दर्शनपाहुड़ गाथा 16: Difference between revisions
From जैनकोष
('<div class="PrakritGatha"><div>सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवं...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 7: | Line 7: | ||
<br> | <br> | ||
<div class="HindiUtthanika">आगे, कल्याण-अकल्याण को जानने से क्या होता है, सो कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">आगे, कल्याण-अकल्याण को जानने से क्या होता है, सो कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - कल्याण और अकल्याणमार्ग को जाननेवाला पुरुष ‘‘उद्धृतदु:शील:’’ अर्थात्जिसने मिथ्यात्वभाव को उड़ा दिया है - ऐसा होता है तथा ‘‘शीलवानपि’’ अर्थात् सम्यक्स्वभावयुक्त भी होता है तथा उस सम्यक्स्वभाव के फल से अभ्युदय को प्राप्त होता है, तीर्थंकरादि पद प्राप्त करता है तथा अभ्युदय होने के पश्चात् निर्वाण को प्राप्त होता है ।</div> | ||
</div> | </div> | ||
<div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - भले-बुरे मार्ग को जानता है, तब अनादि संसार से लगाकर, जो मिथ्याभावरूप प्रकृति है, वह पलटकर सम्यक्स्वभावस्वरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंध करे तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - भले-बुरे मार्ग को जानता है, तब अनादि संसार से लगाकर, जो मिथ्याभावरूप प्रकृति है, वह पलटकर सम्यक्स्वभावस्वरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंध करे तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥</div> |
Latest revision as of 22:27, 2 November 2013
सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवंतो वि ।
सीलफलेणब्भुदयं तत्ते पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥
श्रेयोऽश्रेयवेत्त उद्धृतदु:शील: शीलवानपि ।
शीलफलेनाभ्युदयं तत: पुन: लभते निर्वाणम् ॥१६॥
आगे, कल्याण-अकल्याण को जानने से क्या होता है, सो कहते हैं -
अर्थ - कल्याण और अकल्याणमार्ग को जाननेवाला पुरुष ‘‘उद्धृतदु:शील:’’ अर्थात्जिसने मिथ्यात्वभाव को उड़ा दिया है - ऐसा होता है तथा ‘‘शीलवानपि’’ अर्थात् सम्यक्स्वभावयुक्त भी होता है तथा उस सम्यक्स्वभाव के फल से अभ्युदय को प्राप्त होता है, तीर्थंकरादि पद प्राप्त करता है तथा अभ्युदय होने के पश्चात् निर्वाण को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - भले-बुरे मार्ग को जानता है, तब अनादि संसार से लगाकर, जो मिथ्याभावरूप प्रकृति है, वह पलटकर सम्यक्स्वभावस्वरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंध करे तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