वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 187
From जैनकोष
णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं।।187।।
ग्रंथनिर्माण में ग्रंथकर्ता का आशय—नियमसार ग्रंथ की यह अंतिम गाथा है। इसमें कुंदकुंदाचार्यदेव ने ग्रंथनिर्माण का अपना आशय बताया है। मैंने यह नियमसार नाम का शास्त्र अपनी आत्मभावना के लिए बनाया है और वह भी पूर्वापर दोष से रहित है जैसा कि जैनेंद्र का उपदेश है। इससे पहिले 185 वीं गाथा में कुंदकुंदाचार्यदेव ने अपनी नम्रता प्रकट करते हुए कहा था कि मैंने नियम और नियम के फल का वर्णन किया है, रत्न व रत्न के फल का वर्णन किया है। यदि इसमें पूर्वापर कोई विरोध हो तो सिद्धांतवेत्ता साधुजन उसकी पूर्ति करें। यह उनका एक अपनी लघुता अपने मुख से दर्शित करने वाला वाक्य है। पूर्वापर दोष न होने पर भी कितनी विनयशीलता का इसमें परिचय दिया गया है। अब इस श्लोक में तो बताया है कि पूर्वापर दोष से रहित है, वह अपनी महत्ता बताने के लिए नहीं बताया है। यहाँ आचार्यदेव ने अपने लिए यह विशेषण नहीं कहा है कि मैंने पूर्वापरदोष से रहित ग्रंथ बनाया है, किंतु जो परंपरा से आगत जिनेंद्र का उपदेश है, वह पूर्वापरदोष से रहित है। नयवाद के योग्य उपयोग से रहित श्रोताओं की दृष्टि में पूर्वापरविरोध की संभावना—पूर्व गाथा से हम आपको यह भाव न लेना चाहिए कि भगवान कुंदकुंदाचार्य के वचनों में पूर्वापर दोष नहीं है, किंतु शब्द स्वयं अपना अर्थ तो बताते नहीं हैं। शब्द तो शब्द ही हैं। उनके अर्थ के जाननहार हम आप सभी हैं। किसी शब्द का कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है अथवा जैनसिद्धांत में नयवादपूर्वक ही व्याख्या होती है। तो नयों की खींचातानी अथवा शब्दों की द्वयर्थता अथवा जाननहार की अल्पबुद्धि आदि कारण से ग्रंथ में पूर्वापर विरोध मालूम हो सकता है और इसी कारण विवाद हो सकता है। इस ही ग्रंथ में तथा समयसार और प्रवचनसार ग्रंथ में भी जगह-जगह ऐसा देखने को मिलेगा जैसे कि अब इस गाथा में यह कह रहे थे, अब इस गाथा में यह कहा गया है अथवा एक ही गाथा में पहिली पंक्ति में यह बताया है, दूसरी पंक्ति में यह बताया है। सुनने में सीधा विरोध-सा मालूम होता है, लेकिन विरोध रंच नहीं है। नयवाद का ठीक ढंग से प्रयोग करने पर, समझने पर सब विरोध मिट जाता है।
पूजा का ही एक प्रकरण ले लो। इस पर ही व्याख्यान दिया जाए, पूजा के गुण बताए जायें—ऐसा भी प्रकरण हो सकता है और ऐसा भी प्रकरण हो सकता है कि देखो यदि आत्मदर्शन की बात बीच-बीच में नहीं आती है तो यह पूजा करना केवल परिश्रम है, ऐसा भी प्रकरण आ सकता है। अब इन दो बातों में से एक बात को लोग अपने-अपने लिए पुष्ट करेंगे। तो इस प्रकार विरोध संभव है, यहाँ तो उनकी लघुता में बतायी गयी बात का अर्थ लेना चाहिए।
योग्य कृति से कृतार्थता का अनुभव—कुंदकुंदाचार्यदेव करीब-करीब 100 अध्यात्मशास्त्रों के कर्ता होंगे। 