वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1660
From जैनकोष
चरस्थिरविकल्पासु तिर्यग्गत्षिु जंतुभि:।
तिर्यगाय:प्रकोपेन दु:खमेवानुभूयते।।1660।।
तथा प्राणी तिर्यंच आयु के उदय में त्रस और स्थावर दो प्रकार के जन्म लेता है। स्थावर 5 प्रकार के हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। ये सब एकेंद्रिय जीवहैं। पृथ्वी में जीव हैं इसलिए उसे व्यर्थ में नहीं खोदता। यद्यपि वह श्रावक अभी हिंसा का पूर्ण त्याग नहीं कर सकता क्योंकि घर में है उन्हें कभी मिट्टी चाहिए, कभी जल चाहिए, कभी अग्नि चाहिए, हवा चाहिए, फल-फूल चाहिए तो प्रयोजनवश तो स्थावर जीवों का आरंभ कर लेता है, मगर जब प्रयोजन न हो कुछ तो बिना प्रयोजन पृथ्वी को नहीं खोदता, जल को नहीं बहाता, अग्नि को नहीं जलाता, हवा को नहीं बहाता पंखा आदिक से और न बिना प्रयोजन वह फल-फूल पत्तियाँ आदि तोड़ता है। बहुत से लोग बिना प्रयोजन ही पृथ्वी को खोदते, नल से जल को बहाते, कूड़ा-करकट वगैरह में अग्नि जलाते, जिसमें कि बहुत से त्रस जीवों की भी हिंसा होती, बिना प्रयोजन ही बहुत-बहुत बिजली के पंखे झेलते और बिना प्रयोजन ही फल-फूल पत्तियों को तोडते, पर जो श्रावकजन हैं वे बिना प्रयोजन इन एकेंद्रिय जीवों की हिंसा नहीं करते हैं।
एकेंद्रिय जीव के उदय में यह जीव स्थावर बनता है। कुछ विकास हुआ तो यह त्रस बना, दोइंद्रिय बना। अब इसके शरीर के ढाचे में कितना फर्क हो गया? एकेंद्रिय के तो मुख ही नहीं है, वृक्ष हैं, उनकी जड़ें नीचे फँसी हैं। उन्हीं जड़ों से वे आहार ग्रहण कर लेते हैं दोइंद्रिय जीव के मुख हो गया।एकेंद्रिय जीव तो स्पर्शमात्र थे पर दो इंद्रिय में सरना इंद्रिय भी आ गयी।अब वे रस भी चख सकते। तीन इंद्रिय में इस जीव को नासिका भी प्राप्त हो गयी, अब वह गंध भी लेने लगा, चार इंद्रिय में इसे नेत्र भी प्राप्त हो गए, अब तो वह देखने भी लगा और जब पंचेंद्रिय हुआ तो इसे कर्णेंद्रिय भी प्राप्त हो गयी। अब तो यह वचन भी सुनने लगा, ज्ञान होने लगा। यों उत्तरोत्तर जैसे-जैसे योग्यता बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे यह ऊँची जाति में जन्म लेता है। जब मन प्राप्त हो गया तब तो फिर मन के द्वारा यह जीव विवेक ग्रहण कर सकता, सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकता।इस ही मन से हम मोक्षमार्ग बना सकते हैं। तो इस मन का बड़ा महत्त्व है पर लोग चिंताएँ कर-करके व्यर्थ ही अपना काल गवाँ देते हैं। कल्याण का साधन जो तत्त्वाभ्यास है उसे इस मन से बना सकते थे। भगवान के शब्द तो एक स्मरण के लिए हैं। प्रभु ऐसे हो गए, उनमें ये-ये गुण थे। ऐसा तो कोई नहीं कहता कि यह जयपुर की बनी मूर्ति है, बड़ी अच्छी बनी है, सफेद रंग की है। अरे वह मूर्ति तो उस महापुरुष की याद दिलाती है उस पुरुष ने इस-इस तरह के समस्त कर्मकलंकों से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त किया था। तो इस मन से हम बहुत बड़ा कार्य कर सकते थे जिससे कि संसार के संकट सदा के लिए छूट जाते, लेकिन इस मन का उपयोग विषयसाधनों के लिए किया। इस जीवन को व्यर्थ बना दिया। यों त्रस और स्थावर के भेद से तिर्यंच जीव 5 प्रकार के हैं। तिर्यंचों में भी जिनके मन है घोड़ा, बैल, हाथी, सर्प, नेवला, सूकर आदि ये भी सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं। कोई बैल आराम से बैठा हुआ रोश रहा हो और कहो उसे सम्यक्त्व हो जाय। अपने आत्मस्वरूप का दर्शन हो जाय तो उसे भी सम्यक्त्व हो जाता है। बहुत से पशुवों को ऐसा हुआ भी है। पुराणों में बहुत से कथानक आये हैं ऐसे―नेवला, सिंह, सर्प, सूकर आदिक बहुत से सम्यक्त्व प्राप्त कर चुके हैं। तो मन भी ऐसी ऊँची चीज है लेकिन मोह के वश होकर यह प्राणी मन का सदुपयोग कहाँ करता है? विषय कषायों में ही मन लगा देता है। तिर्यंच आयु कर्म के उदय से यह जीव तिर्यंचगति में जन्म लेता है, तिर्यंचगति में भी ऐसे बिरले ही तिर्यंच हैं जो कुछ मन के द्वारा शांति का अनुभव कर पाते हैं, प्राय: करके सभी तिर्यंच दु:ख ही दु:ख का अनुभव करते हैं। उनके दु:ख को कौन बताये? उन पशुवों की निर्दयता से हत्या कर दी जाती है। सभी को मालूम है। मुलायम चमड़ा निकलने के लिए सुनते हैं कि गर्भवती गाय को बहुत तेज गरम फव्वारा के नीचे खड़ा करके फव्वारा चला देते हैं, सारा शरीर उस गरम जल से जल जाता है फिर उसे बेंतों से पीटते हैं, गाय का बछड़ा भी बाहर निकल आता है, उसे भी पीटकर चमड़ी निकाल लेते हैं। जरा सोचो तो सही कि उनकी क्या दशा होती है? उस चमड़ी को मुलायम बताते हैं, उसके सूटकेश वगैरह बनते हैं। बहुत से लोग कोट, टोपी आदिक बनवाते हैं। बड़े चाव से लोग उनका प्रयोग करते हैं। तो ऐसे चाव से उनका प्रयोग करने वाले लोग भी उस हिंसा को प्रोत्साहन दे रहे हैं। तो उन जीवों के दु:ख को कौन कहे, कौन सुनने वाला है, कौन दया करने वाला है? ऐसे नाना तरह के दु:खों को यह तिर्यंचगति में जन्म लेकर सहन करता है। यहाँ कर्मों के विपाक का चिंतन चल रहा है। विपाकविचय धर्मध्यानी पुरुष कर्मों का फल सोच रहा है कि कैसे-कैसे कर्मफलों में यह जीव बना रहता है? यह सब वैराग्य के हेतुभूत चिंतन है।