वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 70
From जैनकोष
एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। 70।।
676―पक्षविकल्प से अतीत तत्त्ववेदी के स्वानुभव का अवसर―एक के मत में जीव कर्म से बद्ध है और एक के मत में जीव कर्म से बद्ध है ऐसा नहीं है, ये दोनों पक्षपात हैं, और जो तत्त्ववेदी है, जो एक सहज स्वभाव का अनुभव करने वाला है, उस सहज चैतन्य स्वभाव पर दृष्टि रखने वाला है, ऐसा तत्त्ववेदी पक्षपात से च्युत होता हुआ जानता है कि चित् तो चित् ही है, चैतन्य, तो चैतन्य ही है, कर्म से बँधा है वह भी पक्ष और कर्म से नहीं बँधा है यह भी पक्ष । जैसे किसी पुरुष से कहा भाई तुम स्टेशन चले जावो रात्रि के समय 11 बजे, और, मान लो स्टेशन दो मील दूर है और रास्ते में कुछ जंगल के निशान भी मिलते हैं, उससे कहा कि देखो तुम स्टेशन चले जावो, बड़ा जरूरी काम है, और देखो कुछ दूर चलकर एक बरगद का पेड़ मिलता है, उसमें लोग बिना काम का कहते हैं कि भूत रहता है, देखो उसमें भूतवूत कुछ नहीं रहता तुम निडर रहना । अब वह चला, और जब कुछ दूर चलकर बरगद का पेड़ आया तो उसके चित्त में आया कि भूत नहीं है, अरे नहीं तो पीछे की बात है, पहले तो उसके उपयोग में भूत आया । अरे वह तो पेड़ है, अरे है यह भी बात न सोचे, नहीं है, यह भी बात न सोचे । तो शंका का कोई काम ही न रहे । इस प्रकार एक के स्वरूप में दूसरे की चर्चा क्यों? जो तत्त्ववेदी पुरुष है वह इस सहज चैतन्य स्वरूप को निरख रहा है, उस निरख रहे की स्थिति में उस तत्त्ववेदी के, न तो कर्म से बद्ध है यह विकल्प है, न कर्म से अबद्ध है यह विकल्प है, केवल एक सहज चैतन्यस्वरूप ही उसके लक्ष्य में है । जैसे छठी गाथा में कहा कि न प्रमत्त है न अप्रमत्त है किंतु वह तो जो है सो है, ‘णावि होदि अपमत्ता ण पमत्तो जाणगो दुजो भावो, एवं भणंति सुद्धं णादो जो’ णादो के दो अर्थ हो सकते हैं―नाथ: भी होता है और ज्ञात: भी होता है, जो जाना गया सो ही वह है अथवा वह नाथ तो वो है सो ही है, नाथ मायने न अथ अर्थात् जिसकी आदि नहीं, ऐसा जो अनादि स्वरूप है वह चेतन तो चित् चित् ही है ।
677―विकल्पों से गुजरकर अविकल्प भाव में आने के पौरुष का विधान―अब देखो जाना कहाँ पर है? व्यवहार निश्चय दोनों पक्षों से अतीत एक निर्विकल्प दशा के लिए जाना है, विकल्प बाधक तो होते हैं मगर कौन से विकल्प कितने बाधक होते, यह निर्णय रखना होगा । जो प्राक् पदवी में हैं उसको यह निर्णय रखना होगा, नहीं तो क्या हालत होगी । हम मुनि के बारे में तो इस तरह की बात कहते रहें कि मुनि के महाव्रत का भाव है वह भी राग है, वह भी विकल्प है, वह भी विष है । विष शब्द से तो न कहना चाहिए, प्रमाद शब्द से कहना चाहिए, मगर विष शब्द से भी कह डालते हैं । वहाँ तो इतनी बड़ी आलोचनात्मक दृष्टि रहे और यहीं हम खूब जब चाहे जो चाहे खायें पियें, अव्रत