वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 25
From जैनकोष
प्राकारकवलितांबर-मुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् ।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ॥25॥
258―दृष्टांतपूर्वक व्यवहारस्तवन का वर्णन―प्रकरण यह चल रहा है कि शरीर जुदा है, आत्मा जुदा है । भगवान जुदे हैं, शरीर जुदा है । भगवान के आत्मा के गुणों का स्तवन करने से भगवान की भक्ति होती है, यह तो सुनिश्चित है ही, पर भगवान के देह के अतिशयों का वर्णन करके भी स्तुति मानी जाती है । लेकिन यहाँ यह अंतर जानना कि देह के स्तवन से भगवान का स्तवन करना यह व्यवहार से स्तवन है और भगवान के गुणों का स्तवन करके भगवान का स्तवन समझना यह निश्चयनय से स्तवन है । उसकी यहाँ बात बतायी गई, उस ही का और स्पष्टीकरण करने के लिए एक दृष्टांत दिया जा रहा है, जैसे कोई पुरुष राजा का वर्णन करना चाहता है अथवा मानो राजा की कोई बात ही वह कहना चाहता है । जैसे एक नगर का वर्णन कर रहे हैं कि यह नगर ऐसा है, क्या वर्णन कर रहे कि इस नगर के चारों तरफ तो कोट है और कोट के आसपास चारों तरफ बड़ी गहरी खाई है और उस नगर में बहुत बड़े-बड़े मकान हैं, देखिये पहले जमाने में नगर की रक्षा के लिए नगर के चारों तरफ कोट बनाया जाता था । जैसे बहुत से नगरों में बने है जयपुर में बना उदयपुर में बना है, दिल्ली में भी जैसे कोट बना है ना, वह केवल एक बादशाह की रक्षा के लिए बना है और सारी प्रजा की रक्षा के लिए कोट बने हैं ऐसे भी बहुत से शहर हैं । जैसे उदयपुर में देखो तो सारा नगर कोट से घिरा हुआ है । दरवाजे से नगर में जाना होता है । तो नगर की रक्षा का वह एक साधन था । अब तो वे कोट बेकार से हो गए क्योंकि अब तो हवाईजहाज चलने लगे । पहले जमाने में जब हवाई जहाज न थे तो नगर की रक्षा के लिए नगर के चारों ओर कोट हुआ करते थे । उससे नगर के राजा की एक खासियत जानी जाती थी । बड़े नगर हैं, अच्छे लोग हैं, अच्छा राजा है, समझदार है, ये सब बातें समझी जाती थी और उस कोट के नीचे एक गहरी खाई रहती थी जिसमें पानी भी भरा होता था । कोट तक पहुंचना भी कठिन हो, यह भी एक रक्षा का साधन था । तो इन्हीं बातों को लेकर कोई नगर का वर्णन करे कि क्या कहना है उस नगर का । वह नगर तो ऐसे बड़े-बड़े विशाल महलों से सज्जित है कि जिन महलों ने मानों आकाश को खा रखा है । आकाश को खा रखा के मायने वे महल बहुत ही ऊँचे हैं । यह एक कविजनों की अलंकार में कहने की भाषा है । आकाश होता है बहुत ऊँचा और महल खा रहे हैं आकाश को मायने बड़े ऊँचे-ऊँचे महल हैं । एक बार अहमदाबाद में हम से वहाँ के लोग कहने लगे-महाराज जी यहाँ तो मकान बनाने के लिए नीचे की भूमि बहुत महंगी पड़ती है मगर आकाश बहुत सस्ता पड़ता है । कैसे ? यों कि जमीन तो नीचे थोड़ीसी मिल पाती है बड़ी रकम लगाकर कोई एक कमरे की पा गया कोई दो कमरे की, पर उसके ऊपर चाहे जितने मंजिल बनाते चले जाओ 4-5-6 वहाँ कोई रोकने वाला नहीं । तो आकाश सस्ता है, पर जमीन बड़ी महंगी है । तो मकान को ऊँचे उठाने के मायने आकाश से मिलना । तो नगर का वर्णन किया जा रहा है ।
