वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 9-10
From जैनकोष
जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं ।
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।।9।। जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।।10।।
471-परमार्थ प्रतिपादक व्यवहार का दृष्टांत—जो श्रुतज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञेयाकारमय आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है ऐसा निश्चय से जाना जाता है । जो समस्त श्रुतकेवली है यह व्यवहारनय से जाना जाता है । नय दो प्रकार का होता है:—1-परमार्थ नय जो वास्तविक बात को कहता है, और 2-व्यवहारनय जो पारमार्थिक नय के विषय को भेदरूप करके समझाता है । जो सर्व श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को जानता है, वह निश्चयनय से श्रुत केवली है । वास्तव में पर पदार्थ को आत्मा नहीं जानता है । आत्मा आत्मा से आत्मा को स्वयं जानता है । जितने भी द्रव्य हैं, वे सब अपने ही क्षेत्र में परिणमन करते हैं । द्रव्य का द्रव्य में ही परिणमन होता है, उससे बाहर नहीं । जैसे फूल में से सुगंध आती है; तो वहाँ वास्तव में हुआ क्या? फूल के पास के स्कंध फूल को निमित्त पाकर सुगंधित हो जाते हैं उनके पास के स्कंध उनके निमित्त से समीप के स्कंधों की सुगंध हमें आती है । मालुम ऐसा पड़ता है, जैसे फूल में से ही सीधी सुगंध हमारे पास आ रही हो । आत्मा आत्मा को ही जानता है, आत्मा से भिन्न पर पदार्थों को आत्मा नहीं जानता है प्रत्येक जीव अपने आपको ही जान सकता है, पर पदार्थों को जाना ही नहीं जा सकता । आत्मा का काम आत्मा के प्रदेशों के अंदर ही होता है, अपने प्रदेशों से बाहर आत्मा का काम नहीं होता है । आत्मा के गुणों का फल आत्म प्रदेशों में ही बनेगा, आत्म प्रदेशों से बाहर नहीं । इसी प्रकार आत्मा के ज्ञान गुण ने जो जाना वह आत्मा के प्रदेशों के अंदर ही जाना, आत्मा के प्रदेशों के बाहर वह नहीं जान सकता । जैसे दर्पण में सामने के सभी पदार्थ समझ में आते हैं । हम दर्पण को देख रहे हैं, लेकिन उसमें प्रतिबिंबित पदार्थ समझ में आते हैं । इसी प्रकार हम आत्मा को जानते हैं । जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं, उसको हम इस प्रकार कहेंगे इन पदार्थों के आकार रूप जानने वाले आत्मा को हमने जाना । व्यवहार से कहते हैं हम अमुक को जानते हैं परमार्थ से हम आत्मा को ही जानते हैं । आत्मा की समझ इतनी विशाल है कि वह सब पदार्थों को जान जाता है । यह व्यवहार भाषा है । व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । जैसे हम कहते हैं कि हमने घड़ी जानी तो इसे परमार्थ भाषा में इस प्रकार कहेंगे:—हमने घड़ी के आकार रूप जानने वाले आत्मा को जाना । 472-श्रुतकेवली का निश्चय और व्यवहार से निरूपण—जो समस्त श्रुत द्वादशांग को जाने उसे श्रुतकेवली कहते हैं । श्रुतकेवली वास्तव में बाह्य श्रुत को नहीं जानता है, वह द्वादशांग रूप जानने वाले आत्मा को ही जानता है । एक ही व्यक्ति में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों घटाये जा रहे हैं । वास्तविक बात को लोगों को समझाने के लिये व्यवहार भाषा का प्रयोग किया जाता है । प्रत्येक पदार्थ को समझने की ये ही दो दृष्टियां हैं । 1. निश्चय दृष्टि 2. और व्यवहार दृष्टि । वास्तव में आत्मा आत्मा को ही जानता है, किस रूप आत्मा को आत्मा जानता है, यह समझाने के लिये व्यवहार भाषा का प्रयोग किया जाता है । क्योंकि यह नियम है कि द्रव्य का परिणमन निज क्षेत्र में ही होता है, बाहर नहीं । आत्मा का क्षेत्र दो प्रकार से देखा जाता है । 1. सामान्य क्षेत्र जो अखंड प्रदेश की अपेक्षा से देखा जाये उसे सामान्य क्षेत्र कहते हैं । 