रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 5: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
तत्र सद्दर्शनविषयतयोक्तस्याप्तस्य स्वरूपं व्याचिख्यासुराह --
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥
टीका:
आप्तेन भवितव्यं नियोगेन निश्चयेन नियमेन वा । किं विशिष्टेन ? उत्सन्नदोषेण नष्टदोषेण । तथा सर्वज्ञेन सर्वत्र विषयेऽशेषविशेषत: परिस्फुटपरिज्ञानवता नियोगेन भवितव्यम् । तथा आगमेशिना भव्यजनानां हेयोपादेयतत्त्वप्रतिपत्तिहेतुभूतागमप्रतिपादकेन नियमेन भवितव्यम् । कुत एतदित्याह -- नान्यथा ह्याप्तता भवेत् हि यस्मात् अन्यथा उक्तविपरीतप्रकारेण, आप्तता न भवेत् ॥५॥
आगे सम्यग्दर्शन के विषय से कहे हुए आप्त का लक्षण कहते हैं --
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥5॥
टीकार्थ:
जिनके क्षुधा-तृषादि शारीरिक तथा रागद्वेषादिक दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो समस्त पदार्थों को उनकी विशेषताओं सहित स्पष्ट जानते हैं तथा जो आगम के ईश हैं अर्थात् जिनकी दिव्यध्वनि सुनकर गणधर द्वादशांगरूप शास्त्र की रचना करते हैं, इस प्रकार जो भव्य जीवों को हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान कराने वाले आगम के मूलकर्ता हैं वे ही आप्त-सच्चे देव हो सकते हैं, यह निश्चित है, क्योंकि जिनमें ये विशेषताएँ नहीं हैं, वे सच्चे देव नहीं हो सकते ।