259―दृष्टांतपूर्वक व्यवहारस्तवन से निश्चयस्तवन के अभाव का कथन―नगर का कितना ही वर्णन करें कहीं नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन बन जायेगा क्या? यह बात बताते हैं । किस बात के लिए यह उदाहरण है कि इस देह का कोई कितना ही वर्णन करे पर देह का वर्णन करने से क्या भगवान का वर्णन हो जायेगा? जैसे कि नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नहीं होता । मगर कोई राजा के ख्याल से नगर का वर्णन क्यों कर रहा है तो थोड़ा अधिष्ठाता, अधिष्ठेय का तो संबंध है, अब नगर का अधिष्ठाता है राजा लोकव्यवहार से, इसलिए लोग नगर का वर्णन करने लगे एक राजा का वर्णन हो जाये इस ख्याल में, मगर वस्तुत: नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नहीं होता । कितना ही वर्णन हो, अथवा इतना बड़ा कोट है, इस कोट ने भी आकाश को खा डाला और नगर के बगीचों की भी कुछ बात कहना चाहे कि इन बगीचों ने तो सारी भूमि को खा डाला । याने ये तीन ही बातें हैं ऊपर नीचे और समतल । तो ऊपर सारा आकाश खा डाला कोट ने और मकानों ने । खा सकता है क्या? नहीं, पर एक कवि की अलंकार की भाषा है, उसमें यह बताया है कि इतने ऊंचे मकान हैं, और समतल भूमि को इन बगीचों ने खा डाला है, मायने बहुत बड़े आकार में बगीचों ने इस भूमि को घेर लिया है, और चारों तरफ की खाई को पाताल ने खा डाला है मायने बड़ी गहरी खाई है ऐसा नगर का वर्णन करते हैं । यद्यपि नगर का अधिष्ठाता है वह राजा, लेकिन मकान का वर्णन करने से उन बगीचों का वर्णन करने से, किले का वर्णन करने से कहीं राजा का वर्णन नहीं हो जाता । राजा का वर्णन तो तब होता है जब यह कहा जाता कि यह राजा उदार है, गरीबों का रक्षक है, जो प्रजा से टैक्स लेता है उस टैक्स में से अपने लिए कुछ खर्च नहीं करता । जैसे और नगर के लोग हैं वैसे ही राजा भी अपनी कुछ भूमि वगैरह जायदाद से अपना गुजारा करता है, इतना निष्पक्ष निर्लोभ है, प्रजा से वसूल किए हुए धन को प्रजा के काम में खर्च करता है, बड़ा न्यायप्रिय है,तो इस तरह से राजा का वर्णन होता है । सो जैसे नगर का वर्णन करने से कहीं राजा का वर्णन नहीं होता इसी प्रकार तीर्थंकर के देह का वर्णन करने से तीर्थंकर भगवान के आत्मा का वर्णन नहीं होता । और की तो बात क्या? यहाँ तक सोच सकते हैं आप कि हुए तो हैं ऋषभदेव तीर्थंकर भगवान् मगर जो ऋषभदेव है, वह भगवान् नहीं, जो भगवान हैं वह ऋषभदेव नहीं, देखिये यह बात सच कह रहे हैं क्योंकि जो ऋषभदेव हैं वे भगवान क्यों नहीं? सब तो कहते हैं कि ऋषभदेव भगवान हुए, चौबीसों तीर्थंकर भगवान हुए, यहाँ कह रहे कि ऋषभदेव भगवान नहीं तो एक निश्चय दृष्टि से सोचो । प्रशंसा में तो ऐसा भी अलंकार बना कि है तो ऋषभदेव नाभि के पुत्र, पर नाभि से उत्पन्न हुए, इसका अलंकार क्या बना कि विष्णु की नाभि से हुए और लोग भी तो कहते हैं कि ब्रह्मा विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुए, और चित्र भी रखते हैं कि विष्णु विराजे हैं, उनकी नाभि से