2. अशुद्धदृष्टि से देखा गया क्षेत्र विशेष क्षेत्र कहलाता है । आत्मा अखंड प्रदेशी है, इस दृष्टि से देखो तो आत्मा सामान्य क्षेत्र की दृष्टि से है, विशेष क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं है । असंख्यात प्रदेश की दृष्टि से देखो तो यह क्षेत्र विशेष दृष्टि से है सामान्य क्षेत्र की दृष्टि से नहीं । यह एक ही आत्मा अखंड प्रदेश की अपेक्षा से है और असंख्यात प्रदेश की अपेक्षा से नहीं है । तो जब असंख्यात प्रदेश की अपेक्षा से है तो अखंड प्रदेश की अपेक्षा से नहीं है । इस तरह जाना गया आत्मक्षेत्र है । वास्तव में आत्मा आत्मा को ही जानता है, बाहर के परमाणुओं को किसी को नहीं जानता है । जैसे दर्पण को देखते हुए हम दर्पण के सामने पड़ने वाले समस्त पदार्थों को जान सकते हैं, उसी प्रकार आत्मा को जानने से दुनिया के समस्त पदार्थों को जान सकते हैं । व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । अर्थात् निश्चयनय से जो बात जानी जाये, उसे समझाने के लिये व्यवहार की भाषा का प्रयोग किया जाता है । वस्तुत: आत्मा एक अखंड सत् है । उसे समझाने के लिये नाना दृष्टियाँ सोचकर नाना प्रकार से देखना होता है । जिस आत्मा का परिणमन आत्मा करता है वह आत्मतत्त्व कैसा है एतदर्थ अभी आप इन चार युगलों पर ध्यान दीजिये जो कि अभी कहे जावेंगे । यहाँ तो अभी इतना निर्णय रखिये कि जिस महात्मा का इतना विशाल क्षयोपशम है कि सर्व कुछ परोक्षरूप में जानता है ऐसे जीव की चर्चा व्यवहारभाषा में ऐसी होती है कि यह समस्त द्वादशांग को जानता है और निश्चय से देखो ऐसे ज्ञान से परिणत निज आत्मा को ही वह जानता है । इसमें पहिली पद्धति व्यवहार से श्रुतकेवली को बताने की है व द्वितीय पद्धति निश्चय से श्रुतकेवली को बताने की हैं । 473-चार युगलों के निर्णय से पदार्थ का स्पष्ट अवबोध—आत्मा ही क्या समस्त वस्तु चार युगलों से गुंफित हैं । 1. स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । 2. स्यादेक, स्यादनेक । 3. स्यान्नित्य, स्यादनित्य । 4. स्यात्तत्, स्यादतत् । वस्तु अभेदरूप, अखंड, अवक्तव्य, पूर्ण है । यही वस्तु द्रव्यदृष्टि से देखने पर द्रव्य मालूम पड़ती है, पर्यायदृष्टि से देखने पर पर्याय, गुणदृष्टि से देखने पर गुण, उत्पाददृष्टि से देखने पर उत्पादरूप, ध्रुवदृष्टि से देखने पर ध्रुवरूप मालूम पड़ती है । ऐसा वस्तु को भेदरूप से देखने पर होता है । अभेद विवक्षित होने पर वस्तु अभेदरूप प्रतीत होती है । वस्तु किसी भी दर्शन के बंधन में नहीं बंधती; वस्तु बंधन से रहित है । लेकिन वस्तु का समीचीन प्रतिपादक स्याद्वाद है । एक वस्तु में अनेकांत होता है । क्षेत्र की अपेक्षा से वस्तु में अनेकांत घटाते हैं:—आत्मा के प्रदेशों पर दृष्टि डालो तो आत्मा असंख्यात प्रदेशी मालूम पड़ेगी, अभेद क्षेत्र की अपेक्षा से वस्तु असंख्यात प्रदेशी नहीं है । यदि आत्मा को अखंड रूप से देखो तो आत्मा अखंड प्रदेशी है । अब यहाँ जब अभेद क्षेत्र की अपेक्षा से आत्मा है, भेद क्षेत्र की अपेक्षा से वह आत्मा नहीं है । अभेद क्षेत्र की अपेक्षा से जब हमने पट देखा तो कपड़ा पूरा एक अभेदरूप हैं । जब कपड़े को जुदे-जुदे तंतुरूप देखा तो कपड़ा नाना तंतु रूप है । 474-काल की अपेक्षा से वस्तु का कथन—काल माने समय । समय माने वस्तु का परिणमन । पर्याय दो प्रकार की है—1. सामान्य पर्याय, 2. विशेष पर्याय । सामान्य पर्याय विधि रूप है । विशेष पर्याय निषेध रूप है । सब पर्याय है, इसी को सामान्यकाल कहते हैं । विशेष पर्याय में निषेध चलता है । सामान्यपरिणमन का नाम सामान्यकाल है । विशेष परिणमन का नाम विशेषकाल है । मतलब यह है पर्याय में विशिष्ट कल्पना न करो यह विधि कहलाता है । विशिष्ट पर्यायों का नाम लेते रहो, उसे प्रतिषेध कहते हैं । द्रव्य भेदाभेदात्मक है । द्रव्य यह तो पूर्ण सत् है । द्रव्य में अभेदविवक्षा से एक परिणमन होता है । अभेदविवक्षा से असंख्यात परिणमन हो जाते हैं । जब विशेष पर्याय का कथन है, विशेष की अपेक्षा से है, सामान्यकाल की अपेक्षा से नहीं है । जब सामान्य की अपेक्षा से कथन है, तब सामान्यकाल है, विशेषकाल नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा में वस्तु में अस्ति नास्ति घटाया । उदाहरण:—पट का परिणमन सामान्य परिणमन की अपेक्षा से है तो विशेष की विवक्षा से नहीं है । जब विशेष की अपेक्षा करे तो विशेष परिणमन से पट है, सामान्य परिणमन से पट नहीं है । तात्पर्य यह है कि काल की अपेक्षा से अस्तिनास्ति 2 प्रकार से है—1. सामान्य परिणमन और विशेष परिणमन की अपेक्षा से, 2. अभेद परिणमन और भेदपरिणमन की अपेक्षा से । 