वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 832
From जैनकोष
लुप्यते विषयव्यालैर्भिद्यते मारमार्गणै:।
रुध्यते वनिताव्याधैर्नर: संगैरभिद्रुत:।।
संगाभिद्रुत पुरुषों की दुर्दशा- जो पुरुष परिग्रह से उपद्रवित हो जाते हैं वे विषय विषरूपी सर्प से सदैव डसे जाते हैं। परिग्रहासक्त पुरुष विषयों से व्यथित रहते हैं और काम के बाणों से चिग जाते हैं। अर्थात् विषय और कषायों में प्रधान बैरी है काम। इसके द्वारा वे सताये जाते हैं। साधु संत जो शील की परमनिर्दोष मूर्ति हैं उनकी इस शीलशालिता होने का कारण क्या है कि वे इन समस्त परिग्रहों के कारण अत्यंत दूर हैं। जो साधन थे, आश्रय था उसे तो त्याग दिया, अब किस आश्रय पर विकारभाव उठे? जब आश्रय नहीं रहा तो विकार होने की भी गुंजाइश नहीं रही। जैसे लोग कहते हैं- न रहे बांस न बजे बांसुरी। जब बांस ही नहीं रहा तो वंशी किसकी बने? ऐसे ही जब परिग्रह का संबंध जिन साधुसंतों ने छोड़ा, एकाकी केवल अपने अंतस्तत्त्व का ही भाव रखने वाले पुरुषों को विषय कषाय कहाँ से पीड़ित कर सकते हैं। जो जिनके परिग्रह का संबंध है उनके विषय भी सताते हैं, कषाय भी सताते हैं और ऐसे परिग्रहासक्त पुरुष को स्त्रीरूपी शिकारी बाँध लेती है। ये समस्त विपत्तियाँ परिग्रह के संबंध से होती हैं। देखिये जीवन में शांति का तो अवसर वह कहलाता है जहाँ धर्म में, ज्ञान में, प्रभुभक्ति में अधिक समय बीते। जिसे थोड़ी बहुत इस धर्म से रुचि है प्रभुभक्ति ज्ञानार्जन आदिक धर्मकार्यों में जिनकी रुचि है वे यदि यह सोच लेते हैं कि थोड़ा सा और उद्यम करके अपनी आजीविका की परिस्थिति और अच्छी बना ली जाय फिर तो बहुत सा समय धर्मपालन में लगायेंगे। ऐसे मनुष्य कुछ थोड़ी बहुत संपदा प्राप्त कर लेते हैं तो उसके बाद उनके फिर तृष्णा बढ़ने लगती है। हजारपति से लखपति हुए, लखपति से करोड़पति हुए, यों परिग्रह बढ़ता जाता है, परिग्रह बढ़ने से शल्य और चिंता भी बढ़ती है। फिर धर्मपालन के लिए उन्हें समय नहीं मिल पाता है। तो यह परिग्रह एक पाश है जाल है। जैसे कोई जाल में से जितना निकलना चाहे उतना ही फंसता जाता है ऐसे ही इस गृहस्थी से कोई निकलना चाहे तो निकलता है, पर ऐसी प्रेरणा बन जाती है कि वह और अधिक फंस जाता है।
किसी ने सोच रखा हों कि हमारे कोई विशेष झंझट नहीं है, इतनी उम्र के बाद सब झंझट त्यागकर बड़ी शांति से अपना समय बितावेंगे, लेकिन कुछ परिग्रह संबंध होने पर फिर वे सब बातें भूल जाती हैं। नई-नई आपत्तियाँ उसके सामने हो जाती हैं। और प्रकट बात है जब अकेले थे तब कोई विपदा नहीं थी, शादी हुई तो उसका एक संबंध जुड़ गया, अब उससे निकलते कैसे बने? कुछ समय बाद बच्चे हो गए तो और विशेष संसर्ग हो गया, फिर तो उसे अवसर ही नहीं मिल पाता है धर्म और शांति के पालन का। तो यह परिग्रह एक जाल है। जैसे कफ में फंसी हुई मक्खी उसमें फँसती ही जाती है, निकल नहीं पाती, फंसी-फंसी अपने प्राण दे देती है इसी प्रकार परिग्रहरूपी कफ में फंसा हुआ यह पुरुष विषयों से, कामव्यथावों से पीड़ित होता है और स्त्री पुत्रादिक परिजन उसे बाँध लेते हैं। लोग कहते भी हैं कि भाई हम तो कुटुंब से बँध गए हैं, अब निकल नहीं पाते हैं। तो इन सब झंझटों का कारण यह परिग्रह है। कितनी ही घटनाएँ तो ऐसी सुनने में आ रही हैं कि डाकुवों ने घर आकर सारा धन लूट लिया और घर के लोगों को जख्मी कर दिया अलग से, और कहीं कहीं तो मार ही डालते हैं। परिग्रह के संबंध से धोखा देकर, अलग बुलाकर, गला घोटकर भी लोग प्राणघात कर डालते हैं। तो इन परिग्रहों का संबंध तो सब अनर्थों का मंदिर है। सभी विडंबनाएँ इसी परिग्रह के कारण हैं, लेकिन परिग्रह संचय बिना जी मानता नहीं है। मोह का ऐसा प्रबल उदय है कि चित्त में वही धुन बनी रहती है। जो इस परिग्रह का त्यागकर अपने आपको नि:संग अनुभव करता है वह पुरुष अपने आपकी रक्षा कर लेता है और जो इन परिग्रहों में ही लीन हो गया वह पुरुष अपने आपको विपत्तियों में डाल देता है।