वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2200
From जैनकोष
गगनघनपतंगाहींद्रचंद्राचलेंद्र,
क्षितिदहनसमीरांभोधिकल्पद्रुमाणाम ।
निचयमपि समस्तं चिंत्यमानं गुणानां,
परमगुरुगुणौघैर्नोपमानत्वमेति ।।2200।।
प्रभुगुणों के उपमान का अभाव―भगवान का ज्ञान, भगवान का आनंद, भगवान का साम्राज्य कितना महान है? आकाश सबसे महान है, पर आकाश से भी महान है प्रभु का ज्ञान ।प्रभु के ज्ञान में समस्त लोकाकाश एक बिंदु की तरह प्रतिभास होता है । यहाँ किसकी उपमा दी जाय? मेघ को बताते तो हैं गंभीर, परं क्या गुण है मेघ में? अरे ये सब एक क्षणिक पदार्थ हैं । उस ज्ञानानंदस्वरूप की इनसे क्या उपमा दी जा सकती है । सूर्य, चंद्र, मेरु, पृथ्वी, अग्नि, वायु, कल्पवृक्ष इनसे प्रभु का गुणसमूह चिंतन किया जाय तो संतुलन नहीं हो सकता । इनकी तरह प्रभु का ज्ञान और आनंद है ऐसा कहा नहीं जा सकता कोई पदार्थ है ही नहीं । सारे दुःख मिट जायें और आनंद ही आनंद में मग्न रहा करें ऐसी स्थिति की और किससे तुलना की जा सकती है? उससे उच्च और कुछ नहीं है । देखो जिसमें आनंद भरा है, जिससे आनंद मिलता है वे सब चीजें आपकी आप में बसी हुई हैं । कहीं बाहर से नहीं लाना है । जब जरा बाह्यपदार्थों की दृष्टि, बाह्य का विकल्प छोड़े तो खुद ही यह प्रभु है, खुद ही यह अपने आपकी परख कर लेगा ।
कल्याण के लिये उम्र का हिसाब लगाने की अनावश्यकता―जिस स्त्री, पुरुष, गृहस्थ, साधु, जवान अथवा बच्चा, जिसको भी अपने आपके आत्मस्वरूप का अनुराग जग गया धन्य तो उसका जीवन है । इसमें उसकी बात क्या? 8 वर्ष का भी बालक सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकता है और साधु होकर चारित्र पालकर भगवान बन सकता है । कृष्ण की सभा में जब नेमिनाथ स्वामी के समवशरण में व्याख्यान सुनकर आये श्रीकृष्ण जी ! दरबार लगा था, वहाँ कहा कि देखो यह द्वारिकापुरी बारह वर्ष में समाप्त होगी । जिसे उत्थान करना हो, जिसे जो कुछ करना हो सो करे । तो भरी सभा में प्रद्युम्न बच्चा खड़ा हो गया, कोई अधिक उम्र न थी, शादी हुए थोड़े दिन हुए थे, वह प्रद्युम्न खड़ा होकर बोला―मुझे तो विरक्ति हुई है और सब घर परिवार छोड़कर दीक्षा के लिए जाऊँगा । लोग समझाते हैं―श्रीकृष्ण जी बोले―बेटा क्या कहते हो? और लोग भी बोले―अरे छोटी उम्र है तुम्हारी, अभी दीक्षा लेने क्यों जा रहे हो? तो वह प्रद्युम्न कहता है कि अब तो मुझे किसी से भी अनुराग नहीं रहा, मैं अब इस संसार के खंभा बनकर रहना नही चाहता । चल दिया वहाँ से । पहुंचा घर और स्त्री से कहा कि हमें तो अब विरक्ति हुई है, हम तो जा रहे हैं दीक्षा लेने । तो स्त्री कहती है कि तुम को अभी अच्छी तरह विरक्ति नही हुई । क्योंकि यदि अच्छी तरह से विरक्ति हुई होती तो हमारे पास खबर भी देने न आते । और तुम तो जब विरक्त होओ तब होओ, लो मैं तो यह चली । तो कल्याण के लिए क्या उम्र पूछना? जब जिसमें ज्योति जगे तब उसे अपना लाभ उठा लेना चाहिए ।
धर्मविद्या का महत्व आंकने का अनुरोध―देखिये यह धर्मविद्या आपकी लौकिक विद्यावों से कितने ही गुणा महत्व रखती हैं, पर समय का प्रभाव है लोग लौकिक विद्यावों का, आजीविका की विद्यावों का बहुत महत्व बताते हैं, पर धर्मविद्या को बेकार समझते हैं । समय मिला तो धर्म पढ़ लिया । वह तो एक दिल बहलावा की बात है, पर यह तो बतावो कि अंत में इन लौकिक विद्यावों से लाभ क्या मिल जायगा? महत्त्व दें धार्मिक ज्ञान को । ये तो संसार की परिस्थितियां हैं । जो भी परिस्थिति मिलेगी उस ही में गुजारा कर सकते हैं, और फिर परिस्थिति के उत्पन्न करने के हम अधिकारी नहीं हैं, ये परिस्थितियां तो उदयानुसार होंगी, पर अपने आपके ज्ञानप्रकाश की बात तो हमारे ही अधीन है, और उसमें इतना अद्भुत आनंद है कि सदा के लिए संसार के सब संकट टल जाये । यह बात इस धर्मविद्या के प्रताप से ही प्राप्त हो सकती है । तो हम अब अपना पैंतरा बदलें अर्थात् अपने उपयोग को बदलें, अन्यथा वह समय निकट ही है कि जब यहाँ का सब कुछ छोड़कर जाना होगा ।
प्राप्त समय का लाभ उठाने की शीघ्रता का अनुरोध―एक का मित्र बीमार था, वह शाम के समय उस मित्र के घर उस मित्र से मिलने के लिए गया । मित्र से पूछा कि भाई क्या हाल है? तो मित्र ने बताया कि आज तो मित्र ! बिस्तर से उठा जाता नहीं । दूसरे दिन वह फिर दोपहर को गया, और वह मर गया था सुबह हीं । जब वहाँ पूछा तो उसे वह मित्र न दिखा । तो धर के लोगो से पूछा कि आज उन्हें किसी दूसरी जगह लिटा दिया क्या? कहाँ है हमारा वह मित्र? तो घर के लोग बोले-आज तो वह दुनिया से चला गया । तो वह झुंझलाकर कहता है―अरे, दुनिया से चला गया । कल तक तो यूं कहते थे कि बिस्तर से उठा जाता नहीं और आज दुनिया से भी चल देने की ताकत आ गई । तो क्या विश्वास है इस जीवन का? वह तो खैर बीमार था, पर जो बीमार नहीं हैं, वे भी तो चले जा रहे हैं । जो अभी खुश हैं उनके भी मरण का पता नहीं कि किस समय मरण हो जाय? तो भाई यहाँ के समागमों को तरसकर हम क्या लाभ उठायेंगे? इस धर्मविद्या का अभ्यास करना चाहिए और उसमें हीं, अपनी रुचि बढ़ाना चाहिए ।