1) आत्मा की तीनों कालों की अनंत पर्यायें जाति अपेक्षा पर्यायें ही हैं । सो पर्याय है यह सामान्य परिणमन है । भिन्न-भिन्न समय के परिणमन विशेष परिणमन है । जो काल सामान्यकाल (सामान्य परिणमन) की अपेक्षा से है वह विशेषकाल की अपेक्षा से काल नहीं है । जो काल विशेषकाल की अपेक्षा से हैं वह सामान्यकाल की अपेक्षा से नहीं है । 2) आत्मा एक वस्तु है । इसका एक स्वभाव है और एक समय में एक परिणमन है । वह एक परिणमन अभेद परिणमन है । वस्तु के इस एक स्वभाव को समझने के लिये जो भेद किये जाते हैं वे अनेक शक्तियां (स्वभाव) गुण कहलाते हैं । इस दृष्टि से समझे गये गुण अनेक हैं । जितने गुण हैं उतनी ही उन गुणों की परिणतियाँ है । तब एक समय में अनंत गुणों की अपेक्षा से अनंत पर्यायें हुईं । अब अभेद परिणमन की दृष्टि से देखा गया जो काल है वह भेद परिणमन की दृष्टि से नहीं है । भेद परिणमन की दृष्टि से देखा गया जो काल है वह अभेद परिणमन की दृष्टि से नहीं है । आत्मा का ज्ञान गुण आत्मा के स्वक्षेत्र में परिणमता है । ज्ञान ज्ञान को ज्ञान से ज्ञान के लिये जानता है । निश्चयनय से आत्मा आत्मा को ही जानता है, लेकिन मालूम पड़ता है कि बाह्य पदार्थों को जान रहे हैं । आत्मा का ज्ञान आत्मा से बाहर के पदार्थों को नहीं जानता है । आत्मा जो कुछ करता है, वह सब अपने आपके लिये करता है, दूसरे के लिये हमारा आत्मा कुछ नहीं कर सकता है । प्रत्येक पदार्थ का काम परिणमना है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ सत् है । जो सत् होगा, वह अवश्य परिणमेगा । जो जैसा परिणमे, वह सब उसकी निजी योग्यता पर निर्भर है । हमने घड़ी जानी, यह व्यवहार की भाषा है । परमार्थ की भाषा में हम घड़ी के आकार रूप जानने वाले आत्मा को ही जानते हैं । 475-व्यवहार की प्रयोजकता बताने का प्रसंग—समयसार में शंका की गई है कि व्यवहारनय को मत कहो, केवल परमार्थ के कहने से काम चल जायेगा, क्योंकि वही तो प्रयोजनीभूत हैं । इस शंका के उत्तर में यह समाधान दिया कि परमार्थ को कहने का उपाय ही व्यवहार है । जैसे श्रुतकेवली उसे कहते हैं जो द्वादशांग श्रुत को जाने । लेकिन क्या आज तक किसी ने बाह्य द्वादशांग श्रुत को जाना? नहीं, यह तो व्यवहार की भाषा है । परमार्थ की भाषा में उसने द्वादशांगश्रुत के आकाररूप जानने वाले ज्ञेयाकार परिणमन में आत्मा को ही जाना । द्वादशांग श्रुत के जानने का ही अर्थ है, आत्मा को जानना । व्यवहार के बिना परमार्थ के समझने का काम नहीं चल सकता । व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । द्वादशांग श्रुत की ही बात क्या? किसी भी पदार्थ को जानने का ही अर्थ है आत्मा को जानना । इसका कारण है कि द्रव्य के गुण का परिणमन उस ही द्रव्य में है उसका प्रयोग भी उसी द्रव्य में है । अब आपने जान लिया होगा कि आत्मा निश्चय से किसको जानता है । इस तत्त्व को बताना यथार्थ में कठिन है सो जिस ज्ञेय पदार्थ के ग्रहणरूप निज ज्ञानवृत्तिरूप आत्मा परिणमता है उस ज्ञेय पदार्थ का नाम लेकर बताया जाता है । यह व्यवहार है और वह उस परमार्थतत्त्व का प्रतिपादक है । 476-वास्तविक बात को बताने का साधन व्यवहार—यदि व्यवहार न हो तो हम वास्तविक बात को प्रकट नहीं कर सकते । जैसे घड़े को जानने वाले का निश्चयनय से अर्थ यह है कि जो घट के आकार-रूप परिणमे हुए आत्मा को जाने, इसी को व्यवहार में, जो घड़े को जाने, कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में स्थित है, पर के द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव में कुछ भी नहीं कर सकता । अत: आत्मा परपदार्थ को कैसे जान सकता है अपनी आत्मा को ही तो जानेगा आत्मा अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से है पर के द्रव्य क्षेत्रकाल भाव से नहीं है यह परसापेक्ष स्याद्वाद है । अब स्वसापेक्ष स्याद्वाद से वस्तु का स्वरूप परखिये । अभेददृष्टि से आत्मा अखंड एकरूपवत् है और भेददृष्टि से गुणसत् पर्यायसत् आदि भेदरूप है । सो जो आत्मतत्त्व अभेददृष्टि से है वह भेददृष्टि से नहीं, जो भेददृष्टि से आत्मतत्त्व है वह अभेददृष्टि नहीं । अभेदक्षेत्र एक अखंड क्षेत्र है, उसका कोई प्रदेश भेद नहीं है । तो जो अभेद क्षेत्र की दृष्टि