से रहें और हमारा यह अव्रत भी विष है ऐसा एक ओर भी दृष्टि नहीं जाती । अरे जब महाव्रत विकल्परूप है तो फिर खुद में जो अव्रत है, असंयम है उसकी ओर दृष्टि क्यों नहीं है? मैं अपने भीतर के अनुभव में बढूं, प्रतिदिन कम से एक बार तो उस स्वानुभूति के लिए पौरुष तो हो । रोज-रोज तो एक अपने आपके असंयम के प्रति तो मौज रहे उसमें घृणा न हो और व्रतीजनों के संयम की ओर दृष्टि रहे तो विष जैसा वह कर रहे । यह तो उस तरह की बात होगी जैसे गाड़ी में एक ओर हाथी जोतना और दूसरी ओर बकरा । देखो दिगंबर परंपरा में जो कुछ ज्ञान और जो कुछ पद्धति बनी है वह संस्कृति के विच्छेद में कुछ शून्यवत् रहेगी एक अपने आप से काम रखो, अपने से प्रयोजन रखो । कभी यह न सोचो । हमारे चित्त में तो कभी यह भी बात नहीं आती कि जैनियों की संख्या बढ़ । केवल यह बात चित्त में आती है कि वस्तु का जो स्वरूप है, जो बात है वही यथार्थ तत्त्वज्ञान जगे । जैन कहलाने से क्या होता और जैन न कहलाने से क्या बिगड़ता? तत्त्वदृष्टि अगर हो पायी है तो वह अपना हित कर पायेगा और यदि नहीं है तो न कर पायेगा ।
678―व्यवहार व निश्चय में किसी का विरोध कर किसी का एकांत करने में सिद्धि का अभाव―यह जीव कर्मों से बद्ध है, यह बात गलत नहीं है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, मगर कर्म से बँधा है ऐसी संयोगी दृष्टि रखकर उसही में एक उमंग रखकर, बताकर विद्वता छांटकर कौनसा लाभ पायेंगे? अच्छा कर्म से नहीं बंधा है, बात तो सही है, स्वभाव से देखो कर्म से कहां बंधा है? कर्म से नहीं बँधा है, लेकिन कर्म से नहीं बँधा है, इसका कोई एकांत पक्ष करे, दूसरी बात की प्रतीति न करे तो वह स्वच्छंद हो जायेगा । अभी कुछ ही वर्ष पहले एक ऐसी घटना हुई है । बनारस में कोई एक वेदांत का विद्वान पंडित था । उसके पास पढ़ने वाले कई शिष्य थे । तो वह पंडित कहा करता था, ब्रह्म एक है, अपरिणामी है, उसका किसी से कुछ मतलब नहीं, वह एकदम अनादि अनंत सर्वव्यापक है और उस वेदांती गुरू की आदत कुछ ऐसी बन गई थी कि किसी माँस वाले की दुकान में जाकर प्रतिदिन रसगुल्ले खाया करता था । शिष्य ने बहुत समझाया पर न माना । उसके एक शिष्य को यह बात अच्छी न लगी तो एक दिन शिष्य को बड़ी दया आई तो उस दुकान पर पहुंचा और वहाँ गुरूजी के गालों में दो चार तमाचे जड़ दिया । गुरूजी बोले अरे-अरे यह क्या कर रहे? मारते क्यों? तो शिष्य बोला आप इस मांस वाले की दुकान पर रसगुल्ले क्यों खाते?...