्या हम लोकव्यवहार में ऐसे ही मरे से बने रहें? अरे व्यवहार की बात व्यवहार में है और चाहने से अथवा अपने किसी यत्न से ही कोई बात नहीं बनती है। योग्यता है उपादान है और फिर वैसा साधन है तो सुगमता से व्यवहार में एक उच्च होने की बात बनती है। लेकिन जब आत्मशांति का एक प्रोग्राम बनाना है, हम एक उस अद्भुत विलक्षण तत्त्व को निरखने के लिए जब कुछ कमर कसकर आये हैं तो अपने उसके ही अनुकूल भाव आना चाहिए, मुझे कोई माने न माने उससे क्या? यह मैं अपनी दृष्टि में ही यदि गिरा हूँ, पाप करने में कारण हम ही रहते हैं तो मैं उठ नहीं सकता और में अपने आपमें अच्छा परिणाम बनाने के कारण अपने गौरव को प्राप्त हूँतो हमारे लिए यह में शरण होऊँगा।
मन की शुद्धि से भावों की विशुद्धि में प्रकर्षता― मन की शुद्धि से भावों की शुद्धि प्राप्त होती है तो अनंत जन्मों के अनेक कर्मबंधों की दृढ़ स्थिति भी क्षणमात्र में नष्ट हो जाती है। भावशुद्धि में सर्वप्रथम तो यह बात होनी चाहिए कि इस विश्व में मेरा कोई भी जीव विरोधी नहीं है, कोई भी मेरा शत्रु नहीं है, यही वास्तविक बात है। कोई किसी का शत्रु बन ही नहीं सकता, लेकिन लोक में जो देखा जाता है किकिसी से किसी की शत्रुता तो है, जानमाल सब हड़पने का यत्न रखते हैं, फिर भी एक अध्यात्मदृष्टि से सोचो तो वहाँ पर भी कोई किसी का शत्रु नहीं है। इसका कारण यह है कि सभी जीव अपी-अपनी आशा लगाये हुए हैं, अपनी-अपनी इच्छा बनाये हुए हैं, अपना-अपना ही वे सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो सुख प्राप्त करने के लिए उनको ऐसी ही कल्पना जगी और वे अपनी ही इस वेदना को शांत करने के लिए ऐसी चेष्टा किया करते हैं। वे यद्यपि मेरे पर उपद्रव करने के लिए उपद्रव नहीं ढा रहे हैं किंतु वे अपने आपमें सुखी होने के लिए जो कि उनकी कल्पना में समायी हुई बात है उस चेष्टा को कर रहे हैं। जगत में कोई भी जीव मेरा विरोधी नहीं है। ऐसी बात हृदय में समा जाय प्रथम तो भावशुद्धि यह है। यह है केवल एक ज्ञान की बात है, इसमें कोई अधिक श्रम नहीं करना है, कोई शारीरिक चेष्टा नहीं करना है, एक चित्त में निर्णय कर लेने भर की बात है। कोई जीव मेरा विरोधी नहीं हैं। देखो ऐसा भाव रखने में और ऐसी दृष्टि बनाने में कितना अद्भुत आनंद जगता है ऐसा भाव बने कि किसी भी जीव के प्रति मेरी मात्सर्य की बुद्धि न रहे, इससे चित्त में एक निर्मलता प्रकट होती है,उसके कारण एक अद्भुत आनंद जगता है, और इस ही आनंद के अनुभव के कारण पूर्व बंधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाया करते हैं। अपने पर जो बोझ लदा हुआ है कर्मों का, सूक्ष्म अथवा स्थूल वातावरण का उन सबको हटाने का उपाय केवल भावशुद्धि है। कोई पुरुष किसी का अपराध भी कर ले, पीछे वह पछतावा या गलती मान ले या वैसी हठ न करे तो लोग उसे भी क्षमा करते हैं, छोड देते हैं, उस पर उपद्रव नहीं ढाते। ऐसे ही यद्यपि हमने पूर्वसमय में अपराध किया था और कर्मबंध किया था अब उनके उदयकाल में या उस वातावरण के कारण बहुत बड़ा उपद्रव आना था, लेकिन उससे पहिले विवेक जग जाय अपने अपराध पर पछतावा आये और ऐसी सूक्ष्मदृष्टि करे कि अपराध भी हो तो उसके द्रव्यस्वभाव के कारण नहीं हुआ, वह भी परिस्थिति थी, औपाधिक