आस्थानमंडल: Difference between revisions
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<p> महाशिल्पी कुबेर द्वारा निर्मित समवसरण की रचना । इसे वर्तुलाकार बनाया जाता है । इसकी रचना तीर्थंकरों को केवलज्ञान होने पर की जाती है । बारह योजन विस्तृत यह रचना धूलिसाल वलय से आवृत होती है । धूलिसाल के बाहर चारों दिशाओं में स्वर्णमय खंभों के अग्रभाग पर अवलंबित चार तोरणद्वार होते हैं । भीतर प्रत्येक दिशा में मानस्तंभ होता है । इनके पास प्रत्येक दिशा में चार-बार वापियां बनायी जाती हैं । वापियों के आगे जल से भरी परिखा समवसरण भूमि को घेरे रहती है । इसके भीतरी भू-भाग में लतावन रहता है । इस वन के भीतर की ओर निषध पर्वत के आकार का प्रथम कोट होता है । इस कोट की चार दिशाओं में चार गोपुरहार मंगलद्रव्यों से सुशोभित रहते हैं । प्रत्येक द्वार पर तीन-तीन खंडों की दो-दो नाट्य-शालाएँ होती है । आगे धूपघट रखे जाते हैं । घटों के आगे अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आस की वन-वीथियाँ होती हैं । अशोक वनवीथी के भव्य अशोक नाम का चैत्यवृक्ष होता है, जिसके मूल में जिन-प्रतिमाएँ चतुर्दिक् विराजती हैं । ऐसे ही प्रत्येक वन-वीथी के मध्य उस नाम के चैत्यवृक्ष होते हैं । वनों के अंत में चारों ओर गोपुर-द्वारों से मुक्त एक-एक वनवेदी होती है । हर दिशा में दस प्रकार की एक-एक सौ आठ ध्वजाएँ फहरायी जाती है । इस प्रकार चारों दिशाओं में कुछ चार हजार तीन सौ बीस ध्वजाएं होती हैं । प्रथम कोट के समान द्वितीय कोट होता है । इस कोट में कल्पवृक्षों के वन होते हैं । तृतीय कोट की रचना भी ऐसी ही होती है । प्रथम कोट पर व्यंतर, दूसरे पर भवनवासी और तीसरे पर कल्पवासी पहरा देते हैं । इनके आगे सोलह दीवारों पर श्रीमंडप बनाया जाता है । एक योजन लंबे-चौड़े इसी मंडप में सुर, असुर, <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>सभी निराबाध बैठते हैं । इसी में सिंहासन और गंधकुटी का निर्माण किया जाता है । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>22.77-312, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.32-36, 56-60, 72-73 </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14. 65-184, </span>त्रिकटनी से युक्त पीठ पर गंधकुटी का निर्माण होता है । यह छ: सौ धनुष चौड़ी, उतनी ही लंबी और चौड़ाई से कुछ अधिक ऊँची बनायी जाती है । गंधकुटी में सिंहासन होता है जिस पर जिनेंद्र तल से चार अंगुल ऊँचे विराजते हैं । यहाँ अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की जाती है । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>23.1-75 सभामंडप बाहर कक्षों में विभाजित होता है । पूर्व दिशा से प्रथम प्रकोष्ठ में अतिशय ज्ञान के धारक गणधर आदि मुनीश्वर, दूसरे में इंद्राणी आदि कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ, राजाओं की स्त्रियां तथा श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ, पांचवें में व्यंतर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवियाँ, सातवें में घरणेंद्र आदि भवनवासीदेव, आठवें में व्यंतरदेव, नवें में चंद्र सूर्य आदि ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और बारहवें में सिंह, मृग आदि तिर्यंच बैठते हैं । इस रचना के चारों ओर सौ-सौ योजन तक अन्न-पान सुलभ रहता है । क्रूर जीव क्रूरता छोड़ देते हैं । इसका अपरनाम समवसृतमही है । यह दिव्यभूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है, इसका उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कम से कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है । मानस्तंभ इतने ऊँचे निर्मित होते हैं कि बारह योजन दूरी से दिखायी देते हैं । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>23. 193-196, 25. 