अरे कौन खाता? यह तो सब प्रकृति का धर्म है, ब्रह्म तो अपरिणामी है, वह खाता, पीता कहां ? तो उसके उत्तर में शिष्य बोला अरे तो ये तमाचे किसने जड़े, किसके जड़े । यह तो सब प्रकृति का धर्म है । इसमें तुम्हें बुरा मानने की क्या बात? शिष्य का इस प्रकार का उत्तर पाकर गुरुजी की आंखें खुली और बोल उठे कि अब हमें सही सन्मार्ग मिला । तो स्याद्वाद की बात बोलते समय प्रतिपक्ष की प्रतीति रखते हुए एक नय की बात बोले तब तो उसकी बात सही चलेगी, मगर प्रतिपक्ष की प्रतीति मिटाकर यदि एक नय का एकांत करेंगे तो वह एकांत कहलायेगा, स्याद्वाद नहीं । हम स्वभावदृष्टि करें, मगर प्रतीति तो यह रखें कि पर्याय दृष्टि से यह घटना चल रही है और हमको यह घटना मिटानी है । उसका उपाय है कि आराधना करना और ऐसी बात ध्यान में रहे कि जैसे सिद्ध भगवान शुद्ध हैं वैसे ही स्वरूपत: मैं भी शुद्ध हूँ ।
679―द्रव्यशुद्धि और उसकी उपासना―शुद्ध के प्रयोग दो जगह होते हैं एक अवस्था के लिए और दूसरा द्रव्य के लिए, तो अवस्था के लिए शुद्ध अशुद्ध तो होता है पर्याय की मलिनता और निर्मलता के आधार पर । किसी वस्तु के लिए शुद्ध शब्द का प्रयोग होता है पर से विभक्त और स्वयं में एकत्व बताने के लिए । जैसे जब खाने पीने जैसी बात आये, मान लो व्रतियों के दूध के प्रति बात आयी तो व्रतियों का दूध तब शुद्ध कहलाता है जो व्यक्ति माँसभक्षी न हो, बिना जुते पहिने नहा धोकर दुहकर लाये, मर्यादा के अंदर उसे गरम कर लेवे तो वह दूध शुद्ध है । यह तो एक अवस्था दृष्टि से कही मगर दूध के वस्तुत्व से शुद्ध दूध क्या ? वस्तुत: शुद्ध दूध वह है जिसमें कोई बाहर की चीज पानी वगैरह न मिलाया जाये, खालिस दूध ही दूध रहे तो वह द्रव्य से शुद्ध है । उसे कहते हैं वस्तु दृष्टि से शुद्ध । अगर उस दूध में से मक्खन निकाल लिया जाये, सपरेटा बन जाये तो वह दूध भी अशुद्ध हो गया । इसी प्रकार आत्मा को जब शुद्ध कहा जाये तो उसे दो निगाहों से देखें । पर्यायदृष्टि से शुद्ध तो अरहंत सिद्ध हैं, जिनका कि ज्ञान निर्मल है जिनका निर्मल ज्ञान पूर्ण प्रकट हो गया है और वस्तु की दृष्टि से तो आत्मा में उस रूप को स्वभाव को देखें कि वह समस्त पर से निराला है और अपने आपमें संपन्न है, जिसे कहते हैं ज्ञानमात्र ज्ञानघन । वह विभक्त और एकत्व का रूप है ज्ञानमात्र और ज्ञानघन । तो आराधना किसकी करना है ? मुख्यतया आराधना करना है शुद्ध वस्तुत्व की; सहज, चैतन्य स्वरूप की, मगर यह आराधना बन तो पा नहीं रही । देखो परमात्मा का स्वरूप कैसा है? अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद और यह ही स्वरूप है, यह ही स्वभाव है, यह ही प्रकट हो गया, उस प्रकट स्वरूप को देखकर हम स्वभाव का परिचय बनावें । उस स्वभाव की आराधना निर्विकल्प आराधना है । स्वभाव की आराधना अभेद आराधना है और प्रभु को वह आराधना भेद आराधना है । अगर कोई कहे कि प्रभु की पूजा से तो पुण्य बँध होता है फिर इसे क्यों करना? यह तो संसार है । अरे भाई देखो, ज्ञानी पुरुष कैसा सिलसिले से चल रहा, ज्ञानी का जो पुण्य बंध है उसके लिए ग्रंथों में लिखा है कि परंपरया मोक्ष का कारण है, तो परंपरया एक ऐसा महत्त्वपूर्ण शब्द है कि वह सभी शंकाओं का निवारण कर देता है । ज्ञानी पुरुष के जब पुण्य