से है, वह भेदक्षेत्र की दृष्टि से नहीं है । जीव असंख्यात प्रदेशी है तो भेदक्षेत्र की दृष्टि से । भेददृष्टि में जाना गया जो असंख्यात प्रदेशी जीव है वह अभेदक्षेत्र की दृष्टि से नहीं है । विशेष पर्याय की अपेक्षा से जो पर्याय है, वह सामान्य पर्याय की अपेक्षा में नहीं है । सामान्य पर्याय की अपेक्षा से जो पर्याय है, वह विशेष पर्याय की दृष्टि से नहीं है । एक समय की हालत को एक पर्याय अभेद पर्याय कहते हैं उनमें गुणों की अपेक्षा से भेद करना भेद पर्याय है । अभेद पर्याय की दृष्टि में जो पर्याय है, वह भेद पर्याय की अपेक्षा से नहीं है । भेद पर्याय की दृष्टि से जो पर्याय है, वह अभेददृष्टि से नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा से अस्ति-नास्ति है । भाव की अपेक्षा से जीव में अस्ति-नास्ति इस प्रकार है—भाव को गुण शब्द से कहते हैं । गुण माने वस्तु का स्वभाव । वह भाव दो प्रकार से देखा जाता है—1 सामान्यभाव 2 विशेषभाव । आत्मा में अभेदरूप से एक गुण है । उसका नाम चैतन्य गुण है । भेद विवक्षा से ज्ञान, दर्शन, आदि अनंतगुण एवं अनंत शक्तियाँ हैं । सामान्यभाव की अपेक्षा से जो वस्तु है, वह विशेषभाव की अपेक्षा से नहीं है । विशेषभाव की विवक्षा से जो वस्तु है, वह सामान्यभाव की अपेक्षा से नहीं है । 477-द्रव्य के सामान्य-विशेषात्मक होने से द्रव्य के चतुष्टय की भी सामान्य-विशेषात्मकता—द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ये चारों सामान्य रूप हैं और विशेषरूप । सामान्य विवक्षा से जो वस्तु है, वह विशेष-विवक्षा से नहीं है । जो वस्तु विशेष की अपेक्षा से है वह सामान्य की अपेक्षा से नहीं है । जैसे पीला कपड़ा है, उसे दो दृष्टियों से देखा जा सकता है । 1 पीला कपड़ा, 2 सामान्य कपड़ा । जिस समय कपड़े को सामान्य दृष्टि से देखा, तब पीला कपड़ा नहीं है और जब विशेष कपड़े की (पीले कपड़े की) दृष्टि से देखा तो पीला कपड़ा है, सामान्य कपड़ा नहीं है । शंका—अस्ति नास्ति में से एक के कहने से काम चल जायेगा, फिर इतने वाग्विलास की क्या जरूरत है? समाधान—प्रत्येक वस्तु अपनी अपेक्षा से है, पर द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है ऐसा जब है तब उस ही तत्त्व को बताया है वस्तु को भली प्रकार समझाने के वास्ते अस्ति-नास्ति कहना आवश्यक है । अस्ति-नास्ति में से यदि एक न मानो तो वस्तु ही मिट जायेगी । दोनों की श्रद्धा पर ही पर पदार्थ की पहिचान है—यह यही है, यह अन्य नहीं है । वस्तु अनेकांत स्वरूप है । अतएव वस्तुओं की व्यवस्था है । यदि अनेकांत सिद्धांत न हो तो वस्तु की व्यवस्था बैठ ही नहीं सकती दुनिया में । जो वस्तु परिणमन करती है, वही वस्तु है । जो परिणमन ही नहीं करती, वह हो ही नहीं सकती । व्यवहारनय से ही पदार्थ का विशेष रूप से ज्ञान होता है । अस्ति न माने तो नास्ति नहीं, नास्ति न माने तो अस्ति का कोई अस्तित्व नहीं है । दोनों एक दूसरे के अभाव में मिट जायेंगे । वस्तु परमार्थत: जैसी है उसे क्या शब्दों से कहा जा सकता है? उसको बताने का साधन व्यवहार है । जैसे आत्मा है और परिणमन करता है । यदि पूछा जाये कि बतावो आत्मा परमार्थत: क्या करता है । उत्तर मिलेगा जानता है । फिर प्रश्न होगा क्या जानता है । अब उत्तर परमार्थ से दीजिये । बहुत ज्यादह गहरे उतरोगे तो बोलेंगे जो ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञान का होता है उसे जानते हैं तो लो, ज्ञेय का (पर का) नाम लेकर व्यवहार तो बनाना ही पड़ा अब सीधा कह दो ना व्यवहार से कि आत्मा अमुक पदार्थ को जानता है । परमार्थ से तो वह आत्मा को जानता है । कैसे परिणत आत्मा को जानता है यह बात भी वहाँ अवश्य है यहाँ तक भी निश्चय की बात रह गई मगर इसका प्रकटीकरण व्यवहार के बिना कैसे होगा? अत: व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । 478-प्रत्येक एक-एक की स्वतंत्रता—दुनिया में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं । हम जो विचार करते हैं, वह विचार भी हम नहीं हैं, वह विचार मेरा ध्रुव निरपेक्ष स्वभाव नहीं है जो जितना परिणमन करता है, वह अपने में ही कर सकता है, अपने से बाहर बिल्कुल परिणम ही नहीं कर सकता । एक परमाणु का कोई दूसरा टुकड़ा नहीं हो सकता । परमाणु ही उसे कहते हैं, जिसका दूसरा टुकड़ा न हो । अनेक परमाणुओं (स्कंध के) टुकड़े हो सकते हैं । वस्तु अखंड वहीं है, जिसका दूसरा हिस्सा न बन सके । एक हालत या परिणमन जितने में होवे उसे एक कहते हैं । जैसे पूरे आत्मा में एक साथ दु:ख होता है । क्योंकि वह एक है । जैसे हमारे हाथ की उंगली जल गई, लेकिन पूरा शरीर नहीं जला, अत: शरीर को अनेक परमाणुओं का पिंड समझना चाहिये । अंगुली भी एक वस्तु नहीं है । हर एक का आत्मा न्यारा-न्यारा है, कोई आत्मा किसी दूसरे आत्मा से मिला हुआ नहीं है । जिसने दूसरे को देखकर मोह बना लिया कि यह मेरा पुत्र है यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पिता है वह अज्ञानी है । किसी के घर में कोई बीमार है, उसको देखकर यदि उसे दया आती है वह दया नहीं है, वह मोह है । यदि अन्य दूसरों पर भी दया आती हो तो वहाँ भी दया की संभावना है । जो जीव संबंधियों से न्यारा हो जाता है उस समय यदि सुमति उत्पन्न हो जाये तो समझो, उसने अपने दु:खों को दूर करने का रास्ता साफ कर लिया है और सत्पथ पर आरूढ़ है । यह संसार तो ‘चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात है ।’ कोई इस पर्याय को पाकर सदा नहीं रह सकता । सभी जीव अलग-अलग पर्यायों से आये हैं, और आयु पूर्ण होने पर सबको पर्याय बदलनी ही पड़ेगी । फिर भी यह जीव इन पर्यायों को अपना मानकर दुःख प्राप्त कर रहा है । इन पर्यायों को अपना मानने से बड़ा कोई दूसरा दुःख नहीं है । 479-भिन्न पदार्थों में एकत्व की कल्पना करना ही क्लेश का मूल—जगत् के जितने भी पदार्थ हैं वे सब न्यारे-न्यारे हैं । नाम चाहने से नाम नहीं मिलता और नाम की इच्छा करने से जिंदगी भर उलझने नहीं मिट सकती । नाम साथ में भी तो नहीं जाना है । फिर यह मोही इस नाम के पीछे इतना क्यों पड़ा रहता है । नाम चाहना पर पदार्थ को अपना मानना, शरीर की रात दिन सेवा करना शरीर को सुंदर बनाने में ही अधिक समय गवाना-इन्हीं का नाम तो विपत्तियाँ हैं । कोई विपत्ति इनसे अलग चीज नहीं है । जब शरीर दु:ख का खजाना है, तो यह मोही अज्ञानी इस क्षण नश्वर शरीर की इतनी क्यों सेवा करता है? एक दिन वह आना है, जिस दिन यह दिखने मात्र का सुंदर चमन मिट्टी बन जाना है । इसकी व्यर्थ में इतनी सेवा क्यों की जाये । जो शरीर का होना होगा, वह होगा । मुझे अपने आपको शांत विनयशील, लोभरहित, क्षमाशील और ज्ञानोपयोगी बनाना है । इसके लिये आप में सर्वप्रथम प्रत्येक बात को सहने की शक्ति होना चाहिये । यदि कोई आपके प्रति गलती करता है, वह आपकी दृष्टि में पहले से ही क्षम्य होनी चाहिये । यदि कोई आप से छोटा गलती करता है, उसे छोटा अबोध समझकर माफ कर देना चाहिये । यदि आप से बड़ा कोई गलती करता है तो वस्तु स्वरूप विचार कर उसे क्षम्य समझो । इस संसार में कोई जीव किसी जीव का उपकार नहीं कर सकता है, न बुराई कर सकता । सब अपने आप में परिणमन करते हैं, मैं अपने आप में परिणमन करता हूँ फिर मैं क्रोध करके क्यों अपनी आत्मा को दूषित करूं? इस प्रकार के विचार करके सदा अपनी आत्मा के उत्थान में लगना चाहिये । अपमान को मानकर उसे समतापूर्वक सहन कर लेना चाहिये यही तो तप है । सहधर्मी बंधुओं के अपमानजनक वचनों को सहन कर लेना चाहिये । जब तुम्हें अपनी आत्मा का कल्याण करना है, फिर दूसरे की चिंता या मोह क्या करते हो? तो क्या मोह से कभी आत्मकल्याण हुआ है या होगा? नहीं, कदापि नहीं, हे आत्मन् ! दुखियों में बसकर और उनकी सेवा करके भी एक धर्मोत्साह बनाया जा सकता । मरने वाले के पास बैठना उसकी यथाशक्ति सेवा करना समाधिभाव का उपदेश करना यही वहाँ धर्म है । जब लोगों का अपने सहधर्मी भाइयों की दुखियों की सेवा की ओर ध्यान नहीं रहा, और भगवान की मूर्ति की भक्ति में ही कल्याण समझने लगे तभी तो अन्य लोगों ने देवपूजा (मूर्तिपूजा) का खंडन किया है । सदा सुखी रहना ही धर्म है । देवपूजा, स्वाध्याय, संयम, गुरुओं की सेवा, तप व गरीबों की सेवा ये गृहस्थों के लिये षड् आवश्यक है । आचार्यों ने इन कृत्यों को आवश्यक (करणीय) की संज्ञा दी है । 