वाद
From जैनकोष
चौथे नरक का छठा पटल। - देखें नरक - 5.11।
हार-जीत के अभिप्राय से की गयी किसी विषय संबंधी चर्चा वाद कहलाता है। वीतरागीजनों के लिए यह अत्यंत अनिष्ट है। फिर भी व्यवहार में धर्म प्रभावना आदि के अर्थ कदाचित् इसका प्रयोग विद्वानों को सम्मत है।
- वाद व विवाद का लक्षण
देखें कथा (न्याय/3) (प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण करने के लिए अथवा हार-जीत के अभिप्राय से हेतु या दूषण देते हुए जो चर्चा की जाती है वह विजिगीषु कथा या वाद है।)पंच
न्यायदर्शन सूत्र/मू./1/2/1/41 प्रमाणतर्कसाधनोपलंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचवयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः।1। = पक्ष और प्रतिपक्ष के परिग्रहको वाद कहते हैं। उसके प्रमाण, तर्क, साधन, उपालंभ; सिद्धांत से अविरुद्ध और पंच अवयव से सिद्ध ये तीन विशेषण हैं। अर्थात् जिसमें अपने पक्ष का स्थापन प्रमाण से, प्रतिपक्ष का निराकरण तर्क से परंतु सिद्धांत से अविरुद्ध हो; और जो अनुमान के पाँच अवयवों से युक्त हो, वह वाद कहलाता है।
स्याद्वादमंजरी/10/107/8 परस्पर लक्ष्मीकृतपक्षाधिक्षेपदक्षः वादी-वचनोपन्यासो विवादः। तथा च भगवान् हरिभद्रसूरिः - ‘लब्ध्यख्यात्यर्थिना तु स्याद् दुःस्थितेनामहात्मना। छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः। = दूसरे के मत को खंडन करने वाले वचन का कहना विवाद है। हरिभद्रसूरि ने भी कहा है, ‘‘लाभ और ख्याति के चाहने वाले कलुषित और नीच लोग छल और जाति से युक्त जो कुछ कथन करते हैं, वह विवाद है।’’
- संवाद व विसंवाद का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/1 विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम्।
सर्वार्थसिद्धि/7/6/345/12 ममेदं तवेदमिति सधर्मिभिरसंवादः। =- अन्यथ प्रवृत्ति (या प्रतिपादन- राजवार्तिक ) करना विसंवाद है । ( राजवार्तिक/6/22/2/528/11 )।
- ‘यह मेरा है, यह तेरा है’ इस प्रकार साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना चाहिए । ( राजवार्तिक/7/6/536/19 ); ( चारित्रसार/94/5 ) ।
न्या, वि./वृ./1/4/118/13 संवादो निर्णय एवं ‘नातः परो विसंवादः’ इति वचनात्। तदीभावो विसंवादः। = संवाद निर्णय रूप होता है, क्योंकि ‘इससे दूसरा विसंवाद है’ ऐसा वचन पाया जाता है। उसका अभाव अर्थात् निर्णय रूप न होना और वैसे ही व्यर्थ में चर्चा करते रहना, सो विसंवाद है।
- वीतराग कथा वाद रूप नहीं होती
न्यायदीपिका/3/#34/80/2 केचिद्वीतरागकथा वाद इति कथयंति तत्पारिभाषिकमेव । न हि लोके गुरुशिष्यादिवाग्व्यापारे वादव्यवहरे। विजिगीषुवाग्व्यवहार एव वादत्वप्रसिद्धेः। = कोई (नैयायिक लोग) वीतराग कथा को भी वाद कहते हैं। (देखें आगे शीर्षक नं - 5) पर वह स्वग्रहमान्य अर्थात् अपने घर की मान्यता ही है, क्योंकि लोक में गुरु-शिष्य आदि की सौम्य चर्चा को वाद या शास्त्रार्थ नहीं कहा जाता। हाँ, हार-जीत की चर्चा को अवश्य वाद कहा जाता है।
- वितंडा आदि करना भी वाद नहीं है वादाभास है
न्यायविनिश्चय/मू./2/215/244 तदाभासो वितंडादिः अभ्युपेताव्यवस्थितेः। = वितंडा आदि करना वादाभास है, क्योंकि उससे अभ्युपेत (अंगीकृत) पक्ष की व्यवस्था नहीं होती है।
- नैयायिकों के अनुसार वाद व वितंडा आदि में अंतर