का उदय आयेगा तो उसको धर्म की चर्चा मिलेगी, श्रेष्ठ समागम मिलेगा सातिशय पुण्य बनेगा पुण्य साधन मिलेंगे जब तक कि वह संसार में है । यह परंपरा शब्द का अर्थ है । पश्चात निर्विकल्प होकर मोक्ष जायेगा । और तत्काल तो पुण्य पुण्य ही है, मुक्ति का कारण तो स्वभावदर्शन है इसमें कोई संदेह नहीं । देखो बौद्धों ने कितनी ही चीजों को अव्याकृत कहा है, मतलब इससे क्या निरखना, अप्रयोजन की बात छोड़ो । अव्याकृत कहकर बौद्धों ने कितना ही विसंवाद मिटाया । भले ही वह क्षणिक एकांत है, मगर कोशिश तो एक ढंग से की है । हमारी कोशिश यह रहे कि हमको विभावों से हटना है, स्वभाव में लगना है, केवल एक यह ही बात रखें ।
680―विभाव से असहयोग और सत्य के आग्रह की उपदेशों में शिक्षा―आप सब कथनों से यह निरखें कि हमको दो बातों की शिक्षा मिलती कि नहीं (1) विभावों से हटना मायने असहयोग और (2) स्वभाव में लगना मायने सत्याग्रह । यही दोनों बातें तो भारत देश को आजाद कराने के लिए की गई थी । जो विदेशी माल था । उसमें कोई सहयोग नहीं, विदेशी चीजें न खरीदेंगे न उन्हें अपने काम में लेंगे । सत्याग्रह क्या था कि जो हमारे देश की चीज है उन पर कोई प्रतिबंध न रहे, वे हम पा लेंगे । जैसे ये दो प्रकार के प्रयोग इस भारत देश को आजाद करने के लिए भारतवासियों ने किये ऐसे ही दो प्रयोग हमें करना है अपने आत्मा को आजाद करने के लिए । आत्मा स्वभाव दृष्टि से तो कुछ है सही, ठीक है, मगर वर्तमान में सभी यह अनुभव कर रहे ना, कि हम परतंत्र हैं, बड़े व्यग्र हो जाते हैं, और नहीं तो कम से कम ये हमारी बात क्यों नहीं मानते, इसी पर ही लोग माथा धुनते रहते हैं । अरे तुम्हारी बात है कहां? जहाँ यह बताया कि आत्मा कर्म से बद्ध है यह भी पक्ष, अबद्ध है यह भी पक्ष, वहाँ बात का पक्ष कहाँ रहा? तो जो असहयोग करे, जो विदेशी माल है मायने नैमित्तिकभाव है उसका असहयोग करें । ये मेरे स्वरूप नहीं, ये निमित्त का सन्निधान पाकर उठे हुए भाव हैं, भाव यद्यपि इस उपादान में उठे हैं, मगर ये निमित्त के सन्निधान बिना नहीं उठ सकते । इनकी रचना इस ही प्रकार होती है । यह तो कम से कम ज्ञात हो सकता । दर्पण में फोटो आयी, सामना हुआ हाथ का तो वह निमित्त है, यद्यपि हाथ ने कुछ परिणति नहीं की तथापि हाथ का सन्निधान पाकर दर्पण ने हस्ताकार प्रतिबिंबरूप परिणमन किया । सत्त्व का यह दृढ़ दुर्ग (किला) है कि प्रत्येक पदार्थ का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उसके अपने में रहेगा, किसी पदार्थ का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी पर वस्तु में नहीं जाता ।