कमल निकला और उस कमल के ऊपर ब्रह्मा विराजे हैं । अरे वह इसी की फोटो है, एक अलंकार से वर्णन बन गया । नाभि राजा थे । उस नाभि राजा से ऋषभदेव उत्पन्न हुए और वे ऋषभदेव भगवान बनकर समवशरण में चतुर्मुख थे और वहाँ जो कमल रचा उसके ऊपर चारों ओर अंतरिक्ष विराजमान थे । यह बात स्तुति में कही थी, पर धीरे-धीरे जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे उसका रूपक बिगड़ता गया । कोई लोग कहते कि भगवान विष्णु हैं, वहाँ नाभिकमल बना और उससे ब्रह्मा हुए । पर असलियत यह थी कि नाभिराजा थे और उससे उत्पन्न हुए ऋषभदेव, और वे भगवान बने फिर कमल के ऊपर चार ओर अंतरिक्ष विराजमान हुए । तो देहादि की स्तुति से प्रभु की स्तुति निश्चयत: नहीं होती ।
260―अलंकार में वर्णित देवी देवताओं के कथन की रिसर्च की आवश्यकता―इस विषय में कोई पी. एच. डी. नहीं करता कि जो देवी देवताओं की बात मानी जाती है आखिर मौलिक बात क्या है । दुर्गा, सरस्वती, चंडी, शीतला, काली, भैरव क्षेत्रपाल, चंद्रघंटा आदि-आदि देवी देवताओं की जो शकल मानी जाती है आखिर उसका असली रूप क्या है? देवियों में दुर्गादेवी का नाम बहुत लिया जाता है । वह दुर्गा देवी क्या है । मान लो चार प्रकार के देवों में भवनवासी, व्यंतर, वैमानिक और ज्योतिषी में मानो कोई दुर्गादेवी है, सो तो ठीक, पर धर्म से उसका जुड़ाव क्या, और धर्म से जुड़ाव बने तो उसका अर्थ क्या? देखो दुर्गा की आराधना किए बिना मोक्ष न मिलेगा, यह बात हम (प्रवक्ता) ठीक कह रहे हैं, यह कोई मजाक की बात नहीं मगर वह दुर्गा क्या―दुःखेन गम्यते, प्राप्यते या सा दुर्गा―जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो सके उसका नाम है दुर्गा । तो ऐसी कौनसी चीज है जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त की जाती है? यह जीव क्या पाता है अपने में? अपने भावों को पाता है, इसके सिवाय और कुछ तो नहीं पाता । बाहरी पदार्थ हैं, उनसे हम क्या पायेंगे, क्या छोडेंगे? पाना तो अपने आपमें है । जो अपनी परिणतियां हैं उनको ही पाता है यह जीव । तो उन परिणतियों में कौनसी ऐसी परिणति है जो बड़ी कठिनाई से पायी जाये । विचार करो, वह परिणति है विशुद्ध चैतन्यस्वरूप के अनुभव की, सो आत्मानुभव कहो, आत्मानुभूति कहो, उस स्वानुभूति का नाम है दुर्गा । अब बतलाओ स्वानुभूति के पाये बिना कोई मोक्ष जा सकता है क्या? तो इसका यही निष्कर्ष है कि दुर्गा की आराधना बिना मुक्ति नहीं । अच्छा यह तो हुआ शब्द की ओर से अर्थ, अब जरा उसका रूपक देखो, तो लोगों ने चूँकि उसका मौलिक रूप, असलियत नहीं पाया, इसलिए उसके मानने वालों में कुछ गड़बड़ी हुई, और जो असली बात है उसको भूल गए । इस दुर्गा के दो रूप बदले-एक तो काली का रूप और एक सरस्वती का रूप अच्छा तो देखो वह भी बिल्कुल सही है, कैसे सही है बतलाओ । देखो यह जो दुर्गा है अपने अंदर विराजमान, प्राप्त की हुई । स्वानुभव आत्मानुभूति, ज्ञानानुभूति, इसके दो रूप बनते हैं―आत्मानुभूति का एक रूप है ज्ञानानुभूति और एक रूप है―सर्वभावांतरध्वंसी । दोनों रूप आप