480-ज्ञान ही सुख का मूल—ज्ञान है तो सब है, ज्ञान यदि नष्ट हो गया तो सब कुछ नष्ट हो गया अत: ज्ञान करो । विद्यार्थियों की तरह से अध्ययन करो तभी अच्छी तरह ज्ञान की प्राप्ति होती है । आप लोग अध्ययन करना केवल लड़कों का काम समझते हैं । अरे, जो-जो नहीं जानता, वह उसी विषय में बालक (अज्ञानी) है । अत: लड़कों की तरह अध्ययन करने में क्या शर्म? सिंह, सज्जन, हाथी—ये सब अपना स्थान छोड़ कर, दूसरे स्थान पर जाकर मरते हैं । कौआ, कायर पुरुष, मृग—ये दूसरे स्थान पर भी हों तो भी अपने स्थान पर ही आकर मरते हैं । इनमें इतना शौर्य नहीं कि अपना स्थान छोड़कर मरे । इन्हें अंत तक कुटुंबियों का मोह सताता रहता है । जिसे मरते समय निरपेक्ष सद्गृहस्थों की लकड़ी मिले वह अच्छा है । कुटुंबियों के सामने मरने में मोह आ ही जाता है । यह मनुष्यभव इसलिये प्राप्त हुआ कि दिल का या विवेक का फक्कड़ न बन जाओ । मैं तीनों लोकों और तीनों कालों में मैं अकेला स्वयं हूँ । मेरा कोई साथ देने वाला नहीं है—ऐसा विचार करके ज्ञान साधना में जुटना चाहिये । आत्माज्ञान साधना से पुष्ट होता है । सुंदर भोज्य पदार्थों से तो शरीर पुष्ट होता है । ‘शरीर’ माने दुष्ट ‘शरारती।’ अर्थात् जो सदा शरारत करता रहे, उसे शरीर कहते हैं । इस शरीर को अहितकर जानकर आत्मसाधना में जुटाना चाहिये । ज्ञानप्राप्ति के साथ आत्मपरिणामों की निर्मलता होना जरूरी है । जितना अपने परिणामों की निर्मलता बना लीं, समझो उतनी विभूति प्राप्त कर ली । आत्म परिमाणों की निर्मलता उत्कृष्ट विभूति है । जितनी परिणामों में मलिनता आई, समझो उतने गरीब हो गये । गरीब धनवान् होना आत्म-परिणामों पर निर्भर है । परिणामों की निर्मलता के विषय में चर्चा करना भी तो अच्छा है । विवेक से उसकी कषायों में शिथिलता तो आ जाती है । जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है, वह कषायों को जीत ही लेता है । जैसे सम्मेदशिखर जी की यात्रा करने के लिये जवान और लड़के जल्दी पहुंच जाते हैं और बड़े देर में पहुंच पाते हैं—लेकिन पहुंच सभी जाते हैं । प्रयोजन यह है कि ज्ञानोपयोग में अधिक से अधिक समय व्यतीत होना चाहिये । शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने के लिये प्रयत्न यह करना पड़ता कि सबसे भिन्न आत्मा समझे । सबसे भिन्न तब समझे जब सबका भी तो ज्ञान हो । सब पदार्थ चूंकि द्रव्य ही तो हैं अत: सब एक लक्षण से लक्षित हो सकते हैं । ऐसा जानने के पश्चात् असाधारण गुणों को जानकर भेदविज्ञान करे । 481-द्रव्य की छह गुणों से संयुक्तता—द्रव्य अनंतानंत है । उन सबमें छह गुण पाये जाते हैं । जो द्रव्य हैं, उनके लिये छह गुण आवश्यक हैं । जिसमें छह गुण नहीं, वह द्रव्य नहीं । 1 अस्तित्व, 2 वस्तुत्व, 3 द्रव्यत्व, 4 अगुरुलघुत्व 5 प्रदेशवत्व 6 प्रमेयत्व ये द्रव्य के छह आवश्यक गुण हैं ।अस्तित्व:-सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण पाया जाता है । जो अस्ति होता है उसमें वस्तुत्व भी होता है । इसके कारण वह वही है और कोई चीज नहीं है । वस्तुत्व गुण के प्रताप से वस्तु अपने चतुष्टय से है, पर के द्रव्य, क्षेत्र काल भाव से नहीं है । तीसरा गुण द्रव्यत्व यह बताता है कि चीज परिणमी थी, आगे भी परिणमेगी, और निरंतर परिणम रही है । परिणमनशून्य वस्तु कभी रह ही नहीं सकती । चौथा गुण अगुरुलघुत्व:—जब एक पर्याय से दूसरी पर्याय रूप बदलती है—वहां यह बदल सीमारहित नहीं हो जावे, आत्मा से पुद्गल नहीं बने यह अगुरुलघुत्व गुण ही तो है । इससे एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता यह भी व्यवस्था है । पाँचवाँ गुण प्रदेशवत्व—यह गुण बताता है कि सब द्रव्यों में प्रदेश है । छठा गुण प्रमेयत्व यह गुण बताता है कि तुम हो तो जानने में आ सकते हो या तुम जानने में आ सकते हो तो तुम हो । चीज तो भगवान के केवलज्ञान में अवश्य आयेगी । ऊपर कही गई ये छह चीजें सभी द्रव्यों में पाई जाती है । पदार्थ में इन छह गुणों के बिना काम नहीं चलता । इनके बिना द्रव्य टिक ही नहीं सकता, इनसे बिना द्रव्य है ही नहीं । 