681―निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय का प्रयोजन विभावोपेक्षा―निमित्तनैमित्तिक योग इसी तरह का है कि सान्निध्य भर है निमित्त का, कर्तृत्व नहीं । उपादान की ऐसी ही कला है कि उस योग में अनुकूल परिणम जाता है । एक पुस्तक है अध्यात्मसूत्र, उसमें एक सूत्र दिया है निमित्त प्राप्योपादानं स्वप्रभावत् याने निमित्त सन्निधान पाकर उपादान अपने प्रभाव वाला होता है । इसमें थोड़े से शब्द हैं मगर सबका समाधान आ गया । निमित्त का कितना स्थान है और उपादान की वहाँ क्या कला है दोनों ही बातें उस सूत्र में आयी हैं । इससे हटने के लिए, असहयोग के लिए यह निमित्तनैमित्तिक का परिचय एक बहुत बड़ा आलंबन है, तब ही तो आचार्यों ने कुंदकुंददेव ने अमृतचंद्र सूरि ने समयसार में निमित्तनैमित्तिक योग का वर्णन बहुत अधिक स्थलों में किया है । आधा भाग में वर्णन निमित्तनैमित्तिक योग के संबंध में है और आधा भाग में वर्णन स्वभावदृष्टि कराने के लिए सीधा स्वरूप का वर्णन है, तो जहाँ निमित्तकर्तृत्व, पर-स्वामित्व और पर निमितता ये तीन बातें आयें वह तो अकल्याण के लिए हैं मिथ्यात्व है उसे तो वस्तु स्वरूप का बोध ही नहीं है कि वस्तु स्वयं अपने आप में अपना सत्त्व रखता है, वह तो इस तरह की धांधलबाजी हुई कि जैसे कोई सोचे कि ईश्वर सबको सुख-दुःख देता है, तो ईश्वर दुःख न दे इस डर के मारे लोग ईश्वर की आराधना करते हैं । वहाँ उमंग की आराधना नहीं है । जहाँ यह विवेचन है कि ईश्वर दुःख देता, सद्गति में पहुंचाता वहाँ तो भगवान की जो पूजा है वह इस भय से है कि दुर्गति न दे । प्रेम दो प्रकार से होता है (1) भय से उठा हुआ प्रेम और (2) लगन से उठा हुआ प्रेम । बच्चे पिता से प्रेम करते हैं तो कोई बच्चा भय से प्रेम करता है और कोई पिता की लगन से प्रेम करता है । लगन का प्रेम किसे होगा भगवान से? जिसे यह श्रद्धा हो कि भगवान का जो स्वरूप है वह मेरा स्वरूप है, जो भगवान का चेतन वैसा मेरा चेतन, और जाति एक ही है, जैसे भगवान ने विभावों से उपेक्षा करके स्वभाव में लगन लगाकर मोक्षमार्ग में बढ़कर परमात्मत्व पद को प्राप्त किया है वैसे ही हमें भी परमात्मत्व पद प्राप्त करना चाहिए । देखिये―सराग चारित्र हुए बिना वीतराग चारित्र नहीं होता और सराग चारित्र छोड़े बिना वीतराग चारित्र नहीं होता, ये दोनों बातें तथ्य की हैं अविरुद्ध निर्णय है । जैसे जो विशिष्ट ज्ञानियों ने जाना वह होता है, यह एक तथ्य है, ऐसे ही जब जिसके जिस विधान से जो कुछ होता है वही देखा गया है भगवान के ज्ञान में दोनों एक साथ अविरोध जानें । यों स्याद्वाद शासन में विसंवाद की कहीं गुंजाइश नहीं है । और, यह ही एक शिक्षा सब जगह दी हुई है कि विभावों से उपेक्षा करना और स्वभाव में लगना ।
