वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 17
From जैनकोष
श्रीमद्भट्टाकलङ्स्य पातु पुण्या सरस्वती।
अनेकांतमरुंमार्गे चंद्रलेखायितं यया।।17।।
श्रीमद्भट्टाकलंकदेव का अभिवंदन― श्रीमद्भट्ट अकलंकदेव की पवित्र सरस्वती हम सब की रक्षा करे जो सरस्वती अनेकांत स्याद्वादरूप है, चंद्रमा की किरण की तरह प्रकाश करती है। जैसे चंद्रमा आकाश को प्रकाशित करता है ऐसे ही भट्ट अकलंक की वाणी इस लोक के विद्वानों के जगत में प्रकाशक है। अकलंकदेव कितने स्याद्वाद प्रिय थे, इनकी ग्रंथ रचना में जगह-जगह इसका दिग्दर्शन होता है। एक इनका बनाया हुआ ‘स्वरूप संबोधन’ स्तोत्र है जिसमें मंगलाचरण में ही यह कह रहे हैं― ये भगवान, जिनको नमस्कार कर रहे हैं वे भगवान मुक्त भी हैं और अमुक्त भी हैं। सुनने में तो कड़वा सा लगता होगा। मुक्त जीवों को अमुक्त बता दिया, पर स्याद्वाद का इसमें दर्शन है। मुक्त मायने छूटा हुआ। तो सिद्ध भगवान कर्मों से छूटे हुये हैं, पर ज्ञानादिक गुणों से तो अमुक्त हैं, छूटे नहीं हैं। सो कथंचित् परमात्मा मुक्त हैं और कथंचित् अमुक्त हैं। ऐसे दो विशेषण देकर नमस्कार किया है।
अकलंकदेव को स्याद्वादप्रियता― तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या करते हुए भट्ट अकलंकदेव ने स्याद्वाद का भी दिग्दर्शन कराया है। स्याद्वाद में यह आता है ना कि स्याद अस्ति, स्यात् नास्ति। कथंचित् नहीं है। जैसे यह घड़ा है। यह तो है यह घड़े के रूप से है और कपड़ा आदिक अन्यरूपों से नहीं है।इसी को कहते हैं स्याद् अस्ति स्यात् नास्ति। यह घड़ा अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है। अब इसकी ओर व्याख्या में बढ़ें तो जब हम आँखों से देखकर चल रहे हैं कि यह घड़ा है तो रूप की दृष्टि से यह घड़ा है और उस ही में रहने वाले रस आदिक की दृष्टि से घड़ा नहीं है। ये चक्षुरिंद्रिय रस आदिक को विषय नहीं ही करती, अथवा यह घड़ा जैसा इसका आकार है उस आकार से यह घड़ा है और अन्य घड़ों के आकार से जितने भी आकार हैं उन आकारों से यह नहीं है, अथवा हमारे ज्ञानमें आया है यह घड़ा है तो हमारे ज्ञान में जो घट बसा हुआ है, जो घट ज्ञेयाकार मेरे आत्मा में परिणमन है उसकी अपेक्षा से घड़ा है और वही जो रखा हुआ सामने है उसकी अपेक्षा से घड़ा नहीं है। इसमें बहुत स्याद्वाद की छटा दिखायी है। तो जो स्याद्वाद विद्या के अधिकारी थे ऐसे अकलंकदेव का इस लोक में स्मरण किया जा रहा है।