वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1305
From जैनकोष
कायोसर्गश्च पर्यंक: प्रशस्तं कैश्चिदीरितं।
देहिनां वीर्यवैकल्यात्कालदोषेण संप्रति।।1305।।।
तथा इस समय कालदोष से जीवों की शक्ति की विकलता है, सामर्थ्य की कमी है, इस कारण आचार्यों ने दो आसन ही प्रशस्त कहे हैं। पद्मासन और कायोत्सर्ग। लगता होगा ऐसा कि इन सब आसनों में ये दो ही तो कठिन हैं और बताया है ऐसा कि सामर्थ्य में कमी है तो ये दो बात प्रशस्त बताया है, लेकिन अन्य आसन से बैठकर देख लो उनमें भी कष्ट मालूम करने लगेंगे। यह सुख आसन ही देख लो― पैर के नीचे की गुट्ठी जब जमीन में गड़ने लगती है तो उस पैर को भी बदल लेते हैं कि नहीं। तो पद्मासन में तो पैर की गुट्ठी जमीन में गड़ने का सवाल ही नहीं है। वह अच्छा आसन है, आराम से बैठ सकते हैं, हाँ अगर अभ्यास न हो तो यह आसन कठिन मालूम होता है। कायोत्सर्ग का आसन इन सबसे सरल है। पद्मासन में खड़े ही तो रहना है। चलना है और पीछे ही बैठा रहे, खड़े होने को न मिले तो उनकी श्वास खराब हो जाय तो ये आसन पद्मासन और कायोत्सर्ग प्रशस्त माने गए हैं।