482-द्रव्य में असाधारणता—यहाँ शंका हो सकती है कि इन छह गुणों की अपेक्षा से सब द्रव्य समान कहलाने लगेंगे ? समाधान: इन गुणों की अपेक्षा से सब द्रव्य समान है यह सही है फिर भी केवल साधारण ही गुण तो द्रव्य में नहीं हैं, असाधारण गुण भी होते हैं । पहले द्रव्य के दो भेद करो—1 चेतन 2 अचेतन । जो समझे याने जो जान सकता है वह चेतन है । चेतन की दृष्टि से सब जीव द्रव्य समान हैं । चेतन द्रव्य के दो भेद हैं—1 भव्य और 2 अभव्य । भव्य के तो धर्मपरिणाम हो सकते हैं, धर्म के यदि परिणाम हो जायें तो कल्याण हो जाये । अभव्य के धर्मपरिणाम कभी नहीं हो सकते तो उसे अच्छी बात बताई जाये, वह बुरी लगती है । अभव्य को कभी मुक्ति प्राप्त हो ही नहीं सकती । अभव्य कहने से मनुष्य को गाली-सी प्रतीत होती है । कोई किसी के भाग्य को बना-बिगाड़ नहीं सकता है । जिसका भाग्य अच्छा है, उसको यत्न करने पर फल प्राप्त होने से नहीं रोका जा सकता है । दो पुरुष थे । उनमें विवाद था—एक कहता भाग्य अच्छा हो तो फल प्राप्ति अपने आप ही हो जावे । एक कहता बिना पुरुषार्थ के भाग्य कुछ कर ही नहीं सकता । इस प्रकार उनमें झगड़ा हो गया । उनको जेलखाने में कैद कर दिया गया । दोनों को लगी भूख । जो पुरुषार्थ पक्ष का था उसने कुछ भोजन खोजना प्रारंभ किया । उसे दो लड्डू मिले, वह बड़ा प्रसन्न हुआ और भाग्य वाले को चिढ़ाने लगा । बाद में उसने एक लड्डू स्वयं खाया दूसरा दूसरे को दे दिया । भाग्यवाला बोला, देखो तुमने परिश्रम करके पाया तो क्या पाया, हमने तो बिना परिश्रम किये ही पा लिया । अत: है न भाग्य बड़ा? इस प्रकार यदि किसी का भाग्य अच्छा है, उसे फल प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता । यदि किसी का भाग्य खराब है, उसे कोई अच्छा नहीं बना सकता । 483-हम जिंदा क्यों?—जिंदा हम इसलिये हैं कि हम ऐसी करतूत कर लें कि फिर हमें दूसरा जन्म न लेना पड़े । मोह छोड़ने से हमें जन्म नहीं लेना पड़ेगा । मोह को दूर करने के लिये खूब ज्ञान प्राप्त करो । जितना तुम जानते हो, उससे अधिक सदा सीखते रहो, इस प्रकार सीखने से ही ज्ञानवृद्धि होगी । ज्ञान विद्यार्थियों की तरह पढ़ने से सुगमता से प्राप्त हो जाता है । विद्यार्थियों की तरह पढ़ने के भाव मात्र से कितने ही गुण अपने आप आ जाते हैं । उसके सभी अवगुण समाप्त हो जाते हैं । प्रतिदिन ज्ञान की धीरेधीरे वृद्धि करते जाओ । क्योंकि—
‘‘शनैर्वित्तं शनैर्विद्या, शनै: पर्वतमस्तके । शनै: पंथा: शनै: कंथा, पंचैतानि शनै: शनै: ।’’
इस प्रकार ये पांचों चीजें धीरे करनी चाहिये । विद्या भी धीरे-धीरे ही आती हैं । एक साथ संपूर्ण विद्या नहीं आ जाती है । प्रत्येक द्रव्य में वस्तुत्व गुण है । सब द्रव्य परस्पर समस्त पदार्थों से न्यारे हैं । वस्तु के निज वस्तुत्व का परिज्ञान परमविद्या है । इस विद्या के आने पर विद्या की प्रयोजकता हल हो जाती है । 484-पर्यायबुद्धि में कृत सुकृत भी हितकर नहीं—जैसे करोड़पति को करोड़ों की संपत्ति नहीं सुहाती है । यदि उसे ज्ञान का अनुभव हो गया हो, तब कोटीश को करोड़ों की संपत्ति न सुहाये वही न सुहाता श्रेष्ठ है । बिना ज्ञान के संपत्ति न सुहाना व्यर्थ है सम्यक्त्व की परीक्षा करने के लिये ये संपत्तियां प्राप्त हों, ऐसा हम नहीं चाहते । हम निरंतर भगवान का ध्यान करते रहे हों, हमने कर्मों को हटाने का प्रयत्न किया हो क्रोधादि कषाय करके अपने परिणाम न खराब किये हों फिर भी आत्मा में सुख नहीं मिला, क्योंकि मैं वह पर्यायों में अटकता रहा । पर्यायबुद्धि से ध्यान किया भी निष्फल है । मैं मुनि हूँ मुझे कर्मों से दूर रहना चाहिये जहाँ यह भाव लाया, मुनिपना गया । भेद (पर्याय) में अटकना ही तो अटकना है । पर्याय ऐसी अटक है कि हम लोग अपने स्वरूप में लीन नहीं हो पाते । हमारी शुद्ध पारिणामिक भावों तक दृष्टि इसलिये नहीं पहुँच पाती कि पर्याय की अटक है । पर्यायदृष्टि होने के कारण ही नेताओं में स्वाभिमान आ जाता है । इन्हीं पर्यायों के कारण इतनी ऊंची साधना बन जाती है इन सब में पर्यायदृष्टि ही कारण है । यदि साधु में पर्यायदृष्टि न रही और यथार्थ समता आ गई तो समझो उसका कल्याण हो गया अब वह भावलिंगी है । सिद्ध भगवान के कोई चारित्र नहीं माना है चारित्र में स्थान अनेक हैं । सिद्धों में अनेक प्रकार के परिणामों का कल्पना करना हमारी जबर्दस्ती है । सिद्ध भगवान को एक स्वभाव व एक निगाह से देखना चाहिये । सिद्ध में सर्व लब्धियां