84 पाहुड़ तो प्रसिद्ध ही हैं। ऐसे परम अध्यात्मशास्त्रों के परिज्ञान और रचना में कुशल कुंदकुंदाचार्यदेव ने जो यह नियमसार नाम का शास्त्र बनाया है, सो उसमें अंत में मानों एक बड़े संतोष के साथ यह अंतिम गाथा बोल रहे हैं। कोई काम प्रारंभ किया जाए और उस कार्य की सफलता मिल जाए, अंत तक उसे निभा लें, प्रारंभ किए हुए सभी कर्मों का यदि अंत तक निभाव होता है तो अपने आपमें कृतार्थता का अनुभव होता है। तीन प्रकार के व्यवहारी—जघन्य श्रेणी के पुरुष विघ्नों के भय से काम का प्रारंभ नहीं करना चाहते। उनके ऐसा संदेह बना रहता है कि इनमें ऐसा विघ्न आए तो क्यों करना? विघ्न के भय से कार्य प्रारंभ न करो। मध्यम श्रेणी के जन कार्य का प्रारंभ करते हैं, विघ्नों का भय भी नहीं करते, किंतु दृढ़ता के साथ अंत तक नहीं निभा पाते और उत्कृष्टजन जिस काम की उनकी धुन हो जाए, जो हितकारी हो, उसको अंत तक निभाते हैं। ग्रंथरचना का मूल लक्ष्य—कुंदकुंदाचार्यदेव ने इस नियमसार नामक श्रुत को प्रारंभ किया और जो उनका व्यक्तव्य था, शुद्ध चैतन्यस्वभाव की दृढ़ दृष्टि करते हुए निश्चयाचार में कुशल बनकर निर्वाण प्राप्त करना बताने जैसा उपदेश था, बताया और उससे संतुष्ट होकर अब अंतिम गाथा में यह कह रहे हैं कि मैंने इस ग्रंथ को आत्मभावना के लिए बनाया है। मर्मपूर्वक ज्ञान किसी कुशल गुरु के प्रसाद बिना नहीं प्राप्त होता है, सो यह भी प्रकट करते जा रहे हैं कि श्री परमगुरु के चरणकमल के, गुरु के प्रसाद से तत्त्व को जानकर यह श्रुत भाषा है। देखिये भैया ! श्रद्धा में यह है कि कलम में कलम है, स्याही में स्याही है, देह में देह की क्रिया है, आत्मा में आत्मभाव की परिणति है, पर निमित्तनैमित्तिक योग का फैलाव तो देखो, सभी वस्तुवों में काम उनमें अपनी-अपनी योग्यता से चल रहा है। एक आत्महितकारी धर्ममार्ग पर चलने की जिसके भी धुन हुई हो, जो काम निर्दोष निच्छल है, उसी काम में जो प्रवीण पुरुष हो, वह वस्तुतत्त्व का जो ज्ञाता है, उस कल्याणपथ पर जो चलना चाह रहे हैं—ऐसे श्रीकुंदकुंददेव कह रहे हैं कि परमगुरुवों के प्रसाद से इस जिनोपदेश तत्त्व को जान करके यह नियमसार श्रुत किया गया है। परमागम की प्रामाणिकता—यह भगवान का उपदेश परमप्रामाणिक है, क्योंकि इसकी परंपरा एक निर्दोष वीतराग स्रोत से निकली है। अरहंत प्रभु सर्वज्ञ हैं और वीतराग हैं, जिनकी मूर्ति पंचकल्याणक समारोह से प्रतिष्ठित करके हम आप उस मूर्ति के समक्ष अपना धार्मिक भाव बढ़ाते हैं। भला बतावो जिसकी मूर्ति बनाकर पूजें, उनके प्रति हमारी कितनी बड़ी आस्था कहलायेगी? जब प्रभु के प्रति भक्ति तीव्र जगती है तो प्रभु की मूर्ति बनाकर हम अपने को भक्ति करके कृतार्थ मानते हैं। भला जब लौकिक कार्यों में भी पिता, दादा, बाबा आदि जो घर-गृहस्थी के सुधार में उपयोगी हुए हैं, उनके गुणों के स्मरण से प्रेरित होकर फोटो, तैलचित्र बनाये बिना नहीं रहते, जो तीन लोक के गुरु हैं, तीन लोक के इंद्रों द्वारा जो वंदनीय हैं—ऐसे प्रभु की भक्ति में यह मूर्ति की परंपरा अनादि से चली आयी है। जिस प्रकार अब का बीता चतुर्थकाल था, उसमें धर्मपरंपरा चल रही थी—ऐसे चतुर्थकाल अनेक बार हो चुके हैं और यह धर्मपरंपरा भी अनादि से है। जैनदर्शन की सर्वव्यापकता—जैनधर्म का दूसरा नाम आप वस्तुधर्म कहें अथवा आत्मधर्म कहें तो वह भी युक्तिसंगत है। जैसे पदार्थ अनादि काल से है, वैसे ही पदार्थों का स्वभाव अर्थात् धर्म भी अनादि काल से हैं। आत्मा अनादिकाल से है तो आत्मा का स्वभाव अर्थात् धर्म भी अनादिकाल से है। उस धर्म की दृष्टि करना, रुचि करना, धर्मरूप अपना परिणमन करना यही धर्म है और इसी को जिनेंद्रदेव ने प्रतिपादित किया है, इसी कारण इस उपदेश का नाम, इस शासन का नाम जैनधर्म हो गया है। जो वस्तु में बात हो, उसको बताना, यह