ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 218 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो । (218)
चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥234॥
अर्थ:
[अयताचार: श्रमण:] अप्रयत आचारवाला श्रमण [षट्सु अपि कायेषु] छहों काय संबंधी [वधकर:] वध का करने वाला [इति मत:] मानने में—कहने में आया है; [यदि] यदि [नित्यं] सदा [यतं चरति] प्रयतरूप से आचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमल की भाँति [निरुपलेप:] निर्लेप कहा गया है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ सर्वथान्तरंगच्छेद: प्रतिषेध्य इत्युपदिशति -
यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धय्यदशुद्धोपयोगसद्भाव: षट्कायप्राणव्यप-रोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धय्या हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धय्य-दशुद्धोपयोगासद्भाव: परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाज्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपत्व-प्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तै: सर्वै: प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छेद: प्रतिषेध्यो यैर्यैस्तदायतनमात्रभूत: परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्ध: स्यात् ॥२१८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होने वाले बंध की प्रसिद्धि है; और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि पर के आश्रय से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से जल में झूलते हुए कमल की भांति निर्लेपता की प्रसिद्धि है । इसलिये उन-उन सर्वप्रकार से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद निषेध्य त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारों से उसका आयतनमात्रभूत परद्रव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषिद्ध हो ॥२१८॥