अध्यात्मशास्त्र में पायेंगे । ज्ञानानुभूति के दो रूप धर्म हैं । ज्ञानानुभूति वह तो हुई सरस्वती और सर्वभावांतरध्वंसी वह हुई काली । काली कौन? कलयति भक्षयति―रागादिशत्रून् इति काली, अर्थात् जो इन रागादि शत्रुओं का भक्षण कर डाले उसे कहते हैं काली । वह काली किसका रूप है? आत्मानुभूति का रूप है । यह तो हुआ एक उसका तेजस्वीरूप, मगर उसकी सौम्य मुद्रा क्या है? एक तो तेज की मुद्रा और एक है सौम्य मुद्रा । आत्मानुभूति की दो मुद्रा हैं, एक तो तेज मुद्रा है―सर्वभावांतरध्वंसी, जितने भी विभाव हैं, जितने अनात्मतत्त्व हैं उन सबको ध्वंस करने की मुद्रा स्वानुभूति में है और आत्मानुभव की सौम्य मुद्रा क्या है? ज्ञानानुभूति । जहाँ समता है वहीं सरस्वती का रूप है ।
261―देह के स्तवन से प्रभु का स्तवन मान लेने में व्यवहार अथवा उपचार का सहयोग―बात यह कह रहे थे कि तीर्थंकर महाराज के नाम या देह के वर्णन से भगवान के आत्मा का, केवली का वर्णन नहीं होता, तब नाम अलग चीज है, परमात्मतत्त्व अलग चीज है । परमात्मा का वास्तव में कोई नाम ही नहीं । एक अविकार सहज मुद्रा है, प्रचंडज्योतिस्वरूप, एक ऐसी ज्ञान ज्योति है उसका नाम भगवान है । अच्छा और प्रभाव भी देखो जब आप ऋषभदेव इस तरह का ध्यान कर रहे हों तो वहाँ प्रमुखता किसकी होती है? एक मुद्रा की । आकार की, विशुद्ध चैतन्यस्वरूप जो सर्व परभावों से रहित है, जो एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप कारण समयसार का प्रगट रूप है उस रूप की मुख्यता नहीं आयी अभी । स्तवन में अवश्य है, क्योंकि जिन्होंने मुक्ति पायी है उन भगवान के नाम का जाप जपना शृंंगार स्तवन की लाइन में है मगर जो अंतस्तत्त्व है, उसकी ओर से देखो, वह विलक्षण है, उसका स्तवन करने से प्रभु का स्तवन होगा । देह का स्तवन करने से प्रभुत्व स्तवन न होगा । जैन शासन की निष्पक्षता का क्या वर्णन करें, पूर्ण निष्पक्ष है । इसका व्यक्ति में पक्ष नहीं, इसका जाति में पक्ष नहीं, इसका कथनी में पक्ष नहीं, यह तो सही वस्तुस्वरूप का वर्णन करता । जो भगवान है वह वस्तुस्वरूप का, आत्मस्वरूप का पूर्ण विकास है । उसका नाम भगवान है । ऐसा ही चित्त बने, ऐसी ही दृष्टि बने, ऐसा ही मूड बने वहाँ धर्म का प्रादुर्भाव होता है । तो यों समझिये कि जैसे नगर का वर्णन कर देने से कहीं राजा का वर्णन नहीं हुआ करता, ऐसे ही तीर्थंकर के देहों का वर्णन करने से वस्तुत: परमार्थत: निश्चय से भगवान आत्मा का वर्णन नहीं होता, मगर लौकिकजन करते हैं नगर का ही वर्णन । फलाने राजा का क्या कहना? ऐसा सुंदर नगर है कि जिसमें बड़े ऊँचे-ऊँचे मकान है, ऐसा कोट है, और वहाँ के लोग बड़े आराम से रहते हैं, सब लोग खूब आराम से धर्म साधना करते हैं, यों खूब वर्णन कर रहे, लोगों का वर्णन कर रहे, मकानों का वर्णन कर रहे और समझ रहे कि हम राजा का वर्णन कर रहे तो जैसे नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन होना वह एकमात्र व्यवहार और उपचार है, ऐसे ही देह का वर्णन करने से प्रभु का वर्णन हो जाता, यह बात व्यवहार से है ।