न्यायदर्शन सूत्र/टिप्पणी/1/2/1/41/26 तत्र गुर्वादिभिः सह वादः विजिगीषुणा सह जल्पवितंडे । = गुरु, शिष्य आदिकों में वाद होता है और जीतने की इच्छा करने वाले वादी व प्रतिवादी में जल्प व वितंडा होता है।
- वादी का कर्त्तव्य
सिद्धि विनिश्चय/वृ./5/10/335/21 वादिना उभयं कर्त्तव्यम् स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणम्।
सिद्धि विनिश्चय/वृ./5/11/337/16 विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्यं स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणम् । = वादी या जीत की इच्छा करने वाले विजिगीषु के दो कर्त्तव्य हैं - स्वपक्ष में हेतु देना और परपक्ष में दूषण देना।
- मोक्षमार्ग में वाद-विवाद का निषेध
तत्त्वार्थसूत्र/7/6 सधर्माविसंवादाः। = सधर्मियों के साथ विसंवाद अर्थात् मेरा तेरा न करना यह अचौर्य महाव्रत की भावना है।
योगसार अमितगति / अधिकार संख्या /7/33 वादानां प्रतिवादानां भाषितारो विनिश्चितं। नैव गच्छंति तत्त्वांतं गतेरिव विलंबितः।33। = जो मनुष्य वाद-प्रतिवाद में उलझे रहते है, वे नियम से वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं हो सकते।
नियमसार/ मूल /156 तम्हा सगपरसमए वयणविवादं ण कादव्वा। इति । = इसलिए परमार्थ के जानने वालों को स्वसमयों तथा परसमयों के साथ वाद करने योग्य नहीं है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/224/ प्रक्षेपक गा.8 की टीका/305/10 इदमत्र तात्पर्यम्स्वयं वस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यं परं प्रति विवादो न कर्त्तव्यः। कस्मात्। विवादे रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति, ततश्च शुद्धात्मभावना नश्यतीति । = यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि स्वयं वस्तुस्वरूप को जानना ही योग्य है। पर के प्रति विवाद करना योग्य नहीं, क्योंकि विवाद में रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, जिससे शुद्धात्म भावना नष्ट हो जाती है। (और उससे संसार की वृद्धि होती है); ( द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/6 )।
- परधर्म हानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले अन्यथा चुप रहें
भगवती आराधना/836/971 अण्णस्स अप्पणो वा विधम्मिए विद्दवंतए कज्जे। जं अ पुच्छिज्जंतो अण्णेहिं य पुच्छिओ जपं।836। = दूसरों का अथवा अपना धार्मिक कार्य नष्ट होने का प्रसंग आने पर बिना पूछे ही बोलना चाहिए। यदि कार्य विनाश का प्रसंग न हो तो जब कोई पूछेगा तब बोलो। नहीं पूछेगा तो न बोलो।
ज्ञानार्णव/9/15 धर्मनाशे क्रियाध्वं से सुसिद्धांतार्थविप्लवे। अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ।15। = जहाँ धर्म का नाश हो क्रिया बिगड़ती हो तथा समीचीन सिद्धांत का लोप होता हो उस समय धर्मक्रिया और सिद्धांत के प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी विद्वानों को बोलना चाहिए।
- अन्य संबंधित विषय
- योगवक्रता व विसंवाद में अंतर। - देखें योगवक्रता ।
- वस्तु विवेचना का उपाय। - देखें न्याय - 1।
- वाद व जय पराजय संबंधी। - देखें न्याय - 1।
- अनेकों एकांतवादों व मतों के लक्षण निर्देश आदि। - देखें वह वह नाम।
- वाद में पक्ष व हेतु दो ही अवयव होते हैं। - देखें अनुमान - 3।
- नैयायिक लोग वाद में पाँच अवयव मानते हैं। - देखें वाद - 1।
- योगवक्रता व विसंवाद में अंतर। - देखें योगवक्रता ।