ओघ: Difference between revisions
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<p | <p>= ओघ, सामान्य या अभेदसे निरूपण करना पहली ओघप्ररूपणा है।</p> | ||
<p | <p> धवला पुस्तक 3/1,2,1/9/2 ओघं वृन्दं समूहः संपातः समुदयः पिण्डः अविशेषः अभिन्नः सामान्यमिति पर्यायशब्दाः। गत्यादि मार्गणस्थानैरविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देशः।</p> | ||
<p | <p>= ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अविशेष, अभिन्न और सामान्य ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। इस ओघनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इस प्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणा स्थानोंसे विशेषताको नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहों गुणस्थानोंके अर्थात् चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणका प्ररूपणा करना ओघनिर्देश है।</p> | ||
<p | <p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 3/23 संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा। वित्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।3।</p> | ||
<p | <p>= संक्षेप तथा ओघ ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्गविषैं रूढ़ है। बहुरि सो संज्ञा `मोहयोगभवा' कहिए दर्शन व चारित्र मोह वा मन वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। बहुरि तैसे ही विस्तार आदेश ऐसी मार्गणास्थानकी संज्ञा है। सो अपने-अपने कारणभूत कर्मके उदयतै हो है।</p> | ||
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Revision as of 16:58, 10 June 2020
गुणस्थान जो 14 होते हैं। ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 3) - देखें बृ जै.शब्दा.द्वि. खंड ।
धवला पुस्तक 1/1,1,8/160/2 ओघेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः।
= ओघ, सामान्य या अभेदसे निरूपण करना पहली ओघप्ररूपणा है।
धवला पुस्तक 3/1,2,1/9/2 ओघं वृन्दं समूहः संपातः समुदयः पिण्डः अविशेषः अभिन्नः सामान्यमिति पर्यायशब्दाः। गत्यादि मार्गणस्थानैरविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देशः।
= ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अविशेष, अभिन्न और सामान्य ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। इस ओघनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इस प्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणा स्थानोंसे विशेषताको नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहों गुणस्थानोंके अर्थात् चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवोंके प्रमाणका प्ररूपणा करना ओघनिर्देश है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 3/23 संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा। वित्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।3।
= संक्षेप तथा ओघ ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्गविषैं रूढ़ है। बहुरि सो संज्ञा `मोहयोगभवा' कहिए दर्शन व चारित्र मोह वा मन वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। बहुरि तैसे ही विस्तार आदेश ऐसी मार्गणास्थानकी संज्ञा है। सो अपने-अपने कारणभूत कर्मके उदयतै हो है।