वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 81
From जैनकोष
एकस्य चैको न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।81।।
765―एक व एक निषेध के विकल्प से अतीत शुद्ध चित्स्वरूप का दर्शन―एक नय की दृष्टि में ज्ञात हो रहा है कि जीव एक है तो शुद्धनय की दृष्टि में ज्ञात क्या हो रहा? जब कोई पूछता तब बताते कि वह तो एक है यह भी नहीं । नय की दृष्टि में “एक है ऐसा नहीं” यह विदित हुआ और व्यवहारनय पक्ष में यह जीव एक है ऐसा विदित हुआ किंतु ये दोनों नय पक्षपात हैं । जो इन नयपक्षों से विदित होता है जिसके स्वरूप दृष्टि होती है बस वह ही जानेगा कि वह तो चित् चित् ही है वह न एक का निषेध है, न नाना है, अब कुछ भी विकल्प वहाँ नहीं है । देखो जीव को पहिचानने की जो चार विधियां कही थीं उन्हें समझें । पिंडदृष्टि से जीव को देखो तो यह है गुणपर्यायों का पिंड । जीव क्या है? वह अमूर्त है, आँखों से नहीं दिखता इसलिए किसी को इस पर विश्वास नहीं हो रहा । हो तो दिखायें, अब दिखायें कैसे? और सीधी सी बात जो यह कहते हो कि जीव नहीं है तो समझो जो जीव का निषेध करने बाला है वह ही तो जीव है । वह जीव न हो तो निषेध का विकल्प भी कैसे करे । जो मना करते कि मैं नहीं हूं तो ऐसी मनाही जहाँ उठ रही है वह ही तो जीव है । जीव को समझने के लिए कुछ अधिक परेशानी है नहीं और सुगम रीति से बताया है अहं प्रत्ययवेद्य । यह जीव अहंप्रत्ययवेद्य है, जिसमें मैं की समझ बन रही है वह ही तो जीव है । हर एक कोई सोचता है मैं । यह क्या यह मैं यह शरीर है? शरीर तो यहीं पड़ा रहता और वह मैं इसे छोड़कर चला जाता । यह मैं मैं हूँ, प्रत्येक को यह बोध है कि मैं हूँ पर यह सुधार करना है कि वह मैं क्या हूँ, मैं यह क्या हूँ, यहाँ सुधार करने की आवश्यकता हुई, मैं हूँ ऐसा ज्ञान सबको चल रहा है । अगर उस हूँ का बोध न हो तो जीव सुख दुख नहीं पा सकता । तो उस हूँ का ज्ञान सबको है पर मैं क्या हूँ, बस इसके निर्णय की तारीफ है कि कोई संसार में रुलता कोई मुक्तिमार्ग में चलता है । अपना सहज ज्ञानस्वरूप, चैतन्यस्वरूप याने अपने आप पर के संबंध बिना पर की अपेक्षा बिना अपने आप स्वयं जो कुछ है सत्त्व में, उसरूप कोई मान ले कि मैं यह हूँ वह इस भाव में भी आनंद में रहेगा, भविष्य में भी आनंद में रहेगा, शाश्वत आनंद पालेगा ।
767―आत्मा के पारमैश्वर्य की एक मोटी झांकी―हूँ का निर्णय पूर्ण एक जिम्मेदार निर्णय है, यहाँ की भूल में उल्टा खेल बन रहा है अपनी सही सुध में उसको सही मार्ग मिल जाता है । जैसे इस जीव को ईश्वर कहते हैं, सचमुच यह अपनी सृष्टि करने में समर्थ है । ईश्वर उसी का नाम है जो अपनी सृष्टियां करने में स्वतंत्र है । अच्छा तो अब यह ईश्वर देखो इसमें कितना परम ऐश्वर्य है । यदि यह बिगड़ जाये तो भी अपना चमत्कार दिखाता है और अगर यह सुधर गया तो फिर इसके चमत्कार का कहना ही क्या? भला बतलाओ यह कोई कम बात है क्या, कि यह कभी पेड़ बन गया तो नाना प्रकार के फूल पत्तियों रूप फैल गया ऐसे नसजाल हो गए, ऐसी-ऐसी शाखायें हो गई, ये सब बातें बन गई अथवा और-और चीजें कीड़ा मकौड़ा बने, अनेक प्रकार के जो परिवर्तन बनते हैं, देह बनते