36-38, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.5-161, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 15.20-25 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> महाशिल्पी कुबेर द्वारा निर्मित समवसरण की रचना । इसे वर्तुलाकार बनाया जाता है । इसकी रचना तीर्थंकरों को केवलज्ञान होने पर की जाती है । बारह योजन विस्तृत यह रचना धूलिसाल वलय से आवृत होती है । धूलिसाल के बाहर चारों दिशाओं में स्वर्णमय खंभों के अग्रभाग पर अवलंबित चार तोरणद्वार होते हैं । भीतर प्रत्येक दिशा में मानस्तंभ होता है । इनके पास प्रत्येक दिशा में चार-बार वापियां बनायी जाती हैं । वापियों के आगे जल से भरी परिखा समवसरण भूमि को घेरे रहती है । इसके भीतरी भू-भाग में लतावन रहता है । इस वन के भीतर की ओर निषध पर्वत के आकार का प्रथम कोट होता है । इस कोट की चार दिशाओं में चार गोपुरहार मंगलद्रव्यों से सुशोभित रहते हैं । प्रत्येक द्वार पर तीन-तीन खंडों की दो-दो नाट्य-शालाएँ होती है । आगे धूपघट रखे जाते हैं । घटों के आगे अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आस की वन-वीथियाँ होती हैं । अशोक वनवीथी के भव्य अशोक नाम का चैत्यवृक्ष होता है, जिसके मूल में जिन-प्रतिमाएँ चतुर्दिक् विराजती हैं । ऐसे ही प्रत्येक वन-वीथी के मध्य उस नाम के चैत्यवृक्ष होते हैं । वनों के अंत में चारों ओर गोपुर-द्वारों से मुक्त एक-एक वनवेदी होती है । हर दिशा में दस प्रकार की एक-एक सौ आठ ध्वजाएँ फहरायी जाती है । इस प्रकार चारों दिशाओं में कुछ चार हजार तीन सौ बीस ध्वजाएं होती हैं । प्रथम कोट के समान द्वितीय कोट होता है । इस कोट में कल्पवृक्षों के वन होते हैं । तृतीय कोट की रचना भी ऐसी ही होती है । प्रथम कोट पर व्यंतर, दूसरे पर भवनवासी और तीसरे पर कल्पवासी पहरा देते हैं । इनके आगे सोलह दीवारों पर श्रीमंडप बनाया जाता है । एक योजन लंबे-चौड़े इसी मंडप में सुर, असुर, <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>सभी निराबाध बैठते हैं । इसी में सिंहासन और गंधकुटी का निर्माण किया जाता है । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>22.77-312, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.32-36, 56-60, 72-73 </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 14. 65-184, </span>त्रिकटनी से युक्त पीठ पर गंधकुटी का निर्माण होता है । यह छ: सौ धनुष चौड़ी, उतनी ही लंबी और चौड़ाई से कुछ अधिक ऊँची बनायी जाती है । गंधकुटी में सिंहासन होता है जिस पर जिनेंद्र तल से चार अंगुल ऊँचे विराजते हैं । यहाँ अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की जाती है । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>23.1-75 सभामंडप बाहर कक्षों में विभाजित होता है । पूर्व दिशा से प्रथम प्रकोष्ठ में अतिशय ज्ञान के धारक गणधर आदि मुनीश्वर, दूसरे में इंद्राणी आदि कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ, राजाओं की स्त्रियां तथा श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ, पांचवें में व्यंतर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवियाँ, सातवें में घरणेंद्र आदि भवनवासीदेव, आठवें में व्यंतरदेव, नवें में चंद्र सूर्य आदि ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>और बारहवें में सिंह, मृग आदि तिर्यंच बैठते हैं । इस रचना के चारों ओर सौ-सौ योजन तक अन्न-पान सुलभ रहता है । क्रूर जीव क्रूरता छोड़ देते हैं । इसका अपरनाम समवसृतमही है । यह दिव्यभूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है, इसका उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कम से कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है । मानस्तंभ इतने ऊँचे निर्मित होते हैं कि बारह योजन दूरी से दिखायी देते हैं । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span>23. 193-196, 25. 36-38, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.5-161, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 15.20-25 </span></p> | ||
