रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 92: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
तत्र देशावकाशिकस्य तावल्लक्षणम् --
देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य
प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥92॥
टीका:
देशावकाशिकं देशे मर्यादीकृतदेशमध्येऽपि स्तोकप्रदेशेऽवकाशो नियतकालमवस्थानं सोऽस्यास्तीति देशावकाशिकं शिक्षाव्रतं स्यात् । कोऽसौ ? प्रतिसंहारो व्यावृत्ति: । कस्य? देशस्य । कथम्भूतस्य ? विशालस्य बहो: । केन ? कालपरिच्छेदनेन दिवसादिकालमर्यादया । कथम्? प्रत्यहं प्रतिदिनम् । केषाम् ? अणुव्रतानाम् अणूनि सूक्ष्माणि व्रतानि तेषां केषां श्रावकाणामित्यर्थ: ॥
देशावकाशिक शिक्षाव्रत
देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य
प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥92॥
टीकार्थ:
मर्यादित देश में भी नियतकाल तक स्तोक स्थान में रहना देशावकाश है। यह देशावकाश जिस व्रत का प्रयोजन है, वह देशावकाशिक शिक्षाव्रत है । दिग्व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए जो विशाल क्षेत्र की सीमा बांधी थी, उसमें भी एक दिन, एक पहर आदि काल की मर्यादा लेकर और भी कम करना वह देशावकाशिक शिक्षाव्रत कहलाता है । यह व्रत अणुव्रती श्रावकों के होता है । 'अणूनि सूक्ष्माणि व्रतानि येषां ते अणुव्रता:, तेषाम्' इस प्रकार समास करने से अणुव्रतधारी श्रावक ही होते हैं ।