जैनशासन का प्रण है। इसी कारण जैनशासन में पूर्वापर कहीं विरोध नहीं आता। हम अपनी कल्पना से कोई नियम बनाएँ, कोई वस्तु की चर्चा करें और उसमें उसके अनुसार बाहर में व्यवस्थाएँ बनाएँ तो अनेक बार पूर्वापर विरोध आएगा। जैनदर्शन का वस्तुगततत्त्व के निरूपण का प्रण—जैसे जनता की निर्विघ्नता के लिए जो योग्य वृत्ति चलती है और चलना चाहिए, उसे देखकर जो कानून बनाया जाता है, वह कानून तो निर्विरोध सफल होता है और अपनी स्वच्छंदता से कानून बनाएँ जाएँ, जनता में ठीक बैठें या न बैठें, देश के अनुकूल न्याय हो अथवा न हो, ऐसा कानून बनाकर पालन कराया जाए तो वह मुश्किल हो जाता है। जो पदार्थ में धर्म, शील, स्वभाव हो, उसी को जैनधर्म बताता है; आत्मा में, परमात्मा में जो गुण और परिणमन है, उसको बताता है यह जैनशासन; तथा अपनी भलाई के लिए हमें किस गुण और परिणमन की रुचि करनी चाहिए इसे बताता है जैनशासन, इस कारण इस जिनेंद्र उपदेश में पूर्व अथवा ऊपर में कहीं भी दोष नहीं पाया जाता। बच्चों को पढ़ाई जाने वाली बालबोध जैसी छोटी किताब और बड़े धुरंदर विद्वानों की चर्चा में आने वाले बहुत बड़े शास्त्र उनमें भी कहीं परस्पर विरोध नहीं है। यह सब नय की कुशलता का परिणाम है। धर्मपरिज्ञान में जैनी पद्धति की उपयोगिता—भैया ! कहीं भी कुछ ऐसा जँचे कि समयसार ग्रंथ में तो यों लिखा है कि एक चैतन्यस्वभाव ही जीव है त्रस और स्थावर, एकेंद्रिय आदिक बादर, सूक्ष्म आदिक ये सब जीव नहीं हैं और बालबोध में तो यह पढ़ा है कि जो चले-फिरे, उठे-बैठे वह जीव है, जो खाये पिये वह जीव है और समयसार में यह लिखा है कि यह जीव नहीं है, एक चैतन्यस्वभावी जीव है। तो यह विरोध हुआ ना? विरोध नहीं है, नयवाद का उचित प्रयोग करें। व्यवहारदृष्टि से ये सब जीव हैं तो खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-बढ़ते हैं। निश्चयदृष्टि से जीव वह है जो शाश्वत रहा करे, ये तो परिणमन मिट जाते हैं, ये परिणमन जीव नहीं हैं। बालकजन अथवा धर्म की जानकारी में प्रथम प्रवेश करने वाले जन इस ही पहिली पदवी में हैं कि उन्हें व्यवहारदृष्टि के कथन द्वारा समझाया जाए। बाद में कुछ प्रवीणता होने पर परमार्थदृष्टि से समझाया जाए। फिर वे व्यवहार परमार्थ दोनों का अपने-अपने स्थान में उपयोग की श्रद्धा कराकर दोनों पक्षों को छोड़कर एक शुद्ध निर्विकल्प समाधिभाव में लगें, वह है जैनी पद्धति की उपयोगिता।
आप्तवचन की निर्दोषता—यह जिनेंद्र-उपदेश भगवान आप्त के मुख से निकला हुआ है अर्थात् प्रभु की दिव्यध्वनि से चला हुआ है। आप्त का हिंदी में अर्थ है पहुँचे हुए और संस्कृत में अर्थ है आप्त। किसी मनुष्य की प्रशंसा करनी हो तो साहब यह तो बहुत पहुंचे हुए पुरुष हैं अर्थात् बड़े ज्ञानी हैं और उपकार के क्षेत्र में भी यह साहब उलझनों से रहित सुलझे हुए दिमाग के हैं, यह अर्थ पहुँचे हुए का लोग समझते हैं। ये अरहंत भगवान तो सर्वोंत्कृष्ट पहुंचे हुए हैं, वीतराग होने से इनके कोई उलझन नहीं रही और सर्वज्ञ होने से कोई अयथार्थ वचनों का संदेह नहीं, पूर्वापर दोष तो वहाँ हो जाता है जहाँ मोह, रागद्वेष वर्त रहा हो जिससे कभी कुछ कह दें, कभी कुछ कह दें। इस कारण जिनके ज्ञान की निर्मलता न बनी हो उनके ही संभव है कि पूर्वापर दोष आ जाय। पर प्रभु वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं अतएव उनकी जो वाणी है, दिव्यध्वनि है और उसकी परंपरा से चला आया हुआ आगम आज भी जो हम पढ़ा करते हैं वह सब निर्दोष है।
