वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 110
From जैनकोष
अकृताभीष्टकल्याणमसिद्ध रब्धवांछितम्।
प्रागेवागत्य निस्त्रिंसो हंति लोकं यम:क्षणे।।110।।
मरणकाल में अज्ञानियों की दृष्टि― जो प्राणी ऐसे हैं जिन्होंने अपने अभीष्ट कल्याण का कार्य नहीं किया और न अपने आरंभ किये हुए इष्ट कार्यों को पूर्ण कर पाया ऐसे लोगों को तो यह काल सबसे अधिक मार डालता है। इसमें यह बात दिखाई है कि प्राय: सब लोग ऐसा महसूस करते हैं कि लो अधूरा का ही अधूरा सब पड़ा रह गया और यह चल बसा। अच्छा बताओ कौनसी स्थिति ऐसी है जिसको यह पूरा मान ले और फिर मरने के लिए तैयार हो जाये? हमारे काम तो सब पूरे हो चुके। अब मुझे कुछ डर नहीं, अब मर जाऊँ तो कोई परवाह नहीं। अरे काम तो किसी के पूर्ण होते ही नहीं।
कृतकृत्यता का अभ्युदय― ज्ञान जगा हो और ज्ञानबल से यह अपना विश्वास ठीक बनाये रहे कि जगत् के इन पदार्थों में मुझे करने का कुछ बाकी ही नहीं― ऐसा श्रद्धान सही बनाये रहे कि मेरे सब कार्य पूर्ण हो गये, कुछ करने को मन में ही नहीं। मैं क्या कर सकता हूँ किसी परपदार्थों में? जो कुछ करता भी था किसी परपदार्थ के विषय में तो वहाँ भी उस पर का कुछ नहीं करता था, केवल अपनी परिणति ही बनाता रहता था और अभी मैं क्या कर रहा हूँ किसी का कुछ? भविष्य में भी मैं किसी परपदार्थ का कुछ भी कर न सकूँगा। लो इस सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में हमने सारे कार्य पूर्ण कर लिये। कृतकृत्य किसे कहते हैं? कृतकृत्य का शब्दार्थ है― कृतं कृत्यं येन स: कृत्कृत्य:। जिसने करने योग्य सब काम कर लिये हों उसे कृतकृत्य कहते हैं। करने योग्य काम क्या हैं? मुझे किसी पदार्थ में कुछ करने को पड़ा ही नहीं है, इस प्रकार का ज्ञानप्रकाश जगना प्रथम तो यही एक करने योग्य काम है। जिसने यह कर लिया वह कृतकृत्य कहलाता है, वह कृतकृत्य हो जाता है।
अधूरी परिस्थिति की पूर्ति का अभाव― लोग यह महसूस करते हैं कि हमारे सब कार्य अधूरे रह गये और देखो वह बीच में चल बसा। कोई 10-15 वर्ष का बालक हो तो उसके कार्य अधूरे हैं या नहीं? हाँ-हाँ सारे काम अधूरे पड़े हैं। अभी विवाह होना है, घर बसाना है, ये सब काम तो पड़े हुए हैं। यदि यह बालक अभी गुजर गया तो उसका अर्थ यह है कि सारे अधूरे काम छोड़कर यह चल बसा। लोगों की ऐसी दृष्टि रहती ना। लो चलो विवाह हो चुका अब तो अधूरे काम नहीं रहे। अरे विवाह हो चुका तो अभी बहुत काम पड़े हुए हैं। संतान हो तब तो परिवार चलेगा। बच्चे हो गये, अब तो अधूरा नहीं रहा अरे इन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर कहाँ जाय? इससे अच्छा तो यह था कि पहिले ही हम मर जाते। अब तो और भी अधूरे बन गये। ज्यों-ज्यों उमर बढ़ती है, त्यों-त्यों काम और अधूरे होते जाते हैं। अच्छा बतावो यह कब मरे कि पूरे काम हो चुकने पर मरा कहा जाय? बूढ़ा हो गया तो सारे काम पूरे हो गये ना। उस मरने वाले से कोई पूछे― बाबा अब तो तुम्हारे काम पूरे हो चुके ना। अब मरण आये तो कोई परवाह तो नहीं है? अरे अभी पोतों का सुख तो देखा ही नहीं है। फिर पोतों का विवाह हो, ये काम काज में लग जायें, अभी ये सारे काम तो अधूरे पड़े हैं। तो कौनसी स्थिति ऐसी है जिसमें अधूरापन न रहे? यह अधूरेपन की बात कही जा रही है मोहियों की दृष्टि से।
जीव की सर्वदा परिपूर्णता― अपने ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से देखो― यह जीव सदा पूरा है। कभी गुजर जाये, क्या हुआ, यह तो यही है। अपने आपकी दृष्टि हो, अपनी संभाल हो तो यह मिलेटरी के जवान की तरह सदा मृत्यु के सम्मुख जाने को तैयार बना रहता है? लो उठो यहाँ से अच्छा साहब। कहाँ बैठे? यहाँ बैठो। लो बैठ गया। उसका कहाँ बिगाड़ है? जावो इस भव से। अच्छा लो चले। कहाँ जायें? इस ठौर पर। पहुँच गये। कहाँ बिगाड़ हुआ? यहाँ भी अपने ज्ञान से, श्रद्धान आचरण से अपने आपके आत्मा को प्रसन्न रख रहे थे और दूसरे भव में जाकर वहाँ भी अपने रत्नत्रय की उपासना से अपने को प्रसन्न रख रहे हैं। मौत तो कुमौत उनकी है जिन्होंने धर्म की आराधना नहीं की, धर्म का पालन नहीं किया।
उदारता का प्रताप― स्वामी कार्तिकेय अनुपेक्षा में बताया है कि धन की तीन गतियाँ होती हैं दान कर लो या भोग कर लो या नष्ट हो जायेगा। तो उस प्रकरण में कहते हैं कि जिस पुरुष ने न दान किया, न भोग किया, उसके धनविनाश के समय अतीव संक्लेश परिणाम होता है और जिसने दान और भोग किया उसके संक्लेश नहीं होता। यह तो ठीक है, पर जिसने दान नहीं किया, परंतु खूब खाया पिया, मौज किया, भोग उपभोग किया उसके भी वियोग समय में उतना खेद न होगा जितना कि न दान किया, न भोग किया ऐसे कृपण को खेद होता है। स्पष्टरूप से यह बात को समझाया है तो मरण के समय अज्ञानी जीवों को ही खेद होता है। ज्ञानी पुरुष तो किसी भी समय मरण को तैयार हैं, घबड़ाते नहीं हैं।
धर्माराधन की शीघ्र कर्तव्यता― इस श्लोक में यह भाव दर्शाया है कि करने योग्य काम, धर्मआराधना का काम झट संभाल लो। अचानक कभी मृत्यु होगी उस समय यह क्लेश मानेगा कि हाय ! जीवन मैंने यों ही खोया। मैं कुछ धर्म नहीं कर पाया। सच जानो मरण समय में खेद होगा कि मैंने धर्म नहीं अपनाया। तब आगामी क्लेश से बचना हो तो इस धर्मभाव को, ज्ञानभाव को अपनावो और सम्यग्ज्ञानी बनकर अपने अंतरड्.ग में प्रसन्न रहो।