हैं, और-और भी बन रहे हैं तो यह सब क्या है? यह सब उस बिगड़े हुए ईश्वर की करामात है, यह भी कोई कम करामात है क्या? यहाँ कोई वैज्ञानिक बिना जीव के पेड़ खड़ा करके तो दिखा दे । और तो जाने दो पसीना, मल, मूत्र भी तो बना सकते । तो यह बिगड़ी लीला की बात है । बिगड़ गया तो यह कला है और सुधर गया तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र की कला है । अभी यहीं कोई बड़ा आदमी बिगड़ जाये तो वह अद᳭भुत काम कर ही डालेगा । जो लोग कहते हैं कि ईश्वर का जाल है तो वह सब सच है । झूठ नहीं बोला । मगर वे नय तो बता दें कि किस दृष्टि से वे यह बात कह रहे हैं । तो देख लो यह बिगड़े हुए उस ईश्वर का जाल है ऐसा उन्होंने समझा मगर यह है बिगड़े हुए अनंत ईश्वरों का जाल । बिगड़ गया तो भी इसकी अद्भुत लीला है और सुधर गया तो भी इसकी अद्भुत लीला है । इसमें पारमैश्वर्य है । देखो जो कुछ है वह सब यहाँ के निर्णय पर चल रहा है । यहाँ के विचार पर । यहाँं के विचार पर कथन यों पढ़ा था वेदांत की जागदीशी टीका में कि एक पुरूष भीषण गर्मी के दिनों में कहीं जा रहा था । बडी कड़ाके की धूप थी । उसके मन में आया कि यदि कहीं छाया मिलती तो बड़ा अच्छा होता तो कुछ ही दूर पहुंचने पर उसे एक छायादार पेड़ मिला । वह पेड़ था कि कल्पवृक्ष । उस कल्पवृक्ष के नीचे वह बैठ गया । वहाँ वह पुरूष विचार करता है कि छायादार पेड़ तो मिल गया । अब यदि तेज हवा चलती तो बड़ा अच्छा होता । तो तेज हवा भी चल गई । वह कल्पवृक्ष था, उसके नीचे बैठकर जो सोचे सो हो । फिर सोचा कि हवा तो चल गई अब तो यदि पीने को कहीं पानी मिलता तो कितना अच्छा होता । तो एक लोटा पानी भी सामने हाजिर हो गया । पानी पीकर वह पुरुष विचार करता है कि पानी तो मिल गया अब तो यदि कुछ फल फूल मिलते तो बड़ा अच्छा होता । तो थाल में सजे हुए फल भी सामने हाजिर हो गए । उन्हें खाकर वह सोचने लगा कि यह सब क्या हो रहा है? कहीं कोई भूत तो नहीं है जो यह सब काम कर रहा हो । तो उसके सामने भूत ही हाजिर हो गया । फिर सोचा अरे यह भूत कहीं हमें खा न जाये तो लो खा भी गया, तो जैसे कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर उसने भला बुरा जो जैसा विचारा वैसा हुआ । ऐसे ही यह आत्मस्वरूप भी एक कल्पवृक्ष है, यह भला विचारे तो भला होगा, बुरा विचारे तो बुरा होगा ।
767―जीवभावों का प्रासंगिक विश्लेषण―देखिये मिथ्यात्व नाम किसका? राग में राग होने का नाम है मिथ्यात्व । राग होने का नाम मिथ्यात्व नहीं, राग तो ज्ञानी के भी चलता, 10वें गुणस्थान तक चलता मगर राग में राग बनना यह है मिथ्यात्व । मोह में और राग में अंतर क्या है । ऊपर से देखो तो एकसी क्रिया लग रही । ज्ञानी के भी राग है और अज्ञानी के भी मगर इन दोनों में फर्क यह है कि ज्ञानी पुरुष के उस राग में राग नहीं है और अज्ञानी पुरुष के उस राग में राग है । अज्ञानी पुरुष तो उस राग में लगना चाहता और ज्ञानी पुरुष उस राग से हटना चाहता । कहीं ऐसा नहीं है कि उस राग का प्रभाव अज्ञानी पर तो हो रहा और ज्ञानी पर नहीं । प्रभाव ज्ञानी पर भी होता, ज्ञानी पुरुष भी उस राग में क्षुब्ध हो जाता मगर भीतर में वह सावधान है, वह उस