वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1572
From जैनकोष
जनसंसर्गे वाक्चित्तपरिस्पंदमनोभ्रमा:।
उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानी जनस्ततस्त्यजेत्।।1572।।
जब मनुष्यों का समागम होता है, मिलन-जुलन होता है तो उनमें वचनव्यवहार बनता है, नहीं तो वहाँ बैठते ही क्यों हैं? कुछ तो वचन बोलने पड़ेगे, कुछ तो मन का परिस्पंद होता है और फिर उससे मन में भ्रम होता, क्षोभ होता, हठ पैदा होती है, कुछ स्नेह का आग्रह है तो उससे फिर भ्रम बढ़ता ही जाता है और इस भ्रम से फिर जन्म-मरण की परंपरा चलती है। जब वचनों में परिस्पंद हुआ, चित्त में परिस्पंद हुआ तो मन में भ्रम फैल गया और मन में भ्रम फैला तो उसकी जिंदगी बेकारहै। वह तरीके से रह नहीं सकता, कोई बात जान नहीं सकता। ज्ञानी पुरुष उन सब स्नेहों का, मनुष्यों के संसर्ग का परित्याग करते हैं। तो हम भी इन मनुष्यों का संसर्ग छोड़ें और एकांत में बसकर अपने आपकी धुन में रहें।