भाव था। मैं तो शाश्वत चैतन्यस्वरूप हूँ, एक द्रव्यदृष्टि का माध्यम लेकर जरा इस ओरभी चित्त दें कि मेरे स्वरूप में विरोध कहाँहै? हो अपराध पर मेरे स्वरूप में न था वह मिथ्या हो अर्थात् अब कभी न था या होता हे तो वह अज्ञान में था ऐसे ही ज्ञाता रहें, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, इस तरह चैतन्य मूर्ति निज अंतस्तत्त्व की ओर दृष्टि लगे तो वहाँ है परमभावशुद्धि। ऐसी भावशुद्धि को प्राप्त जो भी संत महंत योगीश्वर होगा। उसके भवभव के बांधे हुए कर्म भी क्षण मात्र में दूर हो जाते हैं।
स्वानुकंपा का कार्य― भैया ! बात करनी है अपने आपको सुखी करने की। लोगों पर ऐहसान देने की नहीं, लोगों में कुछ कहलवाने की नहीं किंतु समस्या है अपने आपकी। हम कैसे सुखी हो सकें? उसका उपाय यही है भावशुद्धि। उससे प्राथमिकता इस बात की सोचें कि लोक में कोई भी जीव मेरा बैरी नहीं है, जब इस दिशा में भावशुद्धि बनने लगे तो जो-जो भी गुण चाहिए, जो-जो भी उपाय चाहिए वे सब उपाय सुगमता से बनने लगेंगे। जैसे क्षमा होना भावशुद्धि में आवश्यक है। तो जब किसी जीव को हम अपना विरोधी ही नहीं समझ रहे हैं तो उस पर क्रोध क्या आयगा? अथवा तीव्र कर्म विपाकवश क्रोध किया भी तो कुछ क्षण के बाद ही तुरंत सम्हल जायेंगे। कोई जीव किसी दूसरे का विकल्प नहीं करना, यह सब अपने उपादान की बात है, योग्यता की बात है। विकल्प करेंगे तो दु:खी हो लेंगे, पर क्रोध करके हम किसी दूसरे का बिगाड़ करने में समर्थ नहीं हो सकते। हम केवल वहाँ अपना ही बिगाड़ कर रहे हैं। मेरा जो सत्यस्वरूप है ज्ञाताद्रष्टा रहने का स्वरूप है वह बिगड़ गया क्रोधादिक करने से, तब हमने उस कषाय में अपना ही घात किया है। सो ज्ञानी पुरुष के भी कदाचित् क्रोध हो जाय तो कुछ क्षण के बाद तुरंत अपने आपको क्षमा कर देता है। अपराध किया हमने और अपराध किया अपने पर। परमार्थ से क्रोध करके हमने अपने पर अन्याय किया, अपने पर अपराध किया। उसके बाद यह मूल भावना बनी कि मैंने क्रोध किया था वह कोई तात्विक बात न थी, हो गया था। में उससे न्यारा हूँ, शुद्ध एक चैतन्यमात्र हूँ ऐसी दृष्टि अपने आप पर आये तो हमने अब लो क्षमा कर दिया। जितने गुण चाहिए अपने आपके कल्याण के लिए वे सब गुण एक इस भावशुद्धि के होने पर प्रकट हो जाते हैं। जगत का कोई भी जीव विरोधी न जँचे, सब एक स्वरूप में जँचने लगें, सब जीवों का स्वरूप एक है, प्रतिभास स्वरूप ऐसा विशुद्धस्वरूप दृष्टि में रहे तो सब गुण अपने आप आ जायेंगे और सारे अवगुण अपने आप दूरहो जायेंगे। तब एतदर्थ हमें यह यत्न करना चाहिए तत्त्वज्ञान बनाकर कि मुझे सब जीवों का वह अंत:स्वरूप जँचे जो देह में बंधा है। इस देहकुटी के भी पार इसमें भी न अटककर भीतर एक चैतन्यस्वरूप को निहारें, सबका स्वरूप यह है और सब अपने आपके स्वरूप में रहते हैं, कभी औपाधिक परिणमन भी है तो वह सबका अपना-अपना स्वरूप है, अतएव कोई जीव मेरा विरोधी नहीं है, यह भाव समाये तो यही है वह भावशुद्धि जिसके प्राप्त होने पर अनंत जन्मों में उत्पन्न किये गये कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। अपने आपको सुखी करने की बात कह रहे हैं कि हम किसी जीव को अपना विरोधी न मानें और सब सुखी हों ऐसी अपनी भावना बनायें।