जैनदर्शन में विपरीत कथन का अटिकाव—यद्यपि दुर्भाग्य से अनेक पुरुषों ने इस निर्दोष शासन में भी अपने मन से मनगढंत बातें लिख दी हैं लेकिन जैसे असली रत्न में नकली रत्न छुपते नहीं हैं, प्रकट हो जाते हैं ऐसे ही थोड़ा भी विवेक बनायें तो उसमें भी यह प्रकट हो जायेगा कि इस पुस्तक में इतनी बात रागद्वेषवश लिखी है और यह बात शुद्ध है। कदाचित यह शंका की जा सकती है कि न जान सकें हम इतना तो? न सही, मगर नकली चीज की परंपरा न चल सकेगी। कहीं पर अगर रागद्वेष बढ़ाने का कथन हो तो उसकी परंपरा नहीं चल सकती। जो वीतरागता को पुष्ट करने वाला कथन है, जो भगवान आप्त द्वारा कथित कथन है उसकी परंपरा चलती है। एक तो यही पहिचान है। दूसरी पहिचान यह है कि जो स्याद्वाद की मुद्रा से मुद्रित वचन हो, जिन वचनों पर स्याद्वाद की छाप लगी तो वे प्रभु की परंपरा के वचन है, और जिनमें स्याद्वाद की छाप न हो वे अमान्य वचन हैं। आत्मभावना—कुंदकुंददेव ने इस नियमसार शास्त्र में क्या कहा है, उस सबका वर्णन अभी संक्षेप में थोड़ा सा किया जायेगा, जिसमें एक बार उसका आलोड़न करने से गत समस्त प्रतिपादन सामने आ जायें। यहाँ तो कुंदकुंदाचार्यदेव अपने कार्यसिद्धि की प्रसन्नता में संतोष की श्वास के साथ यह बता रहे हैं कि मैंने यह ग्रंथ आत्मभावना के निमित्त किया है, जो बात कही जा रही हो उसके साथ अपने भाव चलते हैं, जो आत्मा के आंतरिक मर्म की बात कही जायेगी उसमें अपना उपयोग बहुत विशुद्ध बनाए बिना यह काम न हो सकेगा। जैसे कि आत्मा के आंतरिक गुणों की बात जब हम सुनने बैठते हैं तो कितना विशुद्ध उपयोग बनाना पड़ता है, फिर जो प्रतिपादन करे उसे तो विशुद्ध बनाना ही होता है। और उसमें यह भावना उस समय नियम से रहती है कि मैं आत्मा की भावना चिरकाल तक बनाये रहूँ। केवल आत्मकल्याण की धुन और आत्मभावना वहाँ रहती है। नियमसार नामक शास्त्र का नाम लेकर शास्त्र का उपसंहार इस अंतिम गाथा में किया गया है। अब यह शास्त्र कैसा है और इस शास्त्र को किस विधि से हमें समझना चाहिए और इस शास्त्र के परिज्ञान से हम क्या लाभ पायेंगे, इन तीन बातों का वर्णन आगे आयेगा।
प्रायोजनिक तत्त्व के प्रतिपादन की विशेषता—नियमसार ग्रंथ में नियम का और नियम के फल का वर्णन किया है, आत्मा का वास्तविक नियम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप परिणमन करना है। और इस नियम का फल है, बाधावों से रहित शाश्वत, आनंदमय निर्वाण को प्राप्त करना। ऐसे नियम और नियमफल का वर्णन करने वाला यह ग्रंथ समस्त आगमों के अर्थसमूह का प्रतिपादन करने में समर्थ है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल 6 जाति के द्रव्यों का भी इसमें प्रसंग पा-पाकर वर्णन किया गया है। विशुद्ध मोक्षमार्ग का अर्थात् नियम का इसमें विशेषतया प्रतिपादन है। जब तक यह जीव वस्तु की स्वतंत्रता न ज्ञात कर ले, प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपमात्र है इतना जब तक श्रद्धान में न आये तब तक इसको कल्याण का मार्ग शुरू भी नहीं होता है। इसके लिए पंच अस्तिकायों का और काल सहित छहों द्रव्यों का ज्ञान होना चाहिए, उसका वर्णन इस ग्रंथ में है। आंतरिक और व्यवहार आचारों के वर्णन की विशेषता—जीव ज्ञान, आनंद आदिक अपने ही गुणों में