गहु सन्तोष सदा मन रे! जा सम और नहीं धन रे: Difference between revisions
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Latest revision as of 01:16, 16 February 2008
गहु सन्तोष सदा मन रे! जा सम और नहीं धन रे
आसा कांसा भरा न कबहूं, भर देखा बहुजन रे ।
धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह बानक किमि बन रे ।।गहु. ।।१ ।।
जे धन ध्यावैं ते नहिं पावैं, छांडै लगत चरन रे ।।
यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे ।।गहु. ।।२ ।।
तरुकी छाया नरकी माया, घटै बढ़ै छन छन रे ।
`द्यानत' अविनाशी धन लागैं, जागैं त्यागैं ते धन रे ।।गहु. ।।३ ।।