राग में फसना नहीं चाहता । उस राग को वह अपनाना नहीं चाहता । इसलिए उस ज्ञानी के निरंतर धर्मरूप निर्जरा है । जीव में एक समय में एक ही तो पर्याय है, मानो वह पर्याय ऐसी जगह में आ गई कि 100 अंशों में 60 अंश राग नहीं रहा 40 अंश राग है ऐसी स्थिति पर वह पहुंच गया । तो वह परिणाम तो एक है । वह एक ही परिणाम आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा चारों का हेतुभूत बनता है, मगर जितने अंश में राग नहीं है उतनी कला के कारण तो संवर निर्जरा चल रही है, जितने में राग है उतनी कला के कारण आस्रव बंध चलता है । परिणाम एक है, ज्ञानी का शुभोपयोग ऐसा नहीं है कि केवल शुभ ही शुभ है वहाँ शुद्धोपयोग अंश नहीं । आंशिक शुद्धोपयोग साथ चला है मगर मुख्यता की अपेक्षा छठे गुणस्थान तक के जीवों को शुभोपयोगी कहा गया है । तीसरे गुणस्थान तक अशुभोपयोग नाम दिया है, छठे गुणस्थान तक शुभोपयोग नाम दिया है । यहाँ यद्यपि शुद्धोपयोग का अंश प्रकट है तो भी मुख्यता शुभोपयोग की है । यह कोई न जाने कि जो शुभोपयोग का परिणाम है उसे संवर, निर्जरा, आस्रव, बंध कैसे है क्योंकि वह शुभोपयोग है तो शुद्धोपयोग आंशिक लिए हुए है । यह तो नाम धरने की बात है । शुद्धोपयोग ही नाम धर दे उसे तो वहाँ बड़ी गड़बड़ी चलेगी । देखो ऐसा होता है कि जहाँ दोष अधिक होता है वहाँ अवगुण वाला नाम धरा जाता है गुण वाला नहीं । तो शुभोपयोग में छठे गुणस्थान की मुख्यता होने का नाम तो धरा शुभोपयोग । अब विवाद लोग करते हैं तो शब्द पर विवाद कर बैठते हैं कि कहीं शुभोपयोग संवर निर्जरा का कारण है, पर यह नहीं जानता कि उस शुभोपयोग में भी शुद्धता बसी हुई है । उस शुद्धता के कारण सम्वर निर्जरा है । जितना शुद्धोपयोग का अंश है उसके कारण सम्वर निर्जरा है । नाम से विवाद न करें । शब्द है, उसका रहस्य समझना चाहिए । राग से कहीं सम्वर निर्जरा नहीं होती । संवर निर्जरा होती है ज्ञान वैराग्य से मगर वह शुभोपयोग उस पद का है कि जहाँ ज्ञान वैराग्य है और राग भी साथ है । नाम तो एक ही रखा जायेगा । राग और मोह का अंतर बताया ही था कि कोई रईस बीमार हो गया तो उसके आराम के लिए बड़े-बड़े साधन जुटाये जाते, डाक्टर समय पर दवा देता, समय-समय पर वह दवा खाता, उस दवा से उसे बड़ा राग है क्योंकि दवा मिलने में देर हो जाये तो वह खूब झुंझलाता मगर वह रईस चाहता है क्या कि मुझे जिंदगी भर ऐसी ही औषधि मिलती रहे? नहीं चाहता । उससे पूछो तो वह तो यही कहेगा कि मैं दवा इसलिए पीता कि जल्दी ही दवा पीना छूट जाये । तो देखो दवा में राग होते हुए भी उस राग में राग नहीं है कि मुझे ऐसी दवा जिंदगी भर मिलती रहे । ज्ञानी के राग होते हुए भी राग में राग नहीं है कि ऐसी संपदा ऐसा वैभव, ऐसी चीज हमें सदा मिलती रहे, जबकि मोही जीव के चित्त में यह बात बसी है कि इससे बढ़कर और ठाठ क्या है ।