तन्मय है। इस जीव का काम जीव से बाहर कुछ करने का नहीं है। कल्पनाएँ भले ही कोई करता जाय कि मैं अमुक काम करता हूँ, किंतु यह आत्मा अपने गुणों के परिणमन के सिवाय अन्य कुछ नहीं करता। यह बात दृष्टि में आ जाय तो अभी अनेक दु:खों के बोझ दूर हो जायेंगे? यह ही अपनी स्वच्छंदता बनाकर स्वयं दु:ख का बोझ बढ़ा रहा है। स्वयं कैसा है, इसका भान हो तो संकट इस पर नहीं मँडरा सकते। इस ग्रंथ में इस शुद्ध आत्मा की उपलब्धि का कारण बताते हुए, उपाय कहते हुए 5 आचारों का विशेष वर्णन है, जिनका पालन करके यह आत्मा शुद्ध, सर्वज्ञ वीतराग बन जाता है। वे 5 आचार हैं—दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। ये आचार आत्मा में हैं। लोकव्यवहार में जिसे लोक सदाचार कहते हैं उसका संबंध मनुष्यों से है, यद्यपि उन आचरणों में भी आत्मा से संबंध है, पर उसका प्रधान संबंध मनुष्य पर्याय से है और इन आचरणों का संबंध आत्मा से है।
मूलानुभव का प्रतिपादन व ज्ञानी की नि:शंकता व निर्वांछता—इन 6 द्रव्य, 7 तत्त्व, 9 पदार्थों का सही परिज्ञान करके, बाह्य की उपेक्षा करके अपने आपको ज्ञानानंदस्वरूप अनुभव किया जाय तो इस परम विश्राम में जो शुद्ध निराकुलता का अनुभव होता है वह है आत्मानुभव। इस आत्मानुभव से सम्यक्त्व प्रकट होता है। उस सम्यक्त्व को प्राप्त करने के उपाय में अथवा उस सम्यक्त्व की स्थिति में 8 अंगों का पालन किया जाता है। सम्यग्दृष्टि पुरुष नि:शंक होता है, उसे कभी किसी बात का शोक नहीं होता है, वह तो जानता है कि मेरे स्वरूप में दु:खों का प्रवेश ही नहीं है। जहाँ यह दृष्टि बनी है कि मेरे धन आदि बढ़ें, संकट तो वहाँ ही अनुभव में आते हैं। और जहाँ इतना विशुद्ध ज्ञान हुआ कि मैं तो स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, स्वरक्षित हूँ, अब पर्याय की जो बात बीतनी होगी बीत जायेगी, यदि ज्ञानबल बना हुआ है तो दु:खों का कहीं काम नहीं है। सम्यग्दृष्टि पुरुष विषयों के साधनों का निदान नहीं बाँधता, धर्म करके विषयों की वांछाएँ नहीं करता। उनका धर्मकार्य भी शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए होता है। यदि यह उद्देश्य नहीं है तो शांति का मार्ग न मिल सकेगा। मुझे तो समस्त कर्मबंधों से छूटना है ऐसा हमारा उद्देश्य होना चाहिए। इतना होने पर भी हमारा उद्देश्य केवल यही है कि मैं आत्मा अकेला जिस स्वरूप में हूँ तैसा ही बनकर रहूँ, मेरा एक यही उद्देश्य है, श्रम कुछ हो, पर उद्देश्य एक ही है। निर्विचिकित्सादि अंगों की भावना—सम्यग्दृष्टि पुरुष बाह्य पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा जानते हैं। वे तो परभावों में राग, द्वेष, क्षुधा, तृषा, वेदना आदिक में भी ज्ञाताद्रष्टा रहते हैं, वे उनमें आसक्त नहीं होते। वे दर्शनाचार के अंग कहे जा रहे हैं। ये कभी भी मिथ्यादृष्टियों के कुछ चमत्कारों को निरखकर उनकी ओर झुकते नहीं है। इन्हें दृढ़ श्रद्धान है कि मेरे आत्मा का आनंद मुझमें ही है। मेरा सर्वस्व अपने में अपने आपके लिए है। सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म के अपवाद को नहीं सह सकते। धर्म का दोष जगत में जाहिर नहीं कर सकते। धर्म में दोष नहीं होता, किंतु कोई अज्ञानी किसी प्रकार चूक जाय और वेष में चल रहा हो तो सम्यग्दृष्टि पुरुष उसके दोष दूर करेंगे, जहाँ तक हो सकेगा उसकी असमर्थता को