वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1733
From जैनकोष
निष्पीडयंति यंत्रेषु दलंति विषमोपलै:।
शाल्मलीषु निघर्षंतिकुंभीषु क्वाथयंति च।।1733।।
कुंभीपाक आदि की वेदना का चित्रण―वे नारकी जीव एक दूसरे को घानी में अर्थात् कोल्हू में डालकर पेल देते हैं, उस नारकी के शरीर का चूरा-चूरा हो जाता है । उनको वह कोल्हू कहीं बाहर से नहीं लाना है, उनका ही शरीर कोल्हूरूप बन जाता है । उनकी इच्छा हुई कि मैं इसे पत्थर की दरेती में दल दूँ अथवा चक्की में पीस दूँ तो उनका ही शरीर दरेती चक्की आदि बन जाता है और उसमें उस नारकी को डालकर पीस डालते हैं, उस नारकी के शरीर को चूर-चूर कर डालते हैं । लोहे के काँटों वाले वृक्षों से वे उस नारकी को रगड़ते हैं, कड़ा-ही में डालकर उनको उबालते हैं । जैसे बड़े-बड़े कड़ाहे गर्म हों, उनमें खूब तप्तायमान तेल हो, उसमें निर्दयी लोग पशु पक्षी आदिक को डालकर उबाल लेते हैं ऐसे ही नारकी जीव एक दूसरे नारकी पर क्रुद्ध होकर तप्तायमान कड़ाही में डालकर उन नारकियों को कष्ट देते हैं । उन नारकियों के शरीर के खंड-खंड हो जाते हैं, फिर भी उनके ऐसा अशुभ कर्म का उदय है कि वै शरीर के खंड-खंड फिर पारे की तरह मिलकर शरीर रूप हो जाते हैं और फिर मरने मारने के लिए तैयार हो जाते हैं । ऐसे दुःख पूर्ण जीवन को वे नारकी व्यतीत करते हैं यह सब उनके पाप कर्मों का फल है । तो वह नारकी विचार कर रहा है कि मैंने पूर्वजन्म में ऐसे पापकर्म किया था जिनका फल यहाँ अकेले भोगना पड रहा है । कोई दूसरा साथी नहीं है । यह सब अर्थ संस्थानविचय धर्मध्यानी प्राप्त कर रहा है कि अधोलोक में इस तरह कई प्रवृत्तियाँ हैं ।