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Revision as of 16:52, 14 November 2020
महाशिल्पी कुबेर द्वारा निर्मित समवसरण की रचना । इसे वर्तुलाकार बनाया जाता है । इसकी रचना तीर्थंकरों को केवलज्ञान होने पर की जाती है । बारह योजन विस्तृत यह रचना धूलिसाल वलय से आवृत होती है । धूलिसाल के बाहर चारों दिशाओं में स्वर्णमय खंभों के अग्रभाग पर अवलंबित चार तोरणद्वार होते हैं । भीतर प्रत्येक दिशा में मानस्तंभ होता है । इनके पास प्रत्येक दिशा में चार-बार वापियां बनायी जाती हैं । वापियों के आगे जल से भरी परिखा समवसरण भूमि को घेरे रहती है । इसके भीतरी भू-भाग में लतावन रहता है । इस वन के भीतर की ओर निषध पर्वत के आकार का प्रथम कोट होता है । इस कोट की चार दिशाओं में चार गोपुरहार मंगलद्रव्यों से सुशोभित रहते हैं । प्रत्येक द्वार पर तीन-तीन खंडों की दो-दो नाट्य-शालाएँ होती है । आगे धूपघट रखे जाते हैं । घटों के आगे अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आस की वन-वीथियाँ होती हैं । अशोक वनवीथी के भव्य अशोक नाम का चैत्यवृक्ष होता है, जिसके मूल में जिन-प्रतिमाएँ चतुर्दिक् विराजती हैं । ऐसे ही प्रत्येक वन-वीथी के मध्य उस नाम के चैत्यवृक्ष होते हैं । वनों के अंत में चारों ओर गोपुर-द्वारों से मुक्त एक-एक वनवेदी होती है । हर दिशा में दस प्रकार की एक-एक सौ आठ ध्वजाएँ फहरायी जाती है । इस प्रकार चारों दिशाओं में कुछ चार हजार तीन सौ बीस ध्वजाएं होती हैं । प्रथम कोट के समान द्वितीय कोट होता है । इस कोट में कल्पवृक्षों के वन होते हैं । तृतीय कोट की रचना भी ऐसी ही होती है । प्रथम कोट पर व्यंतर, दूसरे पर भवनवासी और तीसरे पर कल्पवासी पहरा देते हैं । इनके आगे सोलह दीवारों पर श्रीमंडप बनाया जाता है । एक योजन लंबे-चौड़े इसी मंडप में सुर, असुर, महापुराण सभी निराबाध बैठते हैं । इसी में सिंहासन और गंधकुटी का निर्माण किया जाता है । महापुराण 22.77-312, हरिवंशपुराण 57.32-36, 56-60, 72-73 वीरवर्द्धमान चरित्र 14. 65-184, त्रिकटनी से युक्त पीठ पर गंधकुटी का निर्माण होता है । यह छ: सौ धनुष चौड़ी, उतनी ही लंबी और चौड़ाई से कुछ अधिक ऊँची बनायी जाती है । गंधकुटी में सिंहासन होता है जिस पर जिनेंद्र तल से चार अंगुल ऊँचे विराजते हैं । यहाँ अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की जाती है । महापुराण 23.1-75 सभामंडप बाहर कक्षों में विभाजित होता है । पूर्व दिशा से प्रथम प्रकोष्ठ में अतिशय ज्ञान के धारक गणधर आदि मुनीश्वर, दूसरे में इंद्राणी आदि कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ, राजाओं की स्त्रियां तथा श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवियाँ, पांचवें में व्यंतर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवियाँ, सातवें में घरणेंद्र आदि भवनवासीदेव, आठवें में व्यंतरदेव, नवें में चंद्र सूर्य आदि ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ महापुराण और बारहवें में सिंह, मृग आदि तिर्यंच बैठते हैं । इस रचना के चारों ओर सौ-सौ योजन तक अन्न-पान सुलभ रहता है । क्रूर जीव क्रूरता छोड़ देते हैं । इसका अपरनाम समवसृतमही है । यह दिव्यभूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है, इसका उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कम से कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है । मानस्तंभ इतने ऊँचे निर्मित होते हैं कि बारह योजन दूरी से दिखायी देते हैं । महापुराण 23. 193-196, 25. 36-38, हरिवंशपुराण 57.5-161, वीरवर्द्धमान चरित्र 15.20-25