वे दूर करेंगे। धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि पुरुष दूसरे धमात्मावों को देखकर प्रेम से हर्षविभोर हो जाते हैं और उस पर कोई आपत्ति आए तो उसके वे सहायक बनते हैं। जिस प्रकार भी अपने आचरण से धर्म में प्रभावना हो सकती है प्रभावना करते हैं, ऐसे दर्शनाचार के 8 अंगों का पालन करते हुए भी ये ज्ञानी पुरुष उन बाह्य प्रवृत्तियों से उपेक्षित रहते हैं और शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपने को अनुभवने में ही प्रयत्नशील रहते हैं। ज्ञानाचारादिकों का प्रतिपादन—ऐसे ही ज्ञान के अनेक आचार हैं। ज्ञान की बहुत-बहुत विधियाँ मिला करके भी ध्यान यह रहता है कि एक शुद्ध ज्ञान का ही अनुभवन करते रहें। चारित्रपालन करते हुए भी याने बाह्य में अनेक चारित्र प्रवृत्तियाँ पालन कर रहे हैं, पर ध्यान इस ओर है कि मैं केवल जाननहार ही रहूँ। उपवास आदिक अनेक व्रत करके भी मुझे अपने चैतन्यस्वरूप में ही मग्न होकर तपना है, इस परमार्थ तत्त्व को भूलते नहीं है और जो भी वर्तमान में सामर्थ्य मिली है, इसका उपयोग अपने आत्मा की उन्नति में ही करते हैं। ऐसे 5 आचारों का इस ग्रंथ में वर्णन किया है। तत्त्वनिर्णय—जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये 7 तत्त्व तो मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत हैं। मैं जीव हूँ, मेरे साथ जो उपाधिकर्म लगे हैं वे अजीव हैं। मैं जब बिगड़ता हूँ, विकार करता हूँ तो ये कर्मबंधन आते हैं और कर्म बँधते हैं। जब मैं अपने आपको संभालता हूँ, भेदविज्ञान करता हूँ, अपने निकट पहुंचता हूँ, तो कर्म आने रुक जाते हैं, कर्मप्रकृतियाँ सब झड़ जाती हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुष अति निकट काल में ही समस्त कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे 7 तत्त्वों का और उसमें भी परमार्थ पद्धति से अपने आपमें इन 7 तत्त्वों का उन्हें यथार्थ निर्णय रहता है। पंच भावों का वर्णन—भैया ! यहाँ इस जीव का क्या है? धन तो इसका है नहीं, वह तो प्रकट भिन्न है। देह है क्या इस जीव का? अरे ! यह देह भी इस जीव का नहीं है। फिर इस जीव का तत्त्व क्या है, इसका वर्णन 5 भागों में बताया गया है। कर्मों के उदय से जो जीव में भाव उत्पन्न होते हैं वे औदयिक भाव हैं, वे मेरे परमार्थभूत नहीं हैं। रागद्वेष, मोह आदिक भाव ये मेरे स्वरूप नहीं है, ये तो मेरी बरबादी के लिए होते हैं। जैसे पलास के पेड़ में लाख लग जाय तो वह लाख यद्यपि बाहर से आयी हुई चीज नहीं है, पेड़ में से ही निकली हुई चीज है, किंतु वह लाख उस पेड़ को बरबाद करके रहती है, ऐसे ही ये रागद्वेष, मोह कहीं पुद्गल की चीज नहीं हैं, ये मेरे ही प्रदेशों में से निकल कर आये हैं, उपाधि पाकर, किंतु ये मुझे बरबाद करने के लिए आये हैं आनंद देने के लिए नहीं। ये औदयिक भाव मेरे परमार्थ स्वरूप नहीं हैं। औदयिक भाव थोड़े समय को उत्पन्न होते हैं, फिर क्षय को प्राप्त होते हैं। ये औदयिक भाव भी मेरे स्वरूप नहीं है। कर्मों के उपशम से जो निर्मलता प्रकट होती है, वह अध्रुव होने से मेरा स्वरूप नहीं है। कर्मों के क्षय से जो निर्मलता प्रकट होती है वह निर्मलता यद्यपि मेरी ही है लेकिन क्षय से प्रकट होती है इस नाते से मेरी नहीं है। कर्मों के कुछ दबाने से कुछ विनाश से, कुछ उदय आने से जो एक गंदला परिणाम होता है