गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> नरक में केवल नपुंसक वेद होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> नरक में केवल नपुंसक वेद होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/ </span>सू.105/345 <span class="PrakritText">णेरइया चदुसु ट्ठाणेसु सुद्धा णवुंसयवेदा ।105।</span> = <span class="HindiText">नारकी जीव चारों ही गुणस्थानों में शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं–(और भी देखें [[ वेद#5.3 | वेद - 5.3]]) । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1089 </span><span class="SanskritGatha">नारकाणां च सर्वेषां वेदकश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ।1089।</span> = <span class="HindiText">संपूर्ण नारकियों के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से एक नपुंसक ही वेद होता है उनके न स्त्री वदे होता है और न पुरुष वेद ।1089। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/ </span>सूत्र 110/347 <span class="PrakritText">देवा चदुसु ट्ठाणेसु दुवेदा, इत्थिवेदा पुरिसवेदा ।110। </span>= <span class="HindiText">देव चार गुणस्थानों मे स्त्री और पुरुष इस प्रकार दो वेद वाले होते हैं । </span><br /> | |||
मू.आ./1129<span class="PrakritGatha"> देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुवतिरिया । ते होंति दोसु वेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो ।1129।</span> = <span class="HindiText">चारों प्रकार के देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष) ही वेद होते हैं, तीसरा (नपुंसकवेद) नहीं । ( धवला 1/1, 1, 110/347/12 ) । </span><br /> | मू.आ./1129<span class="PrakritGatha"> देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुवतिरिया । ते होंति दोसु वेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो ।1129।</span> = <span class="HindiText">चारों प्रकार के देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष) ही वेद होते हैं, तीसरा (नपुंसकवेद) नहीं । (<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 110/347/12 </span>) । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र </span>व.<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/51/199 </span><span class="SanskritText">न देवाः ।51। .....न तेषु नपुंसकानि संति । </span>=<span class="HindiText"> देवों में नपुंसकवेदी नहीं होते । (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/51/156/27 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/80 </span>) । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/ </span>भू./93/214.... ।<span class="PrakritText"> सुरभोगभूमा पुरिसिच्छीवेदगा चेव ।93। </span>=<span class="HindiText"> देव तथा भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच केवल पुरुष व स्त्री वेदी ही होते हैं । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1087-1088 </span><span class="SanskritGatha"> यथा दिविजनारीणां नारीवेदोऽस्ति नेतरः । देवानां चापि सर्वेषां पाकः पंवेद एव हि ।1087। भोगभूमौ च नारीणां नारीवेदी न चेतरः । पूंवेदः केवलः पुंसां नान्यो वान्योन्यसंभवः ।1088। </span>= <span class="HindiText">जैसे संपूर्ण देवांगनाओं के केवल स्त्री वेद का उदय रहता है अन्य वेद का नहीं, वैसे ही सभी देवों के एक पुरुषवेद का ही उदय है अन्य का नहीं ।1087। भोगभूमि में स्त्रियों के स्त्री वेद तथा पुरुषवेद ही होता है, अन्य नहीं । स्त्रीवेदी के पुरुषवेद और पुरुषवेदी के स्त्रीवेद नहीं होता है ।1088। और भी दे./वेद/4/3) । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूर्च्छिम तिर्यंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूर्च्छिम तिर्यंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/ </span>सूत्र 106/345 <span class="PrakritText">तिरिक्खा सुद्धा णवुंसगवेदा एइंदिय-प्पहुडि जाव चउरिंदिया त्ति ।106।</span> <span class="HindiText">तिर्यंच एकेंद्रिय जीवों से लेकर चतुरिंद्रिय तक शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं ।106। </span><br /> | |||
