वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2111
From जैनकोष
दशांगभोगसंभूतं महाष्टगुणवर्द्धितम् ।
यत्कल्पवासिनां सौख्यं तद्वक्तुं केन पार्यते ।।2111।।
कल्पवासियों के सुख की भी विशेषता―धर्मध्यान के फल में कल्पवासी देवों में जन्म होता है । वहाँ 10 प्रकार के अंग भोगो से उत्पन्न हुआ सुख और अणिमा आदिक 8 गुणों से बढ़ा हुआ सुख जो कल्पवासियों को होता है वह यहाँ कहा जाने में नहीं आ सकता । एक सांसारिक सुख की बात कही जा रही है । जो सुख वहाँ स्वर्गों में है कि कल्पवृक्ष से जो चाहो सो मिले ।अणिमा महिमा आदिक अनेक प्रकार की वहाँ प्राकृतिक कलायें हैं । अपने शरीर को कहो इतना छोटा बना लें कि एक दो अंगुल का ही हो, और कहो इतना बड़ा बना ले कि जितना बड़ा कोई जानवर भी न हो सके । अपने डीलडौल को कहो इतना वजनदार बना ले कि देखने में तो अत्यंत छोटा हो और उसका वजन बहुत अधिक हो । और कहो डीलडौल तो बहुत ही विस्तृत और वजन उसका बिल्कुल थोड़ा हो, अपने रूप को जितना सुंदर चाहें वे बना सकते हें । कहो ऐसा सुंदर रूप बना ले कि जिसकी यहाँ कुछ उपमा ही न दी जा सके । इस प्रकार की कलावों से उत्पन्न हुआ सुख कल्पवासी देवों को जो है उसकी यहाँ मनुष्यलोक के किसी भी सुख से उपमा नहीं दी जा सकती । यह सांसारिक सुख की बात चल रही है । सुख सुन करके कुछ चित्त में मलिन भाव लाने का अवकाश भी हो सकता है । ऐसे सुख की चाह करने लगे कोई इसके लिए यहाँ नहीं कहा जा रहा है किंतु धर्मध्यान में ऐसा फल मिलता ही है जब तक संसार है, और फिर कोई साधारण जन ऐसा भी सोच सकते हैं कि मनुष्यलोक में इन अशुचि असार सुखों से दिल हटा ले तो एक सागरों पर्यंत का ऐसा सुख मिल सकता है।