ऐसी भी वृत्ति मेरी नहीं है। मैं तो साफ, स्वच्छ परमपारिणामिक भाव स्वरूप हूँ। यों 5 भावों का इस ग्रंथ में वर्णन किया है। प्रतिक्रमणादिकों का वर्णन—संसार में रहते हुए हम आप सबके अनादि से दोष लगे आ रहे हैं, उन दोषों को दूर करने का उपाय निश्चय से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना, नियम उत्सर्ग ये अंत: कार्य हैं। मैं केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, मेरे स्वभाव में दोष नहीं है। यों शुद्ध दृष्टि करके अपने निर्दोष सहज स्वरूप का अवलोकन करना सो प्रतिक्रमण है। यों अपने ज्ञानस्वरूप को निरखकर यह साहस करो कि मेरे में दोष आने का अवसर ही न रहे। मैं निर्दोष रहूँ। मैं अपना निर्दोष उपयोग रक्खूँगा और वर्तमान में इस अपने सहजस्वरूप की भावना से अपने आपको प्रसन्न रखने का यत्न करूँगा। ये सब उपाय हैं अपने आत्मा को समर्थ बनाने के लिए। तात्पर्य—परमार्थभूत जो पदार्थ हैं उनका यथार्थ निरूपण करने वाले इस भागवत उपदेश के दो तात्पर्य देखने हैं—एक सूत्रतात्पर्य दूसरा शास्त्रतात्पर्य। सूत्रतात्पर्य तो जब जो गाथासूत्र कहा गया है उस ही समय वहाँ बता दिया गया है। शास्त्रतात्पर्य यह है कि इस शास्त्रोपदेश को जो स्याद्वाद से जाने उसको शाश्वत शुद्ध जो निर्वाण है उस निर्वाण की प्राप्ति होगी। ये शास्त्र भगवान जिनेंद्रदेव की परंपरा से चले आये हैं, इनका नाम है भागवत शास्त्र। भगवान जिनेंद्रदेव की परंपरा से जो चला आया है उसका नाम भागवत है। जैसे जो जिनके द्वारा कहा गया है वह जैन है ऐसे ही जो भगवान की परंपरा से आगत है उसे भागवत कहते हैं। जो मुक्ति के परमआनंद को करने वाले हैं और जो निरंजन निज कारण परमात्मा है उसके भावने का उपाय दिखाने वाला यह नियमसार ग्रंथ है। कुंदकुंदाचार्यदेव ने 84 पाहुड़ रचे हैं और उनमें भी आज प्रसिद्ध मुख्य ग्रंथ हैं समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय आदि। इनमें जो निजकारण परमात्मा है उसकी उपासना की बात कही गई है। भैया ! जगत् में कोई परपदार्थ ऐसा नहीं है जिसकी शरण में हम पहुँचें और हमें शांति रहे। खूब अनुभव से सोच लो। स्त्री, पुत्र, वैभव, कुटुंब कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है कि जिसकी शरण गहें तो शांति मिले। परसंपर्क से एक न एक उपद्रव इस आत्मा में जगते रहते हैं एक परमात्मतत्त्व का आश्रय ही शरण है। परमात्मतत्त्व का परमार्थ शरण—इस ग्रंथ में समस्त नयवादों का उचित उपयोग किया गया है। इससे इसके अनुशासन में कहीं भी धोखा का संदेश नहीं है। इसका जो अध्ययन करता है उसके ज्ञानभावना जगती है, समता परिणाम उत्पन्न होता है, रागद्वेष, मोह हटते हैं और वह निर्वाण का पात्र होता है। समस्त धार्मिक प्रसंगों में रागद्वेष, मोह को दूर करने का प्रयत्न करो। किसी प्रकार का राग अथवा द्वेष रखकर अपने को पापबंध में मत बांधो। समस्त अध्यात्मशास्त्रों के हृदय को जानने वाला, वीतराग सुख की अभिलाषा रखने वाला जो पद है उस पद में निर्ग्रंथ होकर इस ज्ञानमय आत्मस्वरूप की भावना रक्खेंगे तो नियम से निर्वाण प्राप्त होगा। जब यहाँ भी हम आप कुछ कार्य किया करते हैं तो करने का बड़ा फल मिलता है ना, यदि हम परमार्थभूत आत्मस्वरूप की भावना का कार्य निरंतर बनाये रहें तो निर्वाण न प्राप्त हो, यह कैसे हो सकता है? अपना लक्ष्य केवल एक ही रखना है। मुझे मुक्ति