अभयदान: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> कर्म बंध के कारणों को त्याग करने की इच्छा से प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का त्याग करना । ऐसा करने से जीव निर्भय होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 56.70-72, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#73|पद्मपुराण - 14.73-76]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#15|पद्मपुराण - 32.15]5 </span>देखें [[ दान ]]</p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> कर्म बंध के कारणों को त्याग करने की इच्छा से प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का त्याग करना । ऐसा करने से जीव निर्भय होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 56.70-72, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#73|पद्मपुराण - 14.73-76]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#15|पद्मपुराण - 32.15]5 </span>देखें [[ दान ]]</p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
वसुनंदी श्रावकाचार/234-238 असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।234। अइबुड्ढ-बाल-मुयंध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जह जोग्गं दायव्वं करुणादाणं त्ति भणिऊण।235। उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण। पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं।236। आगम-सत्थाइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं। तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा।237। जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणिं सव्वदाणाणं।238। =अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्र को देना चाहिए।234। अति, बालक, मूक (गूँगा), अंध, बधिर (बहिरा), देशांतरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवों को ‘करुणादान दे रहा हूँ’ ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।235। उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीड़ित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए।236। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवचनों का अध्यापन कराना पढ़ाना भी शास्त्रदान है।237। मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानों का शिखामणि रूप अभयदान जानना चाहिए।238।
देखें दान ।
पुराणकोष से
कर्म बंध के कारणों को त्याग करने की इच्छा से प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का त्याग करना । ऐसा करने से जीव निर्भय होते हैं । महापुराण 56.70-72, पद्मपुराण - 14.73-76,[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_32#15|पद्मपुराण - 32.15]5 देखें दान