682―सहज लक्ष्य के लक्ष्य का महत्त्व―कर्म से बद्ध है यह एक पक्ष है, कर्म से अबद्ध है यह एक पक्ष है, दोनों पक्षों से च्युत होकर जो तत्त्ववेदी है, जिसने सहज चैतन्य स्वभाव का अपने उपयोग में परिचय पाकर एक रस होकर अनुभव किया है वह तत्त्व वेदी है । वहाँ तो बद्ध अबद्ध की चर्चा है नहीं, दूसरी बात है ही नहीं । वहाँ केवल एक ही बात है । जब धनुर्विद्या की परीक्षा लेने के लिए गुरू द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों को खड़ा किया तो मानो सबसे पहले भीम को खड़ा किया धनुषबाण देकर कागज की चिड़िया के सिर पर निशाना लगाने के लिए, तो वहाँ पूछ बैठे कि बताओ भीम तुम्हें इस समय क्या दिखता है? तो भीम बोले―महाराज हमें तो चिड़िया दिखती, वृक्ष दिखता, आप सब दिखते, तो गुरु ने उन्हें अनुत्तीर्ण कर दिया, इसी तरह से बारी-बारी से सभी शिष्यों को निशाना लगाने को कहा और पूछा कि तुम्हें इस समय क्या दिखता है? तो सभी ने वैसा ही उत्तर दिया जैसा कि भीम ने । अंत में जब अर्जुन की बारी आयी तो वहाँ भी गुरु ने पूछा कि तुम्हें इस समय क्या दीखता? तो वहाँ अर्जुन ने कहा―महाराज हमें तो सिर्फ बाण की नोक और कागज की चिड़िया का सिर ये दो ही चीज इस समय दिख रही । तो गुरु ने झट अर्जुन को उत्तीर्ण घोषित कर दिया तो ऐसी ही बात तत्त्ववेदी पुरुष की है, उसका लक्ष्य सदा साक्षात् समयसार के अमृत का पान करने का रहता है, जिसके कर्मबद्ध यह पक्ष नहीं, कर्म अबद्ध यह पक्ष नहीं, ऐसे विकल्प जाल से च्युत हुआ तत्त्ववेदी पुरुष समस्त नयपक्षों को छोड़कर साक्षात् समयसार अमृत का पान करता है । देखो भैया, अपने को अधिकाधिक अकेला बनावें । अकेला रहने में, अकेला बनने में आनंद है । कितना अकेला बनना, बस यह ही तो चर्चा चल रही? इतने अकेले बनें कि हमारी दृष्टि में अन्य बात कुछ न हो, केवल एक सहज ज्ञान समाया हो, भला, जिसकी चर्चा सुनने में आनंद आता है उसका यदि प्रयोग किया जाये तो उसके आनंद का क्या ठिकाना? केवल एक आत्महित की भावना हो, आत्म कल्याण की भावना हो । कैसे हो, मेरा क्या कुशल है, केवल यह ही एक विचार है और दूसरा कोई विचार नहीं ।
683―आत्महितैषी का आदर्श प्रवर्तन―आत्महितैषी की न कोई पार्टी होती, न कोई पक्षपात होता, न कोई मायाचारी होती, न कोई गुप्त गोष्ठी होती कि यों करना चाहिए, यों बनना चाहिए । उसका तो खुला दरबार है―आत्महित करे, और आत्महित के अभिलाषी को दूसरों पर इतनी दया होती कि ये भी उस आत्महित को पायें । आत्महित की भावना से वह इतना विभोर है स्व-पर कल्याण के लिए कि वह किसी धर्मसंस्कृति का विच्छेद नहीं कर सकता । चलो सब तरह के लोग हैं―नाम जैन, स्थापना जैन, द्रव्य जैन और भाव जैन, भाव जैन उच्च प्रकार के लोग हैं, द्रव्य जैन उसके निकट के जैन हैं, स्थापना जैन वे भी बड़े, नाम जैन वे भी बड़े । आपको जब कोई ऐसी दुर्घटना देश में घट जाती है तब यह पता पड़ता कि ये नाम जैन भी कितने काम के हैं । अभी कोई संप्रदाय के नाम पर दंगा हो जाये तो देखो वहाँ नाम जैन कितना काम आते हैं । जैसे एक नगर में एक बार संप्रदाय के नाम पर दंगा हो गया तो कितने ही नाम जैन उसमें काम आये । इसलिए समाज का कोई भी व्यक्ति उपेक्ष्य नहीं । परंपरा चलने दो । साथ ही एक बात और