प्राप्त करना है। जैसे स्वतंत्रता के आंदोलन में एक उनका नारा था—‘चलो आगे बढ़े चलो, दिल्ली चलो’, ऐसे ही नारा लगावो मुक्ति के लिए चलो। व्यवहार में पचासों बातें आयेंगी। रागद्वेष की जहाँ कुछ घटनाएँ आयें, उनमें उपयोग न दो और एक अपने निर्वाण मार्ग की प्राप्ति की धुन बनावो। जो पुरुष इस प्रकार निरावरण निज परमात्मतत्त्व की श्रद्धा रखता है, ज्ञान करता है, आचरण करता है, जो अपने हितरूप में स्थिर रहता है वह अवश्य निर्वाण का फल पायेगा। शब्दब्रह्म—ब्रह्म को भैया ! तीन पद्धतियों में देखो—ज्ञानब्रह्म, अर्थब्रह्म व शब्दब्रह्म। ज्ञानब्रह्म, ज्ञानस्वरूप अथवा ब्रह्म के संबंध में जो हमने ज्ञान किया है वह समस्त अनुभवन ज्ञानब्रह्म है और जो त्रिकाल निरुपाधि निरंजन ज्ञायकस्वरूप है वह अर्थब्रह्म है। इस अर्थब्रह्म के परिचय के लिये जो शब्द रचे गये हैं वह है शब्दब्रह्म। बड़े सुंदर शब्दों में यह शास्त्र बनाया गया है। जो अपने आत्मा का विशुद्ध कल्याण चाहते हों तो साहस धारणकर इसका मर्म जानेंगे उनको, अवश्य निर्वाण प्राप्त होगा। लघुताप्रदर्शन—इस शास्त्र में यदि कोई पूर्वापर दोष हुआ हो तो आचार्यजन, सिद्धांतवेत्ता विद्वान् उसे शुद्ध करें, ऐसा कहते हुए आचार्य का मार्दव धर्म व्यक्त हो रहा है। यहाँ तो चाहे अपने ही ज्ञान में आ जाय मैंने जो कुछ चर्चा की है, परंतु मोहमत्त जन इसे गलत स्वीकार नहीं कर सकते हैं और यहाँ ऐसे धुरंधर विद्वान् आचार्य कुंदकुंदाचार्यदेव अंत में अपनी लघुता ही प्रकट कर रहे हैं। अंतिम शिक्षण—ग्रंथ की समाप्ति के प्रसंग में एक यह भावना भावो कि जो समस्त कर्मकलंकों से मुक्त है, शुद्ध भगवंत है, वह मेरे हृदयकमल में सदा विराजा रहे और मेरा जो शुद्ध आत्मस्वरूप है, ज्ञानानंदस्वभाव है, यद्यपि इस मुझमें परद्रव्यों के संबंध के कारण कलंक आया है तो भी उस कलंक से रहित है, उसको और अपने आपके ही अस्तित्त्व के कारण जो मुझमें स्वरसत: है ज्ञान और आनंद भाव है उसको अपने अनुभव में लेते रहो। मैं अमुक नाम का हूँ, अमुक परिवार का हूँ, अमुक गाँव का हूँ, अमुक जाति का हूँ, इस प्रकार से अपने आपको अनुभव में न लें। इस प्रकार से अपने को अनुभव करने में क्लेश ही आयेगा। अपना ध्येय शरीर से रहित होने की स्थिति पाने का रखें और इस स्थिति के पाने के उद्यम में शरीररहित शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की भावना करें। यह पुरुषार्थ सब नियमों का मूल नियामक है। कारणसमयसार का जयवाद—हे कारणसमयसार ! तुम प्रति व्यक्ति सदा जयवंत प्रवर्तो। तुम्हारे आश्रय से यह कार्यपरमात्मतत्त्व प्रकट होता है, जहाँ अनंत ज्ञान-दर्शन आनंद व वीर्य का विकास है। हे आनंदघन ! तुम्हारा स्वच्छ यश:प्रसार निर्बाध प्रवर्तो। तुम्हारी दृष्टि के प्रताप से एक भी संकट स्थान नहीं पाता। हे ज्ञानस्वरूप शुद्ध अंतस्तत्त्व ! तुम उपयोग में सदा विराजो। तुम्हारे उपयोग के प्रसाद से यह आत्मलोक अलौकिक प्रकाश पाकर सहज आनंद से सुरभित हो जाता है। हे सच्चिदानंदस्वरूप कारणपरमब्रह्म ! तेरी भक्ति की धुन में ऐसा आंतरिक साहस जगे जिससे समस्त परद्रव्यों का विकल्प छोड़कर निर्विकल्प होकर तेरी अभिन्न उपासना कर लूँ। हे प्रवचन के वक्तव्य के सारभूत, आत्मनियमन के सार आश्रयभूत समयसार परमब्रह्म ! तुम अंतर्दृष्टि में सदा समक्ष रहो। ॐ शांति:।
नियमसार प्रवचन ग्यारहवाँ भाग समाप्त