GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 42 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब आत्मा के ज्ञानादिगुणों के साथ संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी निश्चय से प्रदेशों की अभिन्नता और मति आदि अनेक ज्ञानता को तीन गाथाओं द्वारा व्यवस्थापित करते हैं--
ण वियप्पदि विकल्पित नहीं होता, भेद से पृथक् नहीं किया जा सकता । वह कौन पृथक् नहीं किया जा सकता ? णाणी ज्ञानी पृथक् नहीं किया जा सकता । किससे नहीं किया जा सकता ? णाणादो ज्ञानगुण से पृथक नहीं किया जा सकता ।
प्रश्न - तब तो फिर ज्ञान भी एक होगा ?
उत्तर - ऐसा नहीं है । णाणाणि होंति णेगाणि मति आदि ज्ञान अनेक हैं, जिस कारण ज्ञान अनेक होते हैं; तम्हा दु विस्सरूवं भणियं उस कारण अनेक ज्ञानगुण की अपेक्षा विश्वरूप, अनेक रूप कहा गया है । कौन कहा गया है ? दवियत्ति जीवद्रव्य कहा गया है । किनके द्वारा कहा गया है ? णाणीहिं हेयोपादेय विचारक ज्ञानियों द्वारा कहा गया है ।
वह इसप्रकार --
- एक अस्तित्व से रचित होने के कारण एक द्रव्यत्व होने से,
- एक प्रदेश से रचित होने के कारण एक क्षेत्रत्व होने से,
- एक समय से रचित होने के कारण एक कालत्व होने से,
- मूर्त एक जड़ स्वरूप होने के कारण एक स्वभावत्व होने से
- एक अस्तित्व से रचित होने के कारण एक द्रव्यत्व होने से,
- लोकाकाश प्रमाण असंख्येय अखण्ड एक प्रदेश होने के कारण एक क्षेत्रत्व होने से,
- एक समय से रचित होने के कारण एक कालत्व होने से,
- एक चैतन्य से रचित होने के कारण एक स्वभावत्व होने से
अथवा शुद्धजीव की अपेक्षा
- शुद्ध एक अस्तित्व से रचित होने के कारण एक द्रव्यत्व होने से,
- लोकाकाश प्रमाण असंख्येय अखण्ड एक शुद्ध प्रदेशत्व होने के कारण एक क्षेत्रत्व होने से,
- निर्विकार चित् चमत्कार मात्र परिणति रूप वर्तमान एक समय से रचित होने के कारण एक कालत्व होने से और
- निर्मल एक चित् ज्योति स्वरूप होने के कारण एक स्वभावत्व होने से