वीर्यांतर्गत है । अंतराय कर्म की 5 प्रकृतियां हैं—दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यांतराय और लाभांतराय । वीर्यगुण में ही भगवान के सब गुण शामिल हो जाते हैं । अरहंतों में 5 लब्धियों की कल्पना करना ही कल्पना है । उनके 5 लब्धियां थी, सो जब क्षायिकभाव हो गया तब भी लब्धियों का उपचार रहा । वस्तुत: किसी भी पदार्थ में अनेक गुण नहीं हैं । अंतरायकर्म का काम अपने गुणों को घातना है । दानांतराय के कारण दान देने का भाव ही नहीं बन सकता आदि सब बात भेद की अपेक्षा में कही गई है । अतीत गुणस्थान से पहले संयममार्गणा के नाना भेद हो जाते हैं । संयम, असंयम और संयमासंयम । समझ में भी सर्वत्र संयम की समानता नहीं जाती । देखो तो इस चैतन्य प्रभु की लीलापरिणति । यह आत्मा एक अद्भूत शक्ति का धारी है । यह शरीर कैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला जाता है । कहते हैं कि सर्वत्र ईश्वर का अंश है । आत्मा का जो क्षेत्र है, उस क्षेत्र में ऐसी अद्भूत बातें हो जाती है कि मालूम पड़ता है कि किसी दिव्य शक्ति का यह काम हो रहा है । 485-संसार जाल व मुक्ति निज ईश्वर की लीलायें—दो ही प्रकार से कारण होता है - निमित्तकारण, और उपादान कारण । क्या ईश्वर की ही ये दो परिणतियां बन गई हैं । जैसे हाथ चला । इसमें आत्मा की इच्छा निमित्त है, हाथ चला यह पुद्गल उपादान है । ईश्वर की यदि यह चेष्टा है, तो यह निमित्त कारण रूप से है या उपादान कारण रूप? यदि ईश्वर निमित्त कारण है तो इससे यह सिद्ध हुआ कि संसार की सारी सामग्रियां पहले ही से थी और ईश्वर तो निमित्तमात्र है । यदि ईश्वर संसार का उपादानकर्त्ता है तो वह अनादि से ही सबका कर्त्ता है । क्योंकि उपादान सदृश कार्य भवति । इसके अनुसार सृष्टि ईश्वर की तरह से होनी चाहिये । जैसे घड़ा बना मिट्टी का रूप घड़े में भी है, अर्थात् घड़े में सामान्य मिट्टी वर्तमान है । उसी प्रकार जो गुण ईश्वर में हैं, वे गुण पदार्थों में भी होने चाहिये जैसे घड़े से ठीकरे बन गये, लेकिन सबमें सामान्य मिट्टी वर्तमान है । यदि यह सृष्टि उपादानतया ईश्वरकृत है तो सारा संसार ईश्वर के आकार के समान होना चाहिये । यदि जीव सुखी या दु:खी होता है तो ईश्वर भी प्रसन्न या दु:खी होता दिखाई देना चाहिये । भैया ! बात तो यह है कि ये सब निज के ईश्वर की लीलायें है:—संयम, असंयम और संयमासयम । तीन तरह के भोग होते हैं:—अतीत भोग, अनागत भोग और वर्तमान भोग । द्रव्य में प्रत्येक समय एक पर्याय होती है । जो गुजर गया वह अब है ही नहीं । किये गये कार्य का शोक नहीं करना चाहिये । अनागत भोगों की सम्यग्दृष्टि इच्छा ही नहीं करता है कषाय तो कभी दूर नहीं होती है । जब तक कषाय रहती ही नहीं है । कषाय के उदय होने पर चारित्र गुण में विकार आते हैं । चौथे गुणस्थान का सम्यग्दृष्टि स्वानुभवी भी असंयमी है । वहाँ कषायें होती है किंतु उन्हें उपयोग पकड़ता नहीं है । इस उपयोग-मालिक का उन कषाय कुत्तों पर इशारा नहीं हो रहा है । स्वानुभव के काल में भी कषाय रहती है । जब ज्ञानी मनुष्य प्रकट रूप में भी कषाय करता है तो उसके सम्यक्त्व तो रहता ही है । सम्यक्त्व दो प्रकार का नहीं हैं स्वानुभूति ही दो प्रकार की है । जितनी देर सम्यक्त्व रहता है, वह निरंतर रहता है । जो काम करता है वह उपयोग से करता है । स्वानुभूति हमेशा नहीं रहती है । स्वानुभूति और सम्यक्त्व दोनों एक साथ होते हैं । स्वानुभूति पाये बिना सम्यक्त्व नहीं होता है, चाहे सम्यक्त्व होने के बाद में स्वानुभूति न रहे । जितने ज्ञान होते हैं, उतने ही आवरण होते हैं जो पूर्ण विकास है वह सिद्धों में प्रकट हैं । निमित्त नैमित्तिकभाव से भगवान की लीला होती है । जैसे लोग कहते हैं कि यह सब भगवान की लीला है इसी प्रकार आत्मा की लीला की भी कोई पर्याय नहीं जान सकता है । यह सब आत्म-प्रभु की ही लीला है । ब्रह्म में लीन होने में आनंद आता है । परंतु यह वास्तविक आनंद सम्यग्ज्ञान के पाये बिना नहीं हो सकता है । द्रव्य-गुण-पर्याय का क्या स्वरूप है, यही जानना उस अलौकिक आनंद की नींव है । भूतार्थ से तत्त्व को जानकर उसका शुद्ध आश्रय करके सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है—