768―मुक्ति की प्रतीक्षा में सन्मार्ग का दर्शन―एक आदमी रोज-रोज भगवान से प्रार्थना करता कि हे भगवान ! मुझे मुक्ति दे । मोक्ष दे । तो एक दिन मानो कोई देव आया और कहा चलो हम तुम्हें मुक्ति दिला दें । तो वह पुरुष बोला बड़ी अच्छी बात है, हम तो मुक्ति चाहते ही हैं, चलो दिलावो मुक्ति । मगर यह तो बताओ कि उस मुक्ति में धन वैभव भी है क्या?....नहीं, स्त्री पुत्रादिक परिजन भी हैं क्या?....नहीं? चाय पानी वगैरह खाने पीने की सब चीजें हैं कि नहीं?....नहीं ।....तो फिर नहीं चाहिए हमें ऐसी मुक्ति । इस मोक्ष की अंदरूनी चाह किसके है? कोई सोचे कि स्वर्ग से भी अधिक आनंद मुक्ति में है तो ठीक है, स्वर्ग का आनंद तो सबने सुन रखा है । मगर उससे भी अधिक आनंद मोक्ष में है, यह बात सुनकर भला ऐसा कौन होगा जिसे मोक्ष की चाह न होगी । मोक्ष तत्त्व के श्रद्धान में बताया है शिवरूप निराकुलता न जोय याने जो मोक्ष शिवस्वरूप है, निराकुलता रूप है उसकी जो बाट नहीं जोहता वह अज्ञानी है, आपको मानो किसी से बड़ा राग है, उसने आपसे कह दिया कि हम कल 8 बजे सुबह आपसे मिलेंगे । अब आप दूसरे दिन उसका इंतजार सबेरे-सबेरे से ही करने लगते । जब 8 बजते समय तक वह नहीं मिल पाता तो आप बड़ा विषाद मानते । तो ऐसी ही मोक्ष की भी बाट जोहनी होगी । तत्त्वज्ञानी पुरुष को मोक्ष ही रुचता है, दूसरा कुछ न रुचेगा तो फिर मोक्षमार्ग में चलने वाले लोग रुचेंगे, मोक्षमार्ग की सारी बात रुचेगी । तो राग में राग नहीं ।
769―एक की कल्पना में स्वाभावानुभव का तिरोभाव―अच्छा सब जान लिया । यह राग विभाव है, राग परभाव है, राग मेरा स्वरूप नहीं, विचार विकल्प ये भी मेरे स्वरूप नहीं । जान गए, वह चैतन्यस्वरूप जो है सो एक है, चैतन्यस्वरूप है और वह एक है । ऐसा जो बोध कर रहा बताओ कुछ बिगाड़ कर रहा क्या? वह चित्स्वरूप एक है, नाना नहीं । नाना में तो उसने पर्याय तकी, तब ही तो कहेंगे कि नाना है मगर वह तो अखंड स्वभाव तक रहा । उसे देखकर कह रहा है कि एक है, मगर ऐसा एक मानने में एक बिगाड़ क्या आया? उस एक के मानने में उसका एक व्यक्तिपना आ गया, मायने एक सीमा आ गई । एक की तो सीमा होती है, एक इतने में है, एक इतनी जगह में है, यों सीमा आयी कि नहीं? तो आत्मा का अखंड स्वभाव एक है । जैसे कहते हैं कि यह निश्चयनय का विषय है, अरे वह व्यवहारनय का विषय है । आत्मा एक है । तो जहाँ एक के रूप में जाना वहाँ उसकी सीमा बँध गई । यह मैं एक हूँ, एक जहाँ जाना वहाँ क्षेत्र दृष्टि प्रबल बन गई । मैं अकेला एक । तो एक के जानने में इतना जाना गया कि इतने लंबे चौड़े में रहने वाला वह एक । ऐसे ही जीव एक । ऐसा एक जानन के समय में अखंड स्व का अनुभव बन रहा क्या? स्वानुभूति हो रही क्या? नहीं हो रही । तो 'एक नहीं' 'एक है', ऐसा नयपक्ष में बोलते । आत्मा के अखंड स्वभाव को निरखकर भी एक है ऐसा बोलना यह भी व्यवहारनय से बना । तो शुद्धनय में क्या है? एक है ऐसा भी नहीं, तब ही तो वह स्वभाव में उतरेगा । जब तक उस स्वभाव के प्रति एक है इस तरह की सीमा बाँधेंगे तब तक वह स्वानुभूति में न उतरेगा और अब वह एक को भी मना करेगा तो वह स्वानुभूति में उतर रहा याने कितना निकट का परिवर्तन जरा चलो, जरा देखो तो सही । तो जो नेति सोच रहा, वह निकट पहुंच रहा, मगर उस काल में स्वानुभूति नहीं । एक है यह भी पक्ष छूटे, एक नहीं है यह भी पक्ष छूटे तो वहाँ तत्त्ववेदी जानता है कि, वह तो चित् चित् ही है । कैसा निकल करके कैसा अंदर में प्रवेश कर रहा ।