जानें जो बड़े काम की है, इतना तो निश्चित है कि जब तक दिगंबर जैन गुरु रहेंगे तब तक ही दिगंबर जैन श्रावक हैं, तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में साफ-साफ लिखा है कि जिस दिन जैन शासन नष्ट होगा उस दिन चारों ही संघ नष्ट होंगे मुनि, अर्जिका, श्रावक श्राविका । बरबादी होगी चारों की एक साथ, और बरबादी से पहले चारों रहेंगे । इसलिए अपने मन में यह श्रद्धा न लादें कि जैसे अरहंत सिद्ध नहीं होते वैसे ही साधु भी नहीं हो सकते । यदि मन में ऐसी श्रद्धा रहेगी तो इससे ऐसे पातक का बंध है कि जिसका कुछ कहा नहीं जा सकता । आपकी रुचि, आपका मन जहाँ भरता है तो आप उसे ग्रहण कीजिए और यदि नहीं भरता मन, तो न ग्रहण कीजिए । अगर श्रद्धा में ऐसा बैठ जाये कि जैसे अरहंत नहीं होते वैसे गुरू भी नहीं होते तो इस विरुद्ध श्रद्धा में कहीं निशल्य नहीं हो सकते । अपने को देखें, अपना कल्याण करें, अगर कहीं शिक्षा मिलती है तो उसे ग्रहण करें, अगर आपको कुछ आदर्श मिलता है तो उसे ग्रहण करें, मेरी कुशल क्या है, केवल यह बात चित्त में रहनी चाहिए । कुशल किसमें है? स्वभाव के आश्रय में कुशलता है, एक ही बात, जिसमें दो बातें हैं ही नहीं । जो सहज चैतन्यस्वभाव है, जो मेरा एक निरपेक्ष, निरंजन स्वरूप है उस रूप में अनुभव करूं―मैं यह हूँ, तो फिर मुझे कोई झंझट न रहेगी उसका अनुभव जब तक नहीं बनता तब तक उसके लिए सारा झंझट है, जो तत्त्ववेदी है वह पक्षपात से रहित होकर साक्षात् उस समयसार अमृत का पान करता है ।
684―कारण समयसार की शरण्यता―हम एक समयसार भाष्य पीठिका बना रहे थे जिसमें पीठिका की 14 गाथाओं पर भाष्य बनाया, उसमें बड़े-बड़े लंबे वाक्य और उसमें कार्य कारण विधान वगैरह का स्वरूप लक्षण, सब स्वरूप जोड़ते हुए परिच्छेद, शब्द, अर्थ-भावार्थ, तात्पर्य सभी कुछ लिखा जाता है भाष्य में । 14 गाथाओं पर वर्णन हुआ, तो उसके मंगलाचरण में समयसार के 12 या 13 अर्थ किये हैं, तो समयसार शब्द में ही टुकड़े बनाये गए हैं, जैसे समयसार, सम् अयसार आदिक । तो जिसमें समयसार का अर्थ रत्नत्रय, समयसार का अर्थ दस धर्म, समयसार का अर्थ अरहंत आदिक अनेक अर्थ बनते हैं । समयसार का अर्थ आचार्य, उपाध्याय, साधु, ऐसे 12-13 अर्थ हैं । समयसार इस शब्द की व्युत्पत्ति से ये सब अर्थ किए गए हैं । समयसार का मुख्य अर्थ है कारण परमात्मतत्त्व, कारण समयसार, जो विशुद्ध चैतन्य स्वरूप है । कारण समयसार को दो तरह देखा जाता है (1) ओद्यरूप और (2) समुचित रूप । ओद्य कारण समयसार तो प्रत्येक जीव में है―चाहे वह निगोद में हो चाहे सिद्ध हो । चाहे भव्य हो चाहे अभव्य हो, जीव भर हो उसमें ओद्य कारण समयसार है । स्वरूप दृष्टि से भव्य, अभव्य ये दो भेद नहीं हैं अन्यथा द्रव्य 6 की जगह 7 कहे जाते । भव्य जीव, अभव्य जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । 7 द्रव्य नहीं कहे, द्रव्य 6 ही जाति के हैं । अत: जीव मात्र में ओद्य कारण समयसार समझना । भव्य अभव्य में वस्तुत्व का भेद नहीं किंतु भव्य उसे कहते हैं जिसमें रत्नत्रय व्यक्त होने की पात्रता हो, अभव्य उसे कहते हैं जिसमें रत्नत्रय के व्यक्त होने की पात्रता ही नहीं । तो समयसार दो प्रकार का समझना जिसमें ओद्य कारण समयसार तो अभी कहा है, समुचित कारण समयसार सुनो । समुचित कारण समयसार होता है 12 वे गुणस्थान के अंत में, याने जो प्रकट समयसार है, अरहंत अवस्था है उससे पहले की जो अवस्था है वह है समुचित कारण समयसार और ओद्य कारण समयसार अनादि अनंत सर्व जीवों में एक समान वह जो अनादि अनंत नित्य अंत: प्रकाशमान है, लेकिन कषाय चक्र के साथ तिरोहित हुआ है । वह ओद्य कारण समयसार प्रत्येक जीव में है, उसकी आराधना करें, उसी स्वभाव में यह मैं हूँ ऐसी प्रतीति रखनी चाहिए । इस प्रतीति के बिना ही यह अंतर पड़ गया है जिससे सारा जगजाल बन गया । जैसे कोई मानता हो कि मैं इन लड़कों का बाप हूँ तो उसे उस श्रद्धा के अनुरूप परिश्रम, बच्चों की दासतास्वरूप करना ही पड़ेगा, ऐसे ही जो यहाँ शरीर में मानता है कि यह मैं हूँ उसे परतंत्रता का दुःख भोगना ही पड़ेगा, किंतु जो ओद्य कारण समयसार में यह मैं हूँ ऐसी प्रतीति रखता है वह ज्ञानमय अवस्था को प्राप्त होता है ।
685―ज्ञानी का सविवेक प्रवर्तन―ज्ञानमय भाव से ज्ञानमय ही भाव होता है । हमारे गुरूजी थे, श्री गणेश प्रसादजी वर्णी । उन्हें सिंधन चिरौंजा बाई जी ने पढ़ाया था । सिंघेन चिरौंजा बाई जी की सास और हमारे पिता की माँ सगी बहने थी । चिरौंजाबाईजी के पास उनकी ननद ललिताबाई रहती थी । चिरौंजाबाईजी ने ललिता बाई को जब समझा रखा था कि तुम पढ़ी लिखी तो नहीं हो इस कारण कोईसा भी कागज कूड़ा में न जाये, यह ध्यान में रखना । एक बार चिरौंजाबाईजी मंदिर से पूजन करके घर जा रहीं थी, यह सागर की बात थी तो जीने के पास कूड़ा में एक कागज मिला । बाईजी ने उसे उठाया तो उसमें भक्तामर का काव्य लिखा था । बाईजी को बड़ा क्रोध आया और क्रोध में ललिताबाई का चोंटा पकड़कर भींट में दे मारा लेकिन मारने से पहले चिरौंजाबाईजी ने अपना हाथ भींट में लगा रखा था । अब बतलावो कि चोट सिर को लगी या चिरोंजाबाईजी के हाथ को लगी? तो यहाँ देख लो क्रोध ने अपना काम तो किया मगर ज्ञान ने भी अपना काम नहीं छोड़ा । बाईजी के चित्त में दया थी कि ललिता के सिर को चोट न लग जाये तो जो ज्ञानी जीव होते हैं वे किसी भी विकार की हठ नहीं रखते । ज्ञान प्रसंग में भी किसी भी नय का पक्ष नहीं । इस कलश में बताया गया है कि निश्चयनय से तो यह दिखता कि जीव कर्मबद्ध नहीं है और व्यवहार नय से यह दीखता कि जीव में कर्मबद्ध है, किंतु ज्ञानी तथ्य जानकर दोनों नय पक्षपात से हटकर निर्विकल्प स्व की अनुभूति करते हैं और ये ही ज्ञानी साक्षात् समयसार अमृत का पान करते हैं ।