वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1369
From जैनकोष
सर्वेऽपि प्रविशंतो रविशशिमार्गेण वायव: सततम्।
विदधति परां सुखास्थां निर्गच्छंतो विपर्यस्ताम्।।1369।।
उसी बात को पुन:...दे रहे हैं कि वे चार पवन जो चंद्रमा के....से निरंतर प्रवेश उत्कृष्ट सुख की कल्पना को करते हैं और ये निकलते समय दु:ख की अवस्था को प्रकट करते हैं। यह विधि बतलायी जा रही है कि किसी भी मंडल की वायु हो और किसी भी नासिका के छिद्र में चलती हुई हो जिस समय श्वास खींची जा रही है तो उस समय उपेक्षा में कार्य सिद्ध हुआ और जब श्वास खींची जा रही हैं तो उस समय प्रश्नकर्ता का प्रश्न सिद्ध नहीं हुआ उसके संबंध में बता रहे हैं। वैसे भी तो लगता है कि श्वास निकलते समय कुछ भाव में कुछ हीनता होती है अथवा किसी-किसी योगी पुरुष के क्रूरता जगती है और श्वास अंदर लेते समय कुछ भावों में विशुद्धि बनती है। जैसे लोग कहते हैं कि कभी क्रोध आये तो पानी पी लो, एक आध गिलास पानी पी लेने से जैसे क्रोध में अंतर कुछ आता है। कोई पूछे कि उस क्रोध का पानी से क्या संबंध है? तो संबंध क्या है इसे क्या सिद्ध करें? खुद देख लो और जैसे गुस्सा होने वाले पुरुष को किसी प्रकार मनाकर कोई भोजन खिलाये तो भोजन करने के बाद उतनी गुस्सा नहीं रहती, शांत हो जाता है, उस गुस्सा से भोजन का संबंध क्या? लेकिन ऐसा देखा जाता है। जब श्वास अंतर खींची जा रही हो उस समय विचारा गया कार्य सिद्ध होता है और जब श्वास बाहर निकल रही हो उस समय विचारे गए पूछे गये कार्य सिद्ध नहीं होते।