770―बाहर से आकर अंत:प्रवेश में निकट निकटतर व निकटतम कदम―मान लो तुम्हारे इस खंडवा शहर का ही कोई भाई अमेरिका में रह रहा है । जब वह वहाँ से रवाना होता है तो कोई पूछता कि भाई कहाँ जा रहे हो? तो वह कहता एशिया जा रहे । जब एशिया के निकट आया वहाँ किसी ने पूछा कहां जा रहे? तो वह कहता इंडिया, जब इंडिया के किनारे आया, कहां जा रहे? बंबई । जब बंबई आया....कहां जा रहे?....खंडवा, जब खंडवा आया, कहां जा रहे?.....रामगंज मोहल्ला, जब रामगंज मोहल्ला में आया,....कहाँ जा रहे? अमुक नंबर के मकान में । वहाँ पहुंचकर अपने आराम के कमरे में बैठकर विश्राम करता है, तो देखिये जैसे उसने घर आने का लक्ष्य बनाया तो निकट-निकट में सब बातें आयीं, ऐसे ही मुक्ति के निकट पहुंचने का जिसने लक्ष्य बनाया उसके सामने भी निकट-निकट की बातें गुजरेगी । गुजरने की बातें तो अनेक हैं मगर लक्ष्य उसका एक है । जैसे उस पुरुष ने अमेरिका से घर आने का लक्ष्य बनाया तो पहले घर के लिए पत्र दिया, टिकिट रिजर्व कराया....लक्ष्य तो एक है मगर गुजरा कहां-कहां से । गुजरे बिना तो नहीं आता । तो यही चीज यहाँ है मुक्ति के मार्ग में । जिसने मुक्ति का लक्ष्य बनाया उसके सामने श्रावक धर्म, मुनि धर्म ही सब बातें आयेगी, इनसे गुजरे बिना कोई पार नहीं पाता, यह निश्चित है, मगर जो गुजरने वाला है उसका लक्ष्य पहले से वह ही है, जीव आनंदधाम है । अब देखो उपचार से हटा, व्यवहार में आया सैकड़ों तरह के व्यवहारनय भी रोका धीरे-धीरे चलते-चलते वहाँ से पार हुआ, फिर निश्चयनय में आया । निश्चय में भी व्यवहार पड़ा है । अशुद्ध निश्चयव्यवहार, शुद्ध निश्चयव्यवहार । और व्यवहार के जो चार प्रकार हैं सद्भूत व्यवहार, उपचरित व्यवहार, उपचरित सद्भूत व्यवहार, अनुपचरित असद्भूत व्यवहार, ये भी व्यवहारनय हैं । उपचार नहीं है । नाम भले ही उपचरित पड़ा है, मगर नाम तो उपचरित उपचार है, जैसे अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय । इसका विषय क्या है? वह रागभाव है । बुद्धि में नहीं आ रहा वह अनुपचरित असद्भूत । कौन सा राग? अबुद्धिपूर्वक राग । श्रेणी में रहने वाले मुनियों का राग भी अबुद्धिपूर्वक है सो अनुपचरित असद्भूत । और उपचरित असद्भूत जो बिल्कुल कंडम है, वह बुद्धिपूर्वक राग यह जीव का है, ऐसा बोले तो उपचरित असद्भूत ने भी निश्चयनय से संबंध रख लिया ।....कैसे?....अशुद्धनिश्चयनय भी यह ही कहता है कि राग जीव का है । एक द्रव्य को देखकर बोलता और उपचरित असद्भूत ने भी यह ही कहा कि जीव का राग है मगर नाम यहाँ क्यों धर दिया? उपचरित कारण के विषय में आया इसलिए तो उपचरित है, जीव का स्वभाव नहीं है, इसलिए असद्भूत है और बोलकर बता रहे इसलिए व्यवहार है । तो अब आप समझिये कि कितनी ही खाड़ियां पार करके कहाँ आना पड़ा? नेति, ऐसा विषय करने वाले शुद्धनय में, जिसके बाद एकदम डुबकी लगाकर रह जाना है, स्वानुभूति के निकट का कोई विकल्प है तो शुद्धनय विकल्प है जिसके बाद विकल्प रहे, स्वानुभूति में प्रवेश करे । एक नय की दृष्टि में जीव एक है, शुद्धनय की दृष्टि में जीव एक है ऐसा नहीं है ऐसा विधि और निषेध दोनों विकल्पों से अतिक्रांत होकर तत्त्ववेदी जो है उसके लिए तो चित् चित् ही है ।