वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-13
From जैनकोष
धर्माधर्मयो कृत्स्ने ।। 5-13 ।।
धर्म व अधर्म द्रव्य का समस्त लोकाकाश में अवगाह―सूत्र का शब्दार्थ तो इतना ही है कि धर्म और अधर्म द्रव्य का समस्त में । अब इस सूत्र में पूर्व सूत्र से दोनों पदों की अनुवृत्ति ग्रहण की जा रही है । जिससे अर्थ हुआ कि धर्म और अधर्म द्रव्य का समस्त लोकाकाश में अवगाही है । यहाँ धर्म और अधर्मद्रव्य का लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में अवगाह बताया गया है । इनका लोक के एकदेश में अवगाह नहीं है । ये धर्म और अधर्मद्रव्य समस्त लोकाकाश में अवगाही है, यह अनुमान प्रमाण से सिद्ध करते हैं । धर्म और अधर्मद्रव्य संपूर्ण लोकाकाश में अवगाही हैं क्योंकि गमन कर रहे और ठहर रहे, समस्त पदार्थों का उपकार किया जा रहा होने से । समस्त लोकाकाश में गमन कर रहे पदार्थ का उपकार धर्मद्रव्य से हो रहा और ठहर रहे पदार्थ का ठहरा देना यह उपकार अधर्मद्रव्य से हो रहा, इस हेतु से यह सिद्ध होता है कि दोनों द्रव्य लोकाकाश में ठसाठस रूप से अवगाह करने वाले हैं । तीनों लोक के जितने भी पदार्थ हैं उन सभी गति परिणाम वाले और स्थिति परिणाम वाले का जो गति और स्थिति में निमित्त रूप उपकार है, यदि धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य लोक में एकदेशवर्ती द्रव्य होते तो न हो सकता था, क्योंकि एकदेशवर्ती होकर धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य यदि जीव पुद्गल के गमन करने और ठहरने में निमित्त हो जायें तब तो इनका गमन और ठहरना अलोकाकाश में भी होना पड़ेगा । सो युक्ति संगत नहीं है । इस कारण लोकाकाश में ही समस्त द्रव्य हैं और जीव पुद्गल का गमन और ठहरना लोकाकाश में ही है, यह बात तब ही सिद्ध हो सकती है जबकि लोकाकाश में धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य सर्व देशों में व्यापी हो । यहाँ कृत्स्न शब्द देने से यह समझना कि धर्म और अधर्म द्रव्य का लोकाकाश में ऐसा अवगाह है जैसे कि तैल का तिलों में होता है । तेल तिलों के किसी एक जगह में नहीं रहते । वे सर्व देशों में व्याप्त हैं, ऐसे ही धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य समग्र लोकाकाश में, व्याप्त है । ऐसा नहीं है कि जैसे घर के एकदेश में कलश आदिक का अवस्थान होता हो । यहाँ यह शंका न रखना चाहिये कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य और आकाश भी वहीं के वहीं ठहर रहे हैं । इनका परस्पर में विरोध क्यों नहीं । जहाँ एक ठहरा है वहाँ दूसरे का प्रवेश न होना चाहिये । यह शंका इस कारण से संगत नहीं है कि ये द्रव्य अमूर्तिक हैं । अमूर्त द्रव्य का परस्पर प्रवेश में विरोध नहीं होता । विरोध तो मूर्तिक स्थूल द्रव्यों का हो सकता है, किंतु जो अमूर्त द्रव्य है उसमें विरोध का प्रसंग ही नहीं है अथवा ऐसा द्रव्य का अवस्थान अनादि काल से भी चला आ रहा है। वहां विरोध का कोई अवकाश नहीं, इस प्रकार लोकाकाश में अमूर्त हो रहे धर्म, अधर्म द्रव्यों का अवगाह बताया । अब जो मूर्तिमान है अर्थात् पुद्गल द्रव्य है उनके अवगाह का ज्ञान कराने के लिये सूत्र कह रहे हैं ।