मू.आ./1128<span class="PrakritGatha"> एइंदिय विगलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे । वेदो णवुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु ।1128।</span> = <span class="HindiText">एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, नारकी, सम्मूर्च्छिम असंज्ञी व संज्ञी तिर्यंच तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य नियम से नपुंसक लिंगी होते हैं । ( त्रिलोकसार/331 ) । </span><br /> | मू.आ./1128<span class="PrakritGatha"> एइंदिय विगलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे । वेदो णवुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु ।1128।</span> = <span class="HindiText">एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, नारकी, सम्मूर्च्छिम असंज्ञी व संज्ञी तिर्यंच तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य नियम से नपुंसक लिंगी होते हैं । (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/331 </span>) । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/50 </span><span class="SanskritText">नारक संमूर्च्छिनो नपुंसकानि ।50। </span>= <span class="HindiText">नारक और सम्मूर्च्छिम नपुंसक होते हैं । (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/80 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/93/214 </span>) । </span><br /> | |||
घ.1/1, 1, 110/347/11 <span class="SanskritText">तिर्यङ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः संमूर्च्छिमपंचेद्रियाश्च नपुंसका एव ।</span> = <span class="HindiText">लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पंचेंद्रिय जीव नपुंसक ही होते हैं । </span><br /> | घ.1/1, 1, 110/347/11 <span class="SanskritText">तिर्यङ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः संमूर्च्छिमपंचेद्रियाश्च नपुंसका एव ।</span> = <span class="HindiText">लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पंचेंद्रिय जीव नपुंसक ही होते हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1090-1091 </span><span class="SanskritText">तिर्यग्जातौ च सर्वेषां एकाक्षाणां नपुंसकःवेदो विकलत्रयाणां क्लीबः स्यात् केवलः किल ।1090। पंचाक्षासंज्ञिनां चापि तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचन ।1091। </span>= <span class="HindiText">तिर्यंचजातियों में भी निश्चय करके द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से संपूर्ण एकेंद्रियों के, विकलेंद्रियों के और (सम्मूर्च्छिम) असंज्ञी पंचेंद्रियों के केवल एक नपुंसक वेद होता है, अन्य वेद कभी नहीं होता ।1090-1091 । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/1/1, 1/ </span>सूत्र 107-109/346 <span class="PrakritText">तिरक्खा तिवेदा असण्णिपंचिंदियप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ।107। मणुस्सा तिवेदा मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ।108। तेण परमवगदवेदा चेदि ।109। </span>= <span class="HindiText">तिर्यंच असंज्ञी पंचेंद्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं ।107। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते हैं ।108। नवमें गुणस्थान के सवेदभाग के आगे सभी गुणस्थान वाले जीव वेद रहित होते हैं ।109। </span><br /> | |||
मू.आ./1130 <span class="PrakritGatha">पंचिदिया दु सेसा सण्णि असण्णि य तिरिय मणुसा य । ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहिं ।1130। </span>= <span class="HindiText">उपरोक्ता सर्व विकल्पों से शेष जो संज्ञी असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच और मनुष्य स्त्री, पुरुष व नपुंसक तीनों वेदों वाले होते हैं ।1130। </span><br /> | मू.आ./1130 <span class="PrakritGatha">पंचिदिया दु सेसा सण्णि असण्णि य तिरिय मणुसा य । ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहिं ।1130। </span>= <span class="HindiText">उपरोक्ता सर्व विकल्पों से शेष जो संज्ञी असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच और मनुष्य स्त्री, पुरुष व नपुंसक तीनों वेदों वाले होते हैं ।1130। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/52 </span><span class="SanskritText">शेषास्त्रिवेदाः ।52।</span> =<span class="HindiText"> शेष के सब जीव तीन वेद वाले होते हैं । (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/80 </span>) । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/ </span>भू./93/214 <span class="PrakritText">णर तिरिये तिण्णि होंति । </span>= <span class="HindiText">नर और तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/131 </span><span class="PrakritText">तिवेदा गव्भणरतिरिया ।</span> =<span class="HindiText"> गर्भज मनुष्य व तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1092 </span><span class="SanskritGatha">कर्मभूमौ मनुष्याणां मानुषीणां तथैव च । तिरश्चां वा तिरश्चीनां त्रयो वेदास्तथोदयात् ।1092। </span>= <span class="HindiText">कर्मभूमि में मनुष्यों के और मनुष्यनियों के तथा तिर्यंचों के और तिर्यंचिनियों के अपने-अपने उदय के अनुसार तीनों वेद होते हैं ।1092। अर्थात् द्रव्य वेद की अपेक्षा पुरुष व स्त्री वेदी होते हुए भी उनके भाववेद की अपेक्षा तीनों में से अन्यतम वेद पाया जाता है ।1093-1095 । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> एकेंद्रियों में वेदभाव की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> एकेंद्रियों में वेदभाव की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 103/343/8 </span><span class="SanskritText"> एकेंद्रियाणं न द्रव्यवेद उपलभ्यते, तदनुपलब्धौ कथं तस्य तत्र सत्त्वमिति चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेदः, तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभावः सिद्धयेत्, सकलप्रमेयव्याप्युपलंभबलेन तत्सिद्धिः । न स छद्मस्थेष्वस्ति । एकेंद्रियाणामप्रतिपंनस्त्रीपुरुषाणां कथं स्त्रीपुरुषविषयाभिलाषे घटत इति चेन्न, अप्रतिपन्नस्त्रीवेदेन भूमिगृहांतर्वृद्धिमुपगतेन यूना पुरुषेण व्यभिचारात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>एकेंद्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्यवेद की उपलब्धि नहीं होने पर एकेंद्रिय जीवों में नपुंसक वेद का अस्तित्व कैसे बतलाया? <strong>उत्तर–</strong>एकेंद्रियों में द्रव्यवेद मत होओ, क्योंकि उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है । अथवा द्रव्यवेद की एकेंद्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है । किंतु संपूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहने वाले उपलंभप्रमाण (केवलज्ञान से) उसकी सिद्धि हो जाती है । परंतु वह उपशंभ (केवलज्ञान) छद्मस्थों में नहीं पाया जाता है । <strong>प्रश्न–</strong>जो स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेंद्रियों को स्त्री और पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात है और भूगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुष के साथ उक्त कथन का व्यभिचार देखा जाता है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> चींटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> चींटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 106/346/2 </span><span class="SanskritText">पिपीलिकानामंडदर्शनान्न ते नपुंसक इति चेन्न, अंडानां गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>चींटियों के अंडे देखे जाते हैं, इसलिए वे नपुंसकवेदी नहीं हो सकते हैं? उत्तर-अंडों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती है । ऐसा कोई नियम नहीं । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> विग्रह गति में भी अव्यक्तवेद होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> विग्रह गति में भी अव्यक्तवेद होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 106/346/3 </span><span class="SanskritText">विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्तवेदस्य सत्त्वात् । </span>= <span class="HindiText">विग्रहगति में भी वेद का अभाव नहीं है, क्योंकि वहाँ भी अव्यक्त वेद पाया जाता है । </span></li> | |||
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Revision as of 12:59, 14 October 2020
- गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व
- नरक में केवल नपुंसक वेद होता है
षट्खंडागम/1/1, 1/ सू.105/345 णेरइया चदुसु ट्ठाणेसु सुद्धा णवुंसयवेदा ।105। = नारकी जीव चारों ही गुणस्थानों में शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं–(और भी देखें वेद - 5.3) ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1089 नारकाणां च सर्वेषां वेदकश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ।1089। = संपूर्ण नारकियों के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से एक नपुंसक ही वेद होता है उनके न स्त्री वदे होता है और न पुरुष वेद ।1089।
- भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं
षट्खंडागम/1/1, 1/ सूत्र 110/347 देवा चदुसु ट्ठाणेसु दुवेदा, इत्थिवेदा पुरिसवेदा ।110। = देव चार गुणस्थानों मे स्त्री और पुरुष इस प्रकार दो वेद वाले होते हैं ।
मू.आ./1129 देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुवतिरिया । ते होंति दोसु वेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो ।1129। = चारों प्रकार के देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष) ही वेद होते हैं, तीसरा (नपुंसकवेद) नहीं । ( धवला 1/1, 1, 110/347/12 ) ।
तत्त्वार्थसूत्र व. सर्वार्थसिद्धि/2/51/199 न देवाः ।51। .....न तेषु नपुंसकानि संति । = देवों में नपुंसकवेदी नहीं होते । ( राजवार्तिक/2/51/156/27 ); ( तत्त्वसार/2/80 ) ।
गोम्मटसार जीवकांड/ भू./93/214.... । सुरभोगभूमा पुरिसिच्छीवेदगा चेव ।93। = देव तथा भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच केवल पुरुष व स्त्री वेदी ही होते हैं ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1087-1088 यथा दिविजनारीणां नारीवेदोऽस्ति नेतरः । देवानां चापि सर्वेषां पाकः पंवेद एव हि ।1087। भोगभूमौ च नारीणां नारीवेदी न चेतरः । पूंवेदः केवलः पुंसां नान्यो वान्योन्यसंभवः ।1088। = जैसे संपूर्ण देवांगनाओं के केवल स्त्री वेद का उदय रहता है अन्य वेद का नहीं, वैसे ही सभी देवों के एक पुरुषवेद का ही उदय है अन्य का नहीं ।1087। भोगभूमि में स्त्रियों के स्त्री वेद तथा पुरुषवेद ही होता है, अन्य नहीं । स्त्रीवेदी के पुरुषवेद और पुरुषवेदी के स्त्रीवेद नहीं होता है ।1088। और भी दे./वेद/4/3) ।
- कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूर्च्छिम तिर्यंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं
षट्खंडागम/1/1, 1/ सूत्र 106/345 तिरिक्खा सुद्धा णवुंसगवेदा एइंदिय-प्पहुडि जाव चउरिंदिया त्ति ।106। तिर्यंच एकेंद्रिय जीवों से लेकर चतुरिंद्रिय तक शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं ।106।
मू.आ./1128 एइंदिय विगलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे । वेदो णवुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु ।1128। = एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, नारकी, सम्मूर्च्छिम असंज्ञी व संज्ञी तिर्यंच तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य नियम से नपुंसक लिंगी होते हैं । ( त्रिलोकसार/331 ) ।
तत्त्वार्थसूत्र/2/50 नारक संमूर्च्छिनो नपुंसकानि ।50। = नारक और सम्मूर्च्छिम नपुंसक होते हैं । ( तत्त्वसार/2/80 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/93/214 ) ।
घ.1/1, 1, 110/347/11 तिर्यङ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः संमूर्च्छिमपंचेद्रियाश्च नपुंसका एव । = लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पंचेंद्रिय जीव नपुंसक ही होते हैं ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1090-1091 तिर्यग्जातौ च सर्वेषां एकाक्षाणां नपुंसकःवेदो विकलत्रयाणां क्लीबः स्यात् केवलः किल ।1090। पंचाक्षासंज्ञिनां चापि तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचन ।1091। = तिर्यंचजातियों में भी निश्चय करके द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से संपूर्ण एकेंद्रियों के, विकलेंद्रियों के और (सम्मूर्च्छिम) असंज्ञी पंचेंद्रियों के केवल एक नपुंसक वेद होता है, अन्य वेद कभी नहीं होता ।1090-1091 ।
- कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं
षट्खंडागम/1/1, 1/ सूत्र 107-109/346 तिरक्खा तिवेदा असण्णिपंचिंदियप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ।107। मणुस्सा तिवेदा मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ।108। तेण परमवगदवेदा चेदि ।109। = तिर्यंच असंज्ञी पंचेंद्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं ।107। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते हैं ।108। नवमें गुणस्थान के सवेदभाग के आगे सभी गुणस्थान वाले जीव वेद रहित होते हैं ।109।
मू.आ./1130 पंचिदिया दु सेसा सण्णि असण्णि य तिरिय मणुसा य । ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहिं ।1130। = उपरोक्ता सर्व विकल्पों से शेष जो संज्ञी असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच और मनुष्य स्त्री, पुरुष व नपुंसक तीनों वेदों वाले होते हैं ।1130।
तत्त्वार्थसूत्र/2/52 शेषास्त्रिवेदाः ।52। = शेष के सब जीव तीन वेद वाले होते हैं । ( तत्त्वसार/2/80 ) ।
गोम्मटसार जीवकांड/ भू./93/214 णर तिरिये तिण्णि होंति । = नर और तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं ।
त्रिलोकसार/131 तिवेदा गव्भणरतिरिया । = गर्भज मनुष्य व तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1092 कर्मभूमौ मनुष्याणां मानुषीणां तथैव च । तिरश्चां वा तिरश्चीनां त्रयो वेदास्तथोदयात् ।1092। = कर्मभूमि में मनुष्यों के और मनुष्यनियों के तथा तिर्यंचों के और तिर्यंचिनियों के अपने-अपने उदय के अनुसार तीनों वेद होते हैं ।1092। अर्थात् द्रव्य वेद की अपेक्षा पुरुष व स्त्री वेदी होते हुए भी उनके भाववेद की अपेक्षा तीनों में से अन्यतम वेद पाया जाता है ।1093-1095 ।
- एकेंद्रियों में वेदभाव की सिद्धि
धवला 1/1, 1, 103/343/8 एकेंद्रियाणं न द्रव्यवेद उपलभ्यते, तदनुपलब्धौ कथं तस्य तत्र सत्त्वमिति चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेदः, तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभावः सिद्धयेत्, सकलप्रमेयव्याप्युपलंभबलेन तत्सिद्धिः । न स छद्मस्थेष्वस्ति । एकेंद्रियाणामप्रतिपंनस्त्रीपुरुषाणां कथं स्त्रीपुरुषविषयाभिलाषे घटत इति चेन्न, अप्रतिपन्नस्त्रीवेदेन भूमिगृहांतर्वृद्धिमुपगतेन यूना पुरुषेण व्यभिचारात् । = प्रश्न–एकेंद्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्यवेद की उपलब्धि नहीं होने पर एकेंद्रिय जीवों में नपुंसक वेद का अस्तित्व कैसे बतलाया? उत्तर–एकेंद्रियों में द्रव्यवेद मत होओ, क्योंकि उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है । अथवा द्रव्यवेद की एकेंद्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है । किंतु संपूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहने वाले उपलंभप्रमाण (केवलज्ञान से) उसकी सिद्धि हो जाती है । परंतु वह उपशंभ (केवलज्ञान) छद्मस्थों में नहीं पाया जाता है । प्रश्न–जो स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेंद्रियों को स्त्री और पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात है और भूगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुष के साथ उक्त कथन का व्यभिचार देखा जाता है ।
- चींटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे
धवला 1/1, 1, 106/346/2 पिपीलिकानामंडदर्शनान्न ते नपुंसक इति चेन्न, अंडानां गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावात् । = प्रश्न–चींटियों के अंडे देखे जाते हैं, इसलिए वे नपुंसकवेदी नहीं हो सकते हैं? उत्तर-अंडों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती है । ऐसा कोई नियम नहीं ।
- विग्रह गति में भी अव्यक्तवेद होता है
धवला 1/1, 1, 106/346/3 विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्तवेदस्य सत्त्वात् । = विग्रहगति में भी वेद का अभाव नहीं है, क्योंकि वहाँ भी अव्यक्त वेद पाया जाता है ।
- नरक में केवल नपुंसक वेद होता है