अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [सत्ताभूत प्रकृतियों का अपने-अपने बंध के साथ संभवती यथायोग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अध:प्रवृत्त है। इसका भागाहार पल्य/असंख्यात, जो स्पष्टत: ही विघ्यात से असंख्यातगुणा हीन है। अत: इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विघ्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।</p> | <p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [सत्ताभूत प्रकृतियों का अपने-अपने बंध के साथ संभवती यथायोग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अध:प्रवृत्त है। इसका भागाहार पल्य/असंख्यात, जो स्पष्टत: ही विघ्यात से असंख्यातगुणा हीन है। अत: इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विघ्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।</p> | ||
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बंधकाल में या उस प्रकृति की बंध की योग्यता रखने पर उस ही गुणस्थान में होता है जिसमें कि वह प्रकृति | बंधकाल में या उस प्रकृति की बंध की योग्यता रखने पर उस ही गुणस्थान में होता है जिसमें कि वह प्रकृति बंध से व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्य का होता है सर्व द्रव्य का नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विघ्यात संक्रमण प्रारंभ हो जाते हैं। क्रोध को प्रत्याख्यानादि स्व जाति भेदों में अथवा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियम से फालीरूप होता है। अंतर्मुहूर्त पर्यंत ही होता है। कांडकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमण में इतना भेद है कि फालिरूप में तो अंतर्मुहूर्त पर्यंत बराबर भागाहार हानि क्रम से उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और कांडक रूप में वर्तमान समय से लेकर एक-एक अंतर्मुहूर्त काल बीतने पर भागाहार क्रम से इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात् संक्रमण करने के लिए निश्चित करता है। एक अंतर्मुहूर्त तक संक्रमाने के लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे कांडक कहते हैं। उस द्रव्य को अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत विशेष चय हानि क्रम से खपाता है। उसके समाप्त हो जाने पर अगले अंतर्मुहूर्त के लिए अगला कांडक उठाता है।]</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार | <p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/9 बंधप्रकृतीनां स्वबंधसंभवविषये य: प्रदेशसंक्रम: तदध:प्रवृत्तसंक्रमणं नाम।</span> = <span class="HindiText">बंध हुई प्रकृतियों का अपने बंध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रम होना वह अध:प्रवृत्त संक्रमण है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="6.2"><strong>2. यह नियम से फालीरूप होता है</strong></p> | <p class="HindiText" id="6.2"><strong>2. यह नियम से फालीरूप होता है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार | <p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575/7 तत्राध:प्रवृत्तसंक्रम: फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रम: कांडकरूपेण वर्तते। | ||
</span> = <span class="HindiText">(मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक् व मिश्र का | </span> = <span class="HindiText">(मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक् व मिश्र का अंतर्मुहूर्त के पश्चात् उपांत कांडक पर्यंत) अध:प्रवृत्तसंक्रमण फालिरूप प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण कांडक रूप से प्रवर्तता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="6.3"><strong>3. मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता</strong></p> | <p class="HindiText" id="6.3"><strong>3. मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार | <p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/416/578/7 अध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य, 'सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात् (गो.क./411) | ||
</span>= <span class="HindiText">(प्रकृतियों के | </span>= <span class="HindiText">(प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यंत) अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है, परंतु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। क्योंकि 'सम्मं मिच्छं मिस्सं' इत्यादि गाथा के द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं (देखें [[ संक्रमण#3.4 | संक्रमण - 3.4]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="6.4"><strong>4. सम्यक् व मिश्र प्रकृति के अध:प्रवृत्त संक्रम योग्य काल</strong></p> | <p class="HindiText" id="6.4"><strong>4. सम्यक् व मिश्र प्रकृति के अध:प्रवृत्त संक्रम योग्य काल</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> गोम्मटसार | <p><span class="PrakritText"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575 मिच्छे सम्मिस्साणं अध:पवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है।</span></p> | ||
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Revision as of 16:16, 19 August 2020
अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
1. अध:प्रवृत्त संक्रमण का लक्षण
नोट - [सत्ताभूत प्रकृतियों का अपने-अपने बंध के साथ संभवती यथायोग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अध:प्रवृत्त है। इसका भागाहार पल्य/असंख्यात, जो स्पष्टत: ही विघ्यात से असंख्यातगुणा हीन है। अत: इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विघ्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।
बंधकाल में या उस प्रकृति की बंध की योग्यता रखने पर उस ही गुणस्थान में होता है जिसमें कि वह प्रकृति बंध से व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्य का होता है सर्व द्रव्य का नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विघ्यात संक्रमण प्रारंभ हो जाते हैं। क्रोध को प्रत्याख्यानादि स्व जाति भेदों में अथवा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियम से फालीरूप होता है। अंतर्मुहूर्त पर्यंत ही होता है। कांडकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमण में इतना भेद है कि फालिरूप में तो अंतर्मुहूर्त पर्यंत बराबर भागाहार हानि क्रम से उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और कांडक रूप में वर्तमान समय से लेकर एक-एक अंतर्मुहूर्त काल बीतने पर भागाहार क्रम से इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात् संक्रमण करने के लिए निश्चित करता है। एक अंतर्मुहूर्त तक संक्रमाने के लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे कांडक कहते हैं। उस द्रव्य को अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत विशेष चय हानि क्रम से खपाता है। उसके समाप्त हो जाने पर अगले अंतर्मुहूर्त के लिए अगला कांडक उठाता है।]
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/413/576/9 बंधप्रकृतीनां स्वबंधसंभवविषये य: प्रदेशसंक्रम: तदध:प्रवृत्तसंक्रमणं नाम। = बंध हुई प्रकृतियों का अपने बंध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रम होना वह अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
2. यह नियम से फालीरूप होता है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575/7 तत्राध:प्रवृत्तसंक्रम: फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रम: कांडकरूपेण वर्तते। = (मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक् व मिश्र का अंतर्मुहूर्त के पश्चात् उपांत कांडक पर्यंत) अध:प्रवृत्तसंक्रमण फालिरूप प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण कांडक रूप से प्रवर्तता है।
3. मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/416/578/7 अध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य, 'सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात् (गो.क./411) = (प्रकृतियों के बंध होने पर अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यंत) अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है, परंतु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। क्योंकि 'सम्मं मिच्छं मिस्सं' इत्यादि गाथा के द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं (देखें संक्रमण - 3.4)।
4. सम्यक् व मिश्र प्रकृति के अध:प्रवृत्त संक्रम योग्य काल
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/412/575 मिच्छे सम्मिस्साणं अध